अपनी भाषा अपना विज्ञान: प्रकृति में कितना स्वार्थ कितना परमार्थ?
धरती ग्रह पर जीवन के विकास को समझने के लिए डार्विन की Theory of Evolution by Natural Selection पिछले 175 वर्षों से सर्वमान्य है। अपवादों को छोड़ दो।
प्राकृतिक चयन द्वारा नई तथा उन्नत स्पीशीज बनती चली जाती है। करोड़ों प्रजातियां विलुप्त हो गई। करोड़ों नई बनी।
Survival of the Fittest
“श्रेष्ठतम जिन्दा रहता है।”
इस सूत्र वाक्य को लोग ठीक से नहीं समझते हैं। नैतिकता और आदर्शों के पैमाने पर उसके गलत अर्थ लगाते हैं।
बायोलॉजी में प्राणी मात्र की सफलता इस बात से आंकी जाती है किसी स्पीशीज के व्यक्तिगत सदस्य द्वारा कितनी संताने पैदा होती है, जिंदा रहती है, वंश चलाती है, जनसंख्या बढ़ाती है। जीवन एक संघर्ष है। भोजन पानी, आश्रय, सुरक्षा, सेक्स साथी जैसे संसाधन प्रायः कम पड़ जाते हैं। लड़ भिड़ कर उन्हें हासिल करना पड़ता है। स्वार्थी बनना पड़ता है। स्वयं के लिए या अपनी प्रजाति (स्पीशीज) के लिए। लेकिन प्रकृति में कुछ प्राणियों द्वारा परमार्थ के उदाहरण भी देखने को मिलते हैं। भला क्यों? इसकी चर्चा शीघ्र ही।
स्वार्थ उदाहरण -1
Black-headed gulls (काले सिर वाले समुद्री कौवे) सागर किनारे इनकी बड़ी-बड़ी बस्तियां होती है। जमीन पर बने घोसलों में नवजात चूजों की निगरानी करना होती है। बीच-बीच में उड़कर पानी में से मछली पकड़ कर लाना होती है। ताक में रहते हैं कि जैसे ही किसी पड़ोसी सी-गल की नजर दूसरी दिशा में फिरी, या वह उड़कर पानी तक गया हो, तपाक से उसके चूजे को पूरा का पूरा निगल जाते हैं। खुद का बच्चा सुरक्षित रहा और स्वयं को आहार मिल गया।
स्वार्थ उदाहरण-2
प्रेयिंग मेंटिस नामक कीड़ा (टिड्डी जैसा) अपने से छोटे कीड़ों (मक्खी आदि) को आहार बनाता है। सेक्स (संभोग) के समय नर टिड्डा मादा की पीठ पर चढ़ता है। यही मौका है मादा के लिए। गर्दन पलटा कर नर के सिर को कुतर-कुतर कर खा जाती है। यौन क्रिया पूर्ण होने की प्रतीक्षा नहीं करती। सिर में प्रोटीन खूब होता है।
स्वार्थ उदाहरण-3
अंटार्कटिका के बर्फीले आइसबर्ग पर बसने वाले “एंपरर पेंग्विन” सागर किनारे खड़े खड़े प्रतीक्षा करते रहते हैं। पानी में पहले कौन जाएगा? मछलियां जो पकड़नी है। बड़ी सील मछलियां अंदर घात लगाए बैठी हैं। जो पहले कूदेगा वह मरेगा। तभी उनमें से कोई किसी साथी को धक्का देकर पानी में टपका देता है। टेस्टिंग हो जाती है कि आसपास सील मछली है या नहीं?
कहावत है बड़ी मछली छोटी मछली को खाती हैं।
प्रकृति क्रूर है या विनम्र, Benign है या Malignant?
हममें से अनेक प्रकृति के प्रति प्यार और सम्मान के साथ मृदु भाव रखते हैं। ‘भूदेवी’ के रूप में उसकी आराधना करते हैं। कुछ लोगों ने उसे Gaia (गेइया) के रूप में परिकल्पित कर रखा है जो कि यूनानी पुराण कथाओं में वर्णित है। प्रायः मानव जाति को कोसा जाता है कि इन देवियों को हम कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं।
क्या प्रकृति सच में सौम्या और उदार है?
