अपनी भाषा अपना विज्ञान: विज्ञान में मेरिट और समाज विज्ञान
विज्ञान सत्य साधक है। विज्ञान के लिए बुद्धि, कौशल, लगन और समय चाहिए। इन समस्त गुणों को ‘मेरिट’ कह सकते हैं। ‘मेरिट’ अर्थात ‘योग्यता’, या ‘श्रेष्ठता’।
विज्ञान का काम आगे बढ़ाने के लिए ‘मेरिट’ जरूरी है।
सही?
नहीं ‘गलत’। ऐसा अनेक लोग कहते हैं।
पिछले कुछ दशकों में समाज विज्ञान में ‘Critical Race Theory’ और ‘सामाजिक न्याय’ की विचारधारा का बोलबाला बढ़ा है जिसके चलते ‘मेरिट’, ‘परिश्रम’, ‘ज्ञान’, ‘उत्पादकता’, ‘रचनात्मकता’, ‘नवाचार’, ‘प्रगति’, ‘वृद्धि’, ‘विकास’ जैसे शब्दों और उनमें निहित अवधारणाओं को नकारात्मक नजर से देखा जाता है। माना जाता है कि यह शब्द और विचार उन लोगों द्वारा काम में लाए जाते हैं जो शोषक(Oppressor) हैं तथा वंचितों(Oppressed) के खिलाफ प्रयुक्त होते हैं।
इन फैशनेबल तथा पॉलिटिकल करेक्ट सोच के विरोध में दो नोबेल पुरस्कार प्राप्त विजेताओं सहित 29 वैज्ञानिक-प्रोफेसरों ने एक लेख लिखा
“In Defense of Merit in Science”
विज्ञान में योग्यता के समर्थन में।
अप्रैल 2023 में प्रकाशित आलेख की भूमिका में विज्ञान की उपयोगिता रेखांकित करी गई है कि कैसे मानव जाति के जीवन में सुधार में विज्ञान की केंद्रीय भूमिका रही है।
हमारी औसत आयु बढ़ी है। मृत्यु दर घटी है। बीमारियों का उन्मूलन हुआ है। कोरोना वायरस का जीनोम बूझने में केवल 1 सप्ताह लगा। उसका वैक्सीन 1 वर्ष से कम समय में बन गया। कृषि की उत्पादकता बढ़ी है। आवागमन सुगम, तेज और सुरक्षित हुआ है। संचार क्रांति ने पूरी दुनिया को जोड़कर एक कर दिया है।
मानवता को विज्ञान की अनेक देने है: जीवन, आयु, स्वास्थ्य, समृद्धि, शांति, ज्ञान, स्वतंत्रता और समानता।
समस्याएं अभी भी है। गंभीर समस्याएं हैं। गरीबी, असमानता, हिंसा कम जरूर हो गए हैं फिर भी विकराल है। जलवायु परिवर्तन के खतरे विद्यमान है। परमाणु युद्ध की आशंका बनी रहती है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के दुष्परिणामों की हम कल्पना नहीं कर पा रहे हैं। पर्यावरण में जैव विविधता घटती जा रही है। अगली महामारी जरूर आएगी, कब और किस रूप में यह हम नहीं जानते।
इन सब का सामना करने के लिए हमें और भी अधिक विज्ञान चाहिए, बेहतर विज्ञान चाहिए। विज्ञान के अलावा भी कुछ चाहिए जैसे कि बेहतर सामाजिक और राजनीतिक वातावरण में सहयोग की भावना। लेकिन श्रेष्ठ कोटि का विज्ञान अनिवार्य है।
दुर्भाग्य से एक वैचारिक संघर्ष गलत दिशा में शुरू हो गया है। एक तरफ है पारंपरिक Liberal Epistemiology (उदारवादी ज्ञान मीमांसा) जो स्वतंत्र और निष्पक्ष खोज की पक्षधर है, संवाद और शास्त्रार्थ पर भरोसा करती है, किसी भी विचार का खंडन करने में(Cancellation) उस सीमा तक नहीं जाती कि उसे सुना ही ना जावे और श्रेष्ठतम विज्ञान की परख के लिए तथ्य, प्रमाण और तर्कों का सहारा लेती है।
वैज्ञानिक या शोधकर्ता या लेखक की व्यक्तिगत पहचान (उसकी चमड़ी का रंग, नस्ल, Race, रिलिजन, भाषा, राष्ट्रीयता, जाति) का कोई महत्व नहीं माना जाता।
दूसरी तरफ है “Identity Based Ideologies”( पहचान आश्रित विचारधाराएं) जिनका आधार है उत्तर आधुनिकतावाद(Postmodernism) और विवेचनात्मक सामाजिक न्याय(Critical Social Justice)
CSJ के अनुसार आधुनिक विज्ञान रेसिस्ट (Racist – नस्लवादी) है, पितृसत्तात्मक(Patriarchal) है, उपनिवेशवादी(Colonial) है, शोषण का औजार (Tools of oppression) है।
