अपनी भाषा अपना विज्ञान: हिन्दी में विज्ञान संचार और पत्रकारिता

अपनी भाषा अपना विज्ञान: हिन्दी में विज्ञान संचार और पत्रकारिता

पत्रकारिता की अनेक उप विधाओं में से साइंस जर्नलिज़म अपने आप में विशिष्ट, और कठिन है। कमाई कम है। प्रसिद्धि और ग्लैमर कम है। फिर भी किसी  न किसी को तो करना ही चाहिए। काश इस क्षेत्र में अधिक पत्रकार आगे आयें। अच्छा साइंस communication,जर्नलिज़म क्या होता है, कैसा होता है, इसकी चर्चा एक अगले अंक में करूंगा, फिलहाल बातचीत हिन्दी के बारे में, क्योंकि यहाँ मौलिक काम बहुत कम है। जो कुछ है अंग्रेजी प्रकाशनों और समाचार माध्यमों  से अनूदित है।

भाषा का स्तर और स्वरूप

हिन्दी में विज्ञान पत्रकारिता करने वालों को सदैव इस समस्या का सामना करना पड़ा है कि या तो वे भाषा व ज्ञान को अति सरलीकृत रखें और विषयवस्तु की गुणवत्ता व मात्रा दोनों की बलि चढ़ा दें या फिर सचमुच में कुछ गम्भीर व विस्तृत व आधुनिक लिखें, फिर चाहे ये आरोप क्यों न लग जाए कि भाषा दुरूह है। बीच का रास्ता निकालना मुश्किल है।

हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में उच्च स्तर की भाषा पढ़ने समझने वालों का प्रतिशत घटता जा रहा है। हिन्दी शब्दावली इसलिये दुरूह महसूस होती है कि हमने उस स्तर की संस्कृतनिष्ठ भाषा सीखी ही नहीं और न उसका आम चलन में उपयोग किया। अंग्रेजी शब्द आसान प्रतीत होते हैं क्योंकि वे पहले ही जुबान पर चढ़ चुके होते हैं। समाज का वह बुद्धिमान व सामर्थ्यवान तबका जो उच्च स्तर की हिन्दी समझ सकता है, अपना अधिकांश पठन-मनन अंग्रेजी में करता है। हिन्दी पर उसकी पकड़ छूटती जाती है। वह निहायत ही भद्दी मिश्रित भाषा का उपयोग करने लगता है। बचे रह जाते हैं अल्पशिक्षित विपन्न वर्ग के लोग। हिन्दी जब तक श्रेष्ठिवर्ग या उच्च स्तर के बुद्धिजीवी वर्ग में प्रतिष्ठित नहीं होती तब तक इस लेखक को अपनी भाषा को सरलीकृत करने को मजबूर होना पड़ेगा और वैज्ञानिक तथ्यों को कुछ हद तक छोड़ना पड़ेगा। हिन्दी भाषी पाठक सरलीकृत रूप को भी कम समझ पाते हैं क्योंकि या तो उन्होंने उतना विज्ञान पढ़ा ही नहीं या अंग्रेजी में पढ़ा। हिन्दी माध्यम के विद्यालय व महाविद्यालय यदि निरन्तर निम्न वर्ग की संस्थाएं बनती रहें तो हिन्दी में विज्ञान लेखन का स्तर एक सीमा से ऊपर नहीं उठ पायेगा। इस लेखक ने स्वयं हिन्दी माध्यम की शालाओं में शिक्षा प्राप्त की। आज से तीन दशक पूर्व उच्च मध्यवर्ग तक के बालक-बालिकाएं शासकीय संस्थाओं में अध्ययन करते थे। आज निम्न मध्य वर्ग के पालक भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम की शालाओं में भेजते हैं। फिर भी उम्मीद की जाती है कि हिन्दी और भारतीय भाषाओं में उच्च कोटि की विज्ञान पत्रकारिता से उपयोगी प्रतिपुष्टि (फीडबेक) प्राप्त होगी तथा भविष्य में हिन्दी में बेहतर मूल लेखन की प्रेरणा प्राप्त होगी।

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लोगों की हिन्दी उतनी बुरी नहीं है

