Analysis Before Election 2024: क्षेत्रीय नेताओं में विपक्षी मोर्चे का प्रमुख बनने की हो़ड़

730

Analysis Before Election 2024: क्षेत्रीय नेताओं में विपक्षी मोर्चे का प्रमुख बनने की हो़ड़

देश के प्रिंट मीडिया में भर गर्मी के मौसम में बहार आई हुई है। इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया के दौर में भी प्रिंट मीडिया की पूछपरख होने लगी है। देश में आम चुनाव का महापर्व जो प्रारंभ होने जा रहा है। इस वर्ष पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और अगले वर्ष मई में लोकसभा के चुनाव हैं। इसके मद्देनजर विपक्षी एकता के अभियान में आगे यह मुद्दा उठने वाला है कि मुखिया कौन होगा? संभवत: उस शक्ति परीक्षण का पहला कदम है 2 जून को देश के प्रमुख अखबारो में छपे तलंगाना की तरक्की के 4-6 पेज के आदमकद विज्ञापन। छवि निर्माण का यह आरंभ किस अंत तक पहुंचता है, यह ऐसे ही गैर भाजपाई राज्य सरकारों के मुखियाओं द्वारा आगामी दिनों में की गई पहल से मालूम चलेगा।

IMG 20230602 WA0110par po

यह पहला मौका नहीं है, जब किसी राज्य सरकार ने सुदूर प्रांतों के प्रमुख अखबारों में अपनी उपलब्धियों के विज्ञापन दिये हों। इस सिलसिले के जनक आम आदमी पार्टी को माना जा सकता है। उसने दिल्ली की नगर निगम जितने राज्य के कथित कामों को गिनाते हुए देश भर के अखबार के पन्ने पाट दिये थे और न्यूज चैनल्स की स्क्रीन को ढंक दिया था। दिल्ली के बाद उसने पंजाब में सरकार बनने के बाद भी इस सिलसिले को जारी रखा। उसके नक्शे कदम पर राजस्थान की अशोक गेहलोत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने भी दौड़ लगाई। अब कुछ अरसे से यह काम तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर याने के.चंद्रशेखर राव ने प्रारंभ किया है। ममता बैनर्जी ने आंशिक तौर पर ही ऐसा किया था। समाजवादी पार्टी,बहुजन समाज पार्टी,उद्धव ठाकरे की शिवसेना,राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी वगैरह अभी ऐसा कुछ किये जाने की हैसियत में नहीं हैं। ये गरीब पार्टियां हैं, क्योंकि इनके पास अभी किसी राज्य का कोष नहीं है। जब आ जायेगा, तब ये भी सूद समेत हिसाब चुकता कर लेंगे। बहरहाल।