उल्लेखित आर्टिकल के लेखक स्वीकार करते हैं कि पूरे समाज के समानांतर विज्ञान जगत में भी अवसरों की असमानताएं हैं और उन्हें कम करने के गंभीर, त्वरित उपाय सतत होते रहने चाहिए। लेकिन उनका मानना है कि सामाजिक न्याय के लक्ष्य को पाने के लिए Critical Social Justice पर आधारित नीतियां कहीं अधिक नुकसानदेह होंगी। CSJ के अनुसार वैज्ञानिक तथ्य, सत्य, सिद्धांत और नियम आदि को वस्तुपरक रूप से प्राप्त नहीं किया जा सकता। There is no objective truth. The later may be subjective. सत्य व्यक्तिपरक हो सकता है। तुम्हारा सत्य भी सही, मेरा भी सही। “जानने का तरीका”(The Way Of Knowing) तुम्हारा तुम्हें मुबारक मेरा मुझे। ज्ञान और यथार्थ सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से निर्धारित होते हैं।
विवेचनात्मक सामाजिक न्याय CSJ में व्यक्ति के “भोगे हुए यथार्थ” (Lived Experience) को अधिक महत्व दिया जाता है। न कि प्रयोग सिद्ध (Empirical) और वस्तुनिष्ठ (Objective) सबूतों और सत्यों को।
विज्ञान की प्रगति के लिए चार चीजें जरूरी है –
- विज्ञान पर सबका साझा अधिकार। कोई गुप्त ज्ञान नहीं।(Communalism)
- सार्वभौमिकता – वैज्ञानिक प्रमाण समस्त देश काल में एक जैसे लागू होते हैं।(Universalism)
- निस्वार्थता – विज्ञान निस्पृह रूप से ज्ञान की बढ़ोतरी के लिए काम करता है। उसका अलग से कोई एजेंडा नहीं होता। जैसे “कला कला के लिए” वैसे ही “विज्ञान विज्ञान के लिए” (Dis-interrelated)
- संगठित संशयवाद (Skepticism)
किसी भी वैज्ञानिक दावे की कसौटी उसकी मेरिट है – अर्थात श्रेष्ठता, प्रमाणिकता, गुणवत्ता और सिद्ध असिद्ध हो पाने की संभावना।
मेरिट से परिपूर्ण विज्ञान में सामर्थ्य होता है। दुनिया ब्रह्मांड के बारे में सटीक अनुमान लगाने की जिन्हें कोई भी व्यक्ति प्रयोगों द्वारा परख सकता है तथा सत्य या असत्य साबित कर सकता है।
मेरिट का सिद्धांत न केवल सिद्धांतों पर बल्कि प्रकल्पो, संस्थाओं और व्यक्तियों पर भी लागू होता है।
यह सही है कि समय-समय पर सामाजिक भेदभाव के चलते अनेक वैज्ञानिकों के साथ अन्याय हुआ है। ‘सिसिलिया’ नाम की वैज्ञानिक को पुरुष प्रधान समाज में इस खोज का श्रेय नहीं मिल पाया कि सूर्य मुख्यतः हाइड्रोजन गैस का बना है। इसका मतलब यह नहीं कि पुरुषवादी और नारीवादी विज्ञान पृथक है। यह संभव नहीं कि ‘गे-रसायन शास्त्र’, ‘यहूदी भौतिक विज्ञान’, ‘अश्वेत गणित’, ‘हिंदू खगोल विज्ञान’, ‘आदिवासी भूगर्भ शास्त्र’ जैसी कोई शाखाएं होती हो।
इतिहास साक्षी है कि जब-जब जहां-जहां विज्ञान की स्वाभाविक प्रवृत्ति को बाह्य कारकों द्वारा नियंत्रित किया गया उसके परिणाम अच्छे नहीं रहे। प्राचीन युग में भारत में, चीन में विज्ञान में अच्छी प्रगति हुई थी क्योंकि विचारों की स्वतंत्रता थी। मिलने-जुलने, घूमने-फिरने, बातचीत की आजादी थी। मध्ययुग में सब कुंठित हो गया। जैसे-तैसे 18वीं शताब्दी में यूरोप में पुनर्जागरण (Enlightenment, Renaissance) का काल आया। विज्ञान पुनः प्रस्फुटित हुआ। गैलीलियो की जंजीरे टूटी।
सोवियत तानाशाही में विचारधारा ने फिर अपना शिकंजा जकड़ा। चूँकि लायसेंको गरीब सर्वहारा वर्ग से आता था, पक्का कम्युनिस्ट था, अतः वैज्ञानिक शोध संस्थानों की लगाम उसे सौंप दी गई। मेंडेल के जेनेटिक्स सिद्धांत (जो वैज्ञानिक दृष्टि से सही थे और सही है) नकार दिए गए क्योंकि वह मार्क्सवाद के सिद्धांतों से मेल नहीं खाते थे। कृषि का बंटाधार हुआ। अकाल पड़े।