अंग्रेजी में सोचने वाले लोग प्राय: आम लोगों की हिन्दी को कम करके आंकते हैं। चूंकि वे खुद हिन्दी का उपयोग छोड़ चुके हैं और अपनी शब्द सम्पदा गवां चुके हैं, दूसरों को भी वैसा ही समझते हैं । थोड़ी सी अच्छी और शुद्ध हिन्दी से अंग्रेजी परस्त विद्वत्जनों की जीभ ऐंठने लगती है। ‘परिस्थितियाँ’ जैसा शब्द उनके लिये टंग-ट्विस्टर है परन्तु सर्कमस्टान्सेस(circumstances) नहीं । विज्ञान के क्षेत्र में हिन्दी में लिखने वालों को अपने बुद्धिमान व पढ़े लिखे पाठकों की क्षमता पर सन्देह नहीं होना चाहिये । यदि आपकी भाषा शैली प्रांजल व प्रवाहमय हो तो लोग सुनते है, पढ़ते हैं, गुनते हैं, समझते हैं, सराहते हैं, आनन्दित होते हैं।

शब्दावली का चयन और गढ़न

तकनीकी शब्दों के अनुवाद व गठन हेतु कुछ परम्पराएँ मौजूद हैं। अंग्रेजी व यूरोपीय भाषाओं में तकनीकी शब्दों का मूल स्रोत लेटिन व ग्रीक भाषाएं हैं । हिन्दी व भारतीय भाषाओं के लिये संस्कृत है । हिन्दी को सरलीकृत करने के नाम पर अंग्रेजी में सोचने वाले कुछ विद्वान उसे हिन्दुस्तानी अर्थात् उर्दू मिश्रित स्वरूप प्रदान करने पर जोर देते हैं तथा संस्कृत निष्ठ शब्दों से परहेज करने की सलाह देते हैं । बोलचाल व फिल्मी गीतों – संवादों तक के लिये हिन्दुस्तानी उपयुक्त हो सकती है परन्तु साहित्य व तकनीकी दोनों क्षेत्रों में संस्कृत जनित तत्सम शब्दों के प्रचुर उपयोग के बिना समृद्ध सम्प्रेषण सम्भव नहीं है। उर्दू मिश्रित हिन्दुस्तानी की ग्राह्यता गैर हिन्दी क्षेत्रों में कम है । संस्कृत शब्दावली, हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं में (भारोपीय व द्रविड़ दोनों वर्ग) में अधिक आसानी में समाहित की जा सकती है । यह सोच गलत है कि तत्सम शब्द जटिल होते हैं या कि तद्भव शब्द ही आसान होते हैं । शब्दों की इन श्रेणियों को वर्ण व्यवस्था व वर्ग विभेद की दृष्टि से देखना भी गलत है।

अंग्रेजी की उपयोगिता

हमें यथार्थ स्वीकारना होगा कि अंग्रेजी एक भारतीय भाषा भी है । इसके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक सामाजिक पहलुओं की चर्चा, मेरे आलेख का विषय नहीं है। हम मूलत: द्विभाषी या बहुभाषी लोग हैं । विज्ञान में हिन्दी के उपयोग की चर्चा का अर्थ अंग्रेजी को वर्जित करना कदापि नहीं हो सकता है। हमें दोनों का मिला जुला उपयोग करना है। दोनों एक दूसरे को अच्छे व बुरे अर्थों में प्रभावित करती हैं।

अंग्रेजी में उपलब्ध सामग्री को हमें मानक के रूप में स्वीकार करना होगा। हालांकि इस बात की उम्मीद भी रखना होगी कि हिन्दी में भविष्य में नया मौलिक विज्ञान साहित्य निकलेगा जिसके अंग्रेजी अनुवाद की आवश्यकता महसूस हो । फिलहाल तो यह रूपान्तरण एकल दिशा वाला ही है।

मेरे द्वारा अपनाई जाने वाली कुछ युक्तियाँ

पाठकों के मन-मस्तिष्क व जुबान पर हिन्दी के तकनीकी शब्द चढ़ाने के लिये नीचे दिये गये उदाहरणों पर गौर करें । मैं कुछ युक्तियाँ प्राय: अपनाता हूँ।

यदि मुझे ऐसा लगता है कि हिन्दी में किसी विशिष्ट तथ्य या विचार के लिये उपयुक्त शब्द नहीं है तो मैं अंग्रेजी भाषा के तकनीकी शब्द को बिना अनुवाद के रोमन लिपि में और साथ ही लिप्यन्तरण द्वारा देवनागरी में बिम्ब युग्म रूप में प्रस्तुत करता हूँ ।

उदाहरण:-

(1) “अनेक मरीजों को लिखते समय हाथ की मांसपेशियों में ऐंठन होने लगती हैं। इस अवस्था को राइटर्स क्रैम्प (Writer’s Cramp) कहते हैं।”