या अंग्रेजी साहित्य के मूर्धन्य कवि एल्फ्रेड टेनिसन के शब्दों में
“Nature, red in tooth and claw”
“प्रकृति का रंग कैसा?
दाँतों और पंजों में लाल जैसा”
मेरे प्रिय लेखक इंग्लैंड के बायोलॉजिस्ट रिचर्ड डॉकिंस की कालजयी पुस्तक Selfish Gene (स्वार्थी जीन्स) के अनुसार किसी भी प्राणी की जीन्स का संकुल (जिनोम) स्वार्थ-परकता की इकाई है। जिनोम के अस्तित्व का एकमात्र उद्देश्य है – खुद की कॉपी बनाते जाना। अनंतकाल तक डुप्लीकेट होते रहना। विकास की इस प्रक्रिया की शुरुआत एक कोशिकीय जीव से हुई। धीरे-धीरे जीनोम में परिवर्तन होते गए। आकार बढ़ने लगा। वह गुण जो इन जींस द्वारा संधारित और संचालित होते, उनकी विविधता और जटिलता बढ़ने लगी। निर्दयी निर्मम निस्पृह वातावरण (प्रकृति) में देश -काल के अनुरूप युग-युग में परिवर्तन होते रहे । जो प्रजातियाँ विलुप्त हो गई (जैसे कि डायनासोर) उनकी अधिकांश जींस फिर भी जिन्दा रही अन्य परवर्ती प्राणियों के जीनोम का अंश बन कर। आत्मा के बारे में तो मैं नहीं जानता लेकिन जींस नि:संदेह अजर अमर
है और गीता का यह श्लोक उन पर बखूबी लागू होता है –
“नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
संयोगवश जिस जीन संकुल के पास उक्त इकोलॉजी में जिंदा रह पाने के गुण थे उसकी पीढ़ियां आगे बढ़ी, शेष काल कवलित होती रही। जीन संकुलों ने एक के बाद जटिल से जटिल नई स्पीशीज गढ़ी। प्राणियों के शरीर जीनोम के लिए वाहक(Carrier) बने। प्रत्येक प्रजाति का प्रत्येक सदस्य मूल रूप से स्वार्थी होता है क्योंकि जिन जीन्स को वह वहन कर रहा है उन्होंने स्वयं के प्रजनन के लिए वाहन रूपी शरीर में ऐसे गुणों को रोपा है जो जिंदा रहने में सक्षम हैं।
इन समस्त प्रक्रिया के पीछे कोई चेतना या इच्छा नहीं है। सब कुछ अपने आप यांत्रिक रूप से होता चला जा रहा है। फिर भी ऐसा क्यों प्रतीत होता है कि प्रकृति में स्वार्थ से परे परमार्थ भी हैं? इसे अंग्रेजी में Altruism कहते हैं।
परमार्थ उदाहरण – 1
मधुमक्खियों के शरीर में डंक का विकास क्यों हुआ? अपने छत्ते में से शहद चुराने वालों को डराने, भगाने के लिए। शिकारी को काटने की प्रक्रिया में हनी-बी के शरीर के खास अंग उखड़ कर बाहर आ जाते हैं और वह तुरंत मर जाती है। आत्मघाती दस्तों के समान। Suicide Bomber। क्या बलिदान है। अपने परिवार की संपत्ति को बचाया और रानी मक्खी को भी। आगे की पीढ़ियों का प्रजनन सुनिश्चित रहा। आत्मघातियों के पास दिमाग नहीं है, सोच नहीं है। यह काम उनकी
इच्छाशक्ति के बूते पर नहीं हो रहा। उनकी जींस ने उनके शरीर और व्यवहार को इसी काम के लिए गढ़ा है।
परमार्थ उदाहरण – 2
छोटी चिड़िया ओं के समूह के पास जब कोई शिकारी बाज या चील पहुंचने वाली रहती है तो उनमें से कोई एक चिल्लाकर अपने साथियों को आगाह कर देती है। ऐसा करके वह स्वयं को तुलनात्मक रूप से थोड़े से अधिक खतरे में डाल देती है। एक का बलिदान हुआ लेकिन उन चिड़ियों के जीनोम की अगली पीढ़ियां पैदा होते रहने की संभावना बनी रही।