तेलंगाना,बंगाल,पंजाब,महाराष्ट्र,मप्र,छत्तीसगढ़,उत्तरप्रदेश,बिहार या ऐसे ही किसी राज्य को किसी दूर प्रदेश के अखबारों में अपनी उपलब्धियों का झंडा फहराने का क्या मतलब है? जाहिर-सी बात है कि वे अपनी छवि को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करना चाहते हैं। उन्हें इसका हक भी है, लेकिन इसकी कीमत उन राज्यों का करदाता क्यों चुकाये? इसकी परवाह अब किसे है। विपक्षी एकता के उपक्रम पर नजर डालें तो पाते हैं कि भाजपा विरोधी किसी भी गठबंधन या मोर्चे का मुखिया बनने की होड़,अति महत्वाकांक्षा बलवती हो रही है। केसीआर,ममता बैनर्जी,शरद पवार के बीच संघर्ष कभी-भी सतह पर आ सकता है। ये अपने इलाकों के राजा हैं। 2024 के आम चुनाव में ये राष्ट्रीय नेता के तौर पर उभरने-पहचाने जाने को बेताब हैं। यूं भी तेलंगाना में दिसंबर 2023 में ही विधानसभा चुनाव हैं और केसीआर अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिये हर संभव तिकड़म आजमा रहे हैं। दो दिन पहले उन्होंने अखबारों में विज्ञापन के जरिये अपने प्रदेश में ब्राह्मणों को दी जा रही सुविधाओं का बखान किया था और 2 जून को समग्र योजनाओं की फेहरिस्त के साथ हाजिर हुए हैं। वैसे भी 2 जून 2014 को आंध्र प्रदेश से अलग होकर स्वतंत्र राज्य बनने के बाद से ही केसीआर सरकार है। ये विज्ञापन भी दस वर्ष पूरे होने के निमित्त दिये गये । केसीआर तेजी के साथ अपना प्रभाव देश में बढ़ाने की इच्छा रखते हैं। हाल ही में मप्र के रीवा से पूर्व भाजपा सांसद बुद्धसेन पटेल,बसपा के पूर्व विधायक डॉ. नरेश सिंह गुर्जर,धीरेंद्र सिंह(सपा) ने केसीआर की पार्टी भारत राष्ट्र समिति की सदस्यता ली है। केसीआर ने उन्हें भोपाल में एक आमसभा आयोजित करने का कहा है। तृणमुल कांग्रेस,राष्ट्रवादी कांग्रेस और माकपा से राष्ट्रीय पार्टी का रूतबा छीनने और आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिलने के बाद केसीआर की महत्वाकांक्षा हिलोरे लेने लगी हैं। ऐसे में मोदी को प्रधानमंत्री के सम्मान से वंचित रखने वाले केसीआर अरविंद केजरीवाल,राहुल गांधी,ममता बैनर्जी या शरद पवार को विपक्षी एकता के समय गठबंधन का नेता मानने को तैयार हो पायेंगे?
विपक्ष के लिये अब यह एक अनिवार्य शर्त-सी होती जा रही है कि कौन,कितने आक्रामक तरीके से केंद्र की भाजपा सरकार याने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमले कर सकता है। कौन उनका कितना अनादर कर सकता है। कौन तमाम मर्यादाओं को खूंटी पर उलटा टांग सकता है। इस मामले में शरद पवार तो फिर भी विरोध की राजनीतिक शैली ही रखते आये हैं, लेकिन ममता और केसीआर यह दिखाना चाहते हैं कि उनमें से ज्यादा बेमुरव्वत कौन है। केसीआर तो संवैधानिक दर्जा होने के बावजूद अपने राज्य में आगमन पर प्रधानमंत्री का औपचारिक स्वागत तक नहीं करते। वे देश के संभवत पहले ऐसे मुख्यंमंत्री हैं, जिन्होंने प्रधानमंत्री जैसे देश की विधायिका के प्रमुख पद पर आसीन व्यक्ति को भी राजनीतिक चश्मे से न देखकर निजी पसंद-नापसंद से देखा। वे अपने इलाके में भले ही इस बात की शेखी बघार लें और राज्य के वर्ग विशेष के बीच शाबाशी बटोर लें कि वे प्रधानमंत्री को कुछ नहीं समझते,लेकिन लोकतंत्र के मानकों,मर्यादाओं की जब भी बात निकलेगी तो उन्हें प्रताड़ना ही मिलेगी।

यहां कांग्रेस और राहुल गांधी का जिक्र करना फिजूल है। राहुल इस समय अमेरिका के दौरे पर देश की सरकार को कोसने का वही काम कर रहे हैं, जो वे इंग्लैंड दौरे पर कर चुके हैं। फिर अभी तो गैर भाजपाई विपक्ष ने यह तय ही नहीं किया है कि वे कांग्रेस के साथ गठबंधन करेंगे या उसके बगैर।

अभी तो आम चुनाव 2024 की पहली पायदान पर ही हम खड़े हैं। जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, न जाने कितनी विकृत,अमर्यादित और अशिष्ट हरकतें हमें देखने को मिल सकती है। यह उन लोगों के चेहरे से लोकतंत्र,संविधान,धर्म निरपेक्षता,सर्व धर्म समभाव के मुखौटे निकाल फेंकेगा। इन मुखौटों के पीछे छुपे चेचकरू चेहरों को देखना जनता को कैसे लगेगा, कौन जाने?