यदि मूल अंग्रेजी शब्द का हिन्दी पर्याय नया, अप्रचलित और (तथा कथित रूप से) कठिन या क्लिष्ट हो तो दूसरे प्रकार का शब्द युग्म प्रयुक्त किया जा सकता है। बहुप्रचलित अंग्रेजी शब्द को देवनागरी में प्रस्तुत करें और साथ ही उसका हिन्दी समानार्थक शब्द कोष्टक में देवें। आलेख में इस शब्द की अगली प्रयुक्ति के समय युग्म या जोड़े में अंग्रेजी-हिन्दी का क्रम उलट किया जावे। जैसे कि

मिर्गी (एपिलेप्सी)……

एपिलेप्सी (मिर्गी) ।

इस कश्मकश के पीछे सोच यह है कि पर्यायवाची युग्मों के बार-बार उपयोग से पाठक या श्रोता के दिमाग में उनकी समानार्थकता स्थापित होगी। अल्पप्रचलित परन्तु सुन्दर व सटीक हिन्दी शब्दों से परिचय होगा, उपयोग होगा तथा उनके जुबान पर चढ़ने की संभावना बढ़ेगी।

आलेख में किसी भी तकनीकी शब्द का प्रथम बार प्रयोग होते समय उसकी परिभाषा व सरल व्याख्या तत्काल वहीं उसी पेराग्राफ में या उस पृष्ठ के नीचे फुट नोट के रूप में दी जानी चाहिये । निम्न उदाहरण देखिये।

(2) मल्टीपल स्क्लीरोसिस (Multiple Sclerosis) रोग में मस्तिष्क व मेरूतंत्रिका (स्पाईनल कार्ड) में मौजूद तंत्रिका-तन्तुओं (नर्व – फाईबर्स) के माईलिन (Myelin) आवरण में खराबी आ जाती है । माईलिन एक विशेष प्रकार की रासायनिक संरचना है जो प्रोटीन व वसा के जटिल अणुओं से बनती है। माईलिन एक बारीक महीन झिल्ली के रूप में न्यूरान कोशिकाओं को जोड़ने वाले अक्ष-तन्तुओं (एक्सान) के चारो ओर कई परतों वाला सर्पिलाकार खोल बनाती है।

(3) जानवरों में पैदा की जाने वाली मिर्गी को प्रायोगिक मॉडल कहते हैं । न केवल मिर्गी वरन् दूसरी बहुत सी बीमारियों के अध्ययन में एक्सपेरिमेंटल एनिमल (प्रायोगिक प्राणी) मॉडल से अत्यन्त उपयोगी जानकारी मिलती है व उपचार की विधियाँ खोजना आसान हो जाता है।

ऐसे भी मिर्गी होती है जिसमें कोई विकार स्थान नहीं दिख पाता। विद्युतीय गड़बड़ी मस्तिष्क के केन्द्रीय भाग से आरंभ होकर दोनों गोलार्थों के एक साथ समाहित कर लेती है। इसे प्राथमिक सर्वव्यापी (‘Primary Generalized’) मिर्गी कहते हैं।

(4) थेलेमस की न्यूरान कोशिकाओं की विद्युत सक्रियता, अन्य भागों की तुलना में अधिक लयबद्ध, समयबद्ध होती है। एक साथ बन्द चालू होने के इस गुण को समक्रमिकता (‘Syncrohizationसिन्क्रोनाइजेशन) कहते हैं। विकार स्थान (फोकस) सूक्ष्मदर्शी यंत्र से दिखने में सामान्य हो या असामान्य, वहां की रासायनिक गतिविधियाँ जरूर गड़बड़ होती हैं। फायरिंग (सुलगने) के दौरान पोटेशियम आयन कोशिका से बाहर आ जाते हैं व केल्शियम आयन भीतर प्रवेश कर जाते हैं। न्यूरोट्रान्समीटर्स (तंत्रिका प्रेषक) का अधिक मात्रा में रिसाव होता है। उक्त फोकस की न्यूरान कोशिकाओं द्वारा ग्लूकोज व आक्सीजन का उपभोग कुछ सेकण्ड्स के लिये बढ़ जाता है।

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विज्ञान पत्रकारिता के ग्रहीताओं के अनेक स्तर