दुख की बात है कि इक्कीसवी सदी में फिर एक बार विकृत Ideology (विचारधारा) के चलते स्कूलों कॉलेजों में पढ़ाया जा रहा है कि स्त्री और पुरुष नाम का द्वैतवाद गलत है, या कि अनेक गुण जींस द्वारा निर्धारित होकर, जन्म के समय से ही विद्यमान नहीं रह सकते क्योंकि प्रत्येक शिशु Blank slate(कोरी पट्टी) के रूप में दुनिया में आता है और वह जो कुछ भी बनता है उसकी समस्त इबारत बाद में लिखी जाती है। (“भोगा हुआ यथार्थ”)। पांचों उंगलियां बराबर होती है। उनकी असमानता एक भ्रम है। जीन परिवर्धित भोज्य पदार्थों (Genetically modified foods GMO) तथा नाभिकीय ऊर्जा (Nuclear Energy) का घन घोर विरोध विचारधारा के कारण अधिक होता है और तथ्यों के आधार पर कम।
उदारवादी मीमांसा (Liberal Epistemology) जो जारी रहनी चाहिए
- सत्य प्राप्त किया जा सकता है, भले ही उसमें नए प्रमाणों के बाद संशोधन होता रहे
- खंडन योग्यता – प्रत्येक सत्य का समय के साथ खंडन संभव है क्योंकि आख्यान(Narrative) गढ़ने और उसे जानने की विधियां देशकाल और व्यक्ति से निरपेक्ष है
- वस्तुपरकता – किसी भी सिद्धांत का अस्वीकरण। यदि उसे सिद्ध न किया जा सके या असत्य प्रमाणित किया जा सके
- जिम्मेदारी – गलत पाए जाने पर उसे स्वीकार करना, सुधारना और संशोधित करना
- बहु विधता – बौद्धिक विविधता को बढ़ावा देना ताकि सत्य को खोजने की संभावनाएं बलवती बनी रहे।
विवेचनात्मक सामाजिक न्याय ( Critical Social Justice) (जो नुकसानदायक है)
- वस्तुपरक सत्य (Objective Reality) नाम की कोई चीज नहीं होती। सब कुछ सापेक्ष है।
- सत्य की अवधारणा के स्थान पर कहिए Multiple Narratives (एकाधिक आख्यान) और Alternative ways of knowing (जानने के वैकल्पिक तरीके)
- सत्यता के दावे महज शक्ति/सत्ता के दावे हैं
- भोगा हुआ यथार्थ और व्यक्तिपरकता ही ज्ञान का आधार है
- इस बात को नहीं मानना कि किन्ही तथ्यों व सिद्धांतों को सबूतों व तर्कों के द्वारा खंडित किया जा सकता है।
- अपनी विचारधारा से परे अन्य आइडिया-लाजीको पूरी तरह से कैंसिल करना, रद्द करना।
- बाह्य स्त्रोंतों द्वारा सुधार और संशोधन को नकारना (बंद प्रणाली)
पारंपरिक उदारवादी मीमांसा पर आधारित विज्ञान की सत्यता प्रतिदिन प्रमाणित होती है- जब राकेट चंद्रमा पर उतरता है,, जब दो मित्र फोन पर बात करते हैं, जब पेनिसिलिन से निमोनिया ठीक होता है, जब इलेक्ट्रिक कार चल पड़ती है, जब जीपीएस सिस्टम आपको सही पते पर पहुंचा देता है।
“भोगे हुए यथार्थ” की सत्यता के प्रमाण मुश्किल है। चाहे वह समाज विज्ञान हो या मनोविज्ञान। दुख की बात है कि CSJ के सिद्धांतों ने प्राकृतिक विज्ञानों तथा (STEM – Science, Technology, Engineering, Mathematics) में गहरी घुसपैठ कर ली है। “मेरिट” को गाली समझा जाता है। उसे एक ढकोसला मानते हैं तथा सफेद नस्ल या अगड़ी जातियों (ब्राह्मण) का औजार मानते हैं।
CSJ के अनुसार वर्तमान में सब जगह “संस्थागत नस्लवाद” (Systemic Racism) फैला हुआ है अतः इस ढांचे को तोड़ने की जरूरत है।
तथाकथित मेरिट के स्थान पर Identity Based (पहचान पर आधारित) कसौटियों द्वारा हर स्तर पर चयन होना चाहिए।
“जितनी आबादी उतना अधिकार”।