परमार्थ उदाहरण – 3
जमीन पर अंडा देने वाली कुछ चिड़ियाएं “ध्यानाकर्षण नाटक” करती है। शिकारी लोमड़ी के करीब आने पर माता चिड़िया, घोसलें से कुछ दूर तक लंगड़ाकर फुदकती है और एक पंख ऐसा फैला कर जमीन पर रखती है मानो वह टूट गया हो। लोमड़ी को लगता है कि यह आसान शिकार है। ऐन मौके पर वह चिड़िया फुर्र हो लेती है। शायद चूजा बच गया हो लेकिन खुद को खतरे में डालती है।
प्राणी जगत का स्वार्थ और परमार्थ अंततः उनके जीनोम का शुद्ध स्वार्थ है जिसे पूरी स्पीशीज या समूह से कोई मतलब नहीं।
मानव परमार्थ
प्राणियों से लेकर मनुष्य तक, माताएं और कुछ हद तक पिता अपनी संतानों की सुरक्षा और परवरिश के लिए जान जोखिम में डालते हैं।
हम मनुष्यों के जीनोम ने हमारे अंदर उन गुणों को प्राथमिकता मिली जो अपने परिवार की रक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। फिल्म दृश्यम में अजय देवगन यही तो कहता है। नेचुरल वेरिएशन (प्राकृतिक विभिन्नता) के चलते कुछ लोगों के पास ऐसी भी जींस आ जाती होंगी जिनमें अपने परिवार, रिश्तेदार, जाति, समाज, कबीला आदि के प्रति कोई मोह-भाव नहीं रहता होगा। उदाहरण साइको-पेथ। ऐसे व्यक्तियों द्वारा उनकी गलत प्रकार की जीन्स के प्रजनन की
संभावना कम रहती है।
“अच्छे” गुणों को धारण करने वाले वाहकों का प्रतिशत जनसंख्या में बढ़ता रहता है। फिर भी कुछ अपवाद है।
कभी-कभी देखा जाता है कि एक प्राणी ने दूसरी स्पीशीज के प्राणी की भलाई के लिए परमार्थ जैसा काम करा।
स्तनपाई (Mammals) में ऐसा यदा-कदा संभव है।
मनुष्य एकमात्र प्राणी है जो स्वयं की बायोलॉजी से ऊपर उठ गया है। उसका जीनोम उससे क्या करवाएगा इससे परे जाकर उसके पास इच्छाशक्ति है, free will है।
हम उम्मीद करते हैं कि इंसानों को कबीलाई मनोवृति से ऊपर उठना चाहिए। राष्ट्रवाद के स्थान पर वसुधैव कुटुंबकम की भावना बलवती होना चाहिए।
समाज के कमजोर वर्गों के भले का प्रयास होना चाहिए। मार्क्सवादी विचारकों के अनुसार अमीरों और कम्पनियों द्वारा किया जाने वाला तथाकथित परमार्थ एक ढकोसला होता है। उसके मूल में स्वार्थ छिपा रहता है।
मानव जाति से परे, अन्य प्राणियों के कल्याण का सोच हमारे अंदर है। हम शाकाहार को नैतिक दृष्टि से बेहतर मानते हैं। जैन साधुओं को सूक्ष्म जीवों की भी चिंता रहती है। मेनका गांधी जैसे वीगन लोग दूध नहीं पीते, रेशम का कपड़ा नहीं पहनते। बीच सड़क पर गाय को बचाने के चक्कर में हम अपने वाहनों से दुर्घटना कर बैठते हैं।
हमारे अंदर का जीनोम अपना काम करता रहेगा। उस पर लगाम हमें लगाना है। हमारी यात्रा डार्विन से आगे बढ़ चुकी है। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में हम कहते हैं –
“पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
सोर्स: The Selfish Gene by Richard Dawkins
(रिचर्ड डाकिंस)