सबसे सरल व प्राथमिक क्षेत्र है आम जनता । विभिन्न विज्ञान सम्बन्धी विषयों पर पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तिकाओं, पोस्टर्स और पुस्तकों के रूप में बहुत कुछ लिखा गया है। परन्तु बिखरा हुआ है, सूचीबद्ध नहीं है। एकरूपता की कमी है। भाषा और गुणवत्ता अच्छी और बुरी दोनों तरह की है। प्रामाणिकता की पुष्टि करना जरूरी हो सकता है।

इन्द्रधनुषीय भिन्नता के पाठक वर्गों को लक्ष्य करने के कारण लेखन के शैलीगत व भाषागत स्तर में एकरूपता नहीं रह पाती है । कुछ खण्ड सरल, प्रवाहमान, बोलचाल की भाषा में होते है तो कुछ अन्य तत्सम बहुल व क्लिष्ट प्रतीत हो सकते हैं । जानकारी का स्तर कहीं बुनियादी या प्राथमिक होता है तो कहीं वैज्ञानिको के लिये भी नवीनतम व जटिल। इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि मुद्रित व अन्य माध्यमों से प्रदान की जाने वाली विज्ञान शिक्षा के द्वारा आमलोग अच्छा महसूस करते हैं, आत्मविश्वास व निर्णय क्षमता बढ़ती है । अंग्रेजी व अन्य विकसित देशों की भाषाओं के सन्दर्भ में, जहाँ विज्ञान शिक्षा मातृभाषा में दी जाती है, अनेक वरिष्ठ शिक्षक आम जनता के लिये सरल भाषा में लिखने को हेय दृष्टि से नहीं देखते हैं । यदि एक ओर वे जटिलतम और आधुनिक विषयवस्तु को अपने छात्रों, शोधार्थियों व सहकर्मियों के लिये प्रस्तुत करते है तो दूसरी ओर उतनी ही प्राथमिकता से जन-शिक्षा के प्रति अपना दायित्व भी निभाते हैं । विज्ञान पत्रिकारिता में अपना करियन बनाने वाले अनेक प्रसिद्ध और गैर वैज्ञानिक लेखक हैं जो तकनीकी विषयों पर सतत् पकड़ रखते हैं और टाईम, न्यूयार्कर, न्यूज वीक, नेशनल ज्योग्राफिक, साइन्टिफिक अमेरिकन जैसे प्रकाशनों द्वारा और स्वतंत्र पुस्तकों के माध्यम से आम लोगों के लिये प्रांजल भाषा में उच्च कोटि की अद्यतन जानकारी व बहस के मुद्दे प्रस्तुत करते हैं । उपरोक्त दोनों श्रेणियों के लेखकों की हिन्दी व भारतीय भाषाओं में कमी है।

अल्प शिक्षित आम जनता के स्तर से उपर उठकर उच्च शिक्षित बुद्धिजीवी वर्ग को भी लक्ष्य किये जाने की जरूरत है। ऐसे लोगों का प्रतिशत बढ़ रहा है। ये समूह बहस में भाग लेकर नीति निर्धारण में योगदान करता है।

विज्ञान पत्रिकारिता के अनेक विषय और वृहत दायरा

विज्ञान पत्रिकारिता का संसार बहुत बड़ा है। अनेक विषय है । कुछ सरल व कुछ कठिन । कुछ क्षेत्रों में हिन्दी का तत्काल उपयोग न केवल आसानी से सम्भव है बल्कि वांछनीय भी है । दूसरे क्षेत्र जिनमें तकनीकी शब्दवली की बहुलता हो, तुलनात्मक रूप से कठिन हो सकते हैं ।

“प्रेस कान्फ्रेस के माध्यम से विज्ञान” (Science by Press conference)

अनेक शोधकर्मी प्रचार के लालच में कुछ नैतिक, प्रशासनिक और पारम्परिक मूल्यों की अवहेलना करते हैं। प्रचार की जरुरत किसे नहीं होती। व्यावसायिक कम्पनिया, संस्थानो, शासकीय विभागों, गैर शासकीय संगठन सभी को प्रचार की भूख होती है।