चिकित्सा व अन्य वैज्ञानिक शोध पत्रिकाओं में CSJ विचारधारा से प्रभावित लेखों की बाढ़ आ गई है। इन लेखों में कहीं कोई सबूत नहीं होता कि आईआईटी में अनुसूचित जाति या रिलीजन विशेष के छात्रों व अध्यापकों की संख्या का कम होना केवल नस्लवाद या जातिवाद के कारण है। कुछ अन्य कारणों की चर्चा करना भी पाप या Blasphemy माना जाता है।
यह सही है कि मेरिट के आकलन की विधियों में कमी हो सकती है लेकिन उसका कोई विकल्प नहीं है, ना तो आरक्षण और ना कोई लॉटरी सिस्टम।
Diversity, Equity और Inclusion पर खूब जोर दिया जाता है। सुनने में अच्छे लगते हैं। पॉलिटिकली करेक्ट,
Diversity विविधता – गोरे व पुरुष ज्यादा क्यों? अश्वेत और महिलाएं कम क्यों? चलो सबको बराबर संख्या में ले लो। मेरिट गई भाड़ में।
Equity समता Versus Equality समानता – अवसरों की समानता पर्याप्त नहीं है परिणामों की समानता पर जोर दिया जाता है जिसके चलते ‘मेरिट’ को दरकिनार करते हैं।
Inclusion समावेश – सब को शामिल करना है किसी को वंचित नहीं करना है तुम्हारी तथाकथित मेरिट की बात मत करो।
इन नीतियों के अनेक खतरे हैं। श्रेष्ठ विज्ञान को हानि है। चीन जैसे देश जिन्हें CSJ और DEI की वायरस ने संक्रमित नहीं किया है विज्ञान में आगे निकल रहे हैं।
क्या आप एक गुणी और योग्य (अर्थात Meritorious) पायलट द्वारा चालित विमान में बैठना पसंद करेंगे या CSJ की पहचान पर आधारित ‘समता’ मूलक नीतियों के कारण चुने गए एक Mediocre पायलट के विमान में?
क्या आप अपना ऑपरेशन ऐसी सर्जन द्वारा करवाना चाहेंगे जिसमें मेरिट कम थी लेकिन वह एक से अधिक वंचनाओं से पीड़ित थी(Intersectionality) – वनवासी है, लेस्बियन महिला है, अल्पसंख्यक रिलीजन को मानती है लेकिन पता नहीं ऑपरेशन कैसा करती हैं?
अभी समय है कि विज्ञान का गैर-राजनीतिकरण किया जावे तथा श्रेष्ठता, गुणवत्ता, योग्यता(Merit) पर आधारित नीतियों को पुनर्स्थापित किया जाए जावे।
सन्दर्भ –
एरीह वारशेल इजरायल-अमेरिकी बायोकेमिस्ट और बायोफिजिसिस्ट। वह जैविक अणुओं के कार्यात्मक गुणों पर कम्प्यूटेशनल अध्ययन में अग्रणी हैं।दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में रसायन विज्ञान और जैव रसायन के विशिष्ट प्रोफेसर हैं। उन्हें रसायन विज्ञान में 2013 का नोबेल पुरस्कार मिला है।
Abbot D, Bikfalvi A, Bleske-Rechek AL, Bodmer W, Boghossian P, Carvalho CM, Ciccolini J, Coyne JA, Gauss J, Gill PM, Jitomirskaya S.
In defense of merit in science. Controversial Ideas. 2023 Apr;3(1):0-
इस आलेख के लेखक निम्न विषयों से सम्बद्ध है –
बायोलाजी, मेडिसिन, फिजिक्स, केमिस्ट्री, कंप्यूटर साइंस, गणित, सांख्यिकी, इंजीनियरिंग, मनोविज्ञान, दर्शन शास्त्र, वित्त, अर्थशास्त्र।
ये लेखक इन देशों से आते है –
अमेरिका, यू.के., फ़्रांस, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, इज़राइल
दुःख की बात रही कि इस शोधपत्र को लगभग सभी प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं ने छापने से मना कर दिया। एक सम्पादक मंडल ने लिखा कि अपने लेख के शीर्षक से मेरिट शब्द हटा दो क्योंकि उसकी अवधारणा ही खोखली है। उन्होंने यहाँ तक कहा कि “मेरिट” शब्द के उल्लेख मात्र से अनेक वंचित(Oppressed) लोगो की भावनाएं आहत होती है।
अंततः इस आलेख के लिए एक ही पत्रिका बची ‘The Journal of Controversial Ideas” यह दर्शाता है कि न केवल मानविकी व सोशल साइंसेस, वरन STEM और Natural Sciences के लोग किस हद तक पहचान की राजनीति (Identity Politics) की गिरफ्त में आ चुके है।