विज्ञान की सभी शाखाओं में परम्परा है कि शोध के परिणामों और निष्कर्षों को एक आलेख के रुप में सम्पादकों और समकालीन समीक्षकों के सम्मुख उनकी टिप्पणियों और सम्मति क लिये भेजा जाता है। प्रायः लेखक से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने लेख को संशोधित करे, उसकी कमियां दूर करें। यदि उक्त आलेख को पढ़ कर सम्पादकों व समकालीन समीक्षकों को लगता है कि शोध की परिकल्पना, उसका मूलभूत प्रश्न, शोध की विधि, परिणामों का प्रस्तुतिकरण और शोध के निष्कर्श आदि सभी पक्ष गड़बड़ है तो आलेख वापस लौटा दिया जाता है, उसे छपने योग्य नहीं माना जाता। प्रकाशन के पहले की इस तमाम कवायद को पियर-रिव्यू कहते है। विज्ञान की कोई भी नई खोज, प्रगति या अविष्कार की घोषणा सीधे-सीधे प्रेस कान्फ्रेस या प्रेस विज्ञप्ति के रुप में नहीं की जा सकती। वरना माना जाता है कि उक्त खोज का दावा अवैज्ञानिक है, उसमें दम नहीं है, सच्चाई नहीं है। शोधकर्ता ने पियर-रिव्यू की प्रामाणिक, कठिन निष्पक्ष प्रक्रिया को बायपास करा, शार्टकट ढूंढा। ऐसे वैज्ञानिकों को शेष वैज्ञानिक जगत हिकारत की नजर से देखता है, उन पर थू-थू करता है।

वैज्ञानिकों से उम्मीद की जा सकती है कि वे कभी भी ऐसा बर्ताव नहीं करेंगे जिससे कि उनका प्रचार हो, शेष समाज में उनके प्रति ध्यान आकर्षित हो। वैज्ञानिक चुप रहता है. उसका काम बोलता है- सम्मानित प्रतिष्ठित शोध पत्रिका (जर्नल) में छपा लेख ही वैज्ञानिक का बयान होता है, न कि प्रेस कान्फ्रेस में दिया गया वक्तव्य।

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प्रामाणिकता/सत्यपरकता/Accuracy

विज्ञान पत्राकारिता की पहली जरुरत है उसका प्रामाणिक या सत्य होना। दीगर पत्रकारिता के लिये भी सच्चाई एक अनिवार्यता है, परन्तु विज्ञान विषयों को कवर करते समय चुनौतियां बढ़ जाती है। पत्रकारों का खुद का ज्ञान सीमित होता है। स्टोरी बनाने के लिये समय कम पड़ता है, एक टाइम लिमिट में जल्दी-जल्दी काम करना पड़ता है। पत्रकारिता या टीवी में उक्त विषय कि लिये जितना स्थान या समय मिलना चाहिये उतना उपलब्ध न होने से बेरहम एडिटिंग करना पड़ती है। अनेक महत्त्वपूर्ण मूद्दे छूट जाते है या संक्षेप में निपटाने पड़ते हैं।

प्रामाणिकता को परखने के लिये कुछ अच्छी संस्थानों की अच्छी वेबसाईट विकसित हुई हैं। विकिपीडिया अपनी कमियों के बावजूद अच्छा स्त्रोत है। परन्तु हिन्दी या भारतीय भाषाओं में बहुत कम लेख उपलब्ध है।

विज्ञान रिपोटिंग में “सबूत पर आधारित होना बहुत जरुरी है। इसी प्रकार किसी उपचार, औषधि या आपरेशन के सम्भावित फायदे और नुकसान की बारीकी के साथ निष्पक्ष पड़ताल होनी चाहिये।

विज्ञान-लेखकों के दो समूह

व्यावसायिक खबरों से परे साइन्स जर्नलिज्म एक गम्भीर अकादमिक किस्म की मशक्कत है। इसके दो रास्ते है। पहला- रिपार्टर विभिन्न विषयों का गहराई से अध्ययन करे, अनेक विशेषज्ञों से बात करे और फिर अपने रफ आलेख को किसी जानकार से पढ़वा लें (कुछ पत्रकार इसमें अपनी तौहीन समझते है, जो कि गलत बात है)।

दूसरा रास्ता है कि कुछ वैज्ञानिक आम जनता कि लिये हिन्दी में लिखना शुरु करें। ऐसे साइंटिस्ट कम हैं, पर हैं जरुर। अन्दर से जज्बा होना चाहिये। भाषा पर पकड़ हो, पाठकों की रुचि और बौद्धिक समझ का अहसास हो, बात को मनोरंजक, महत्वपूर्ण, मजेदार और खबर के लायक बनाने का हुनर होना चाहिये। देश विदेश में अनेक ट्रेनिंग संस्थान और कोर्स उपलब्ध है परन्तु प्रायः अंग्रेजी में।

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Conflict of interest/हितों का टकराव-

वैज्ञानिक और पत्रकार, दोनों की पृष्ठभूमि और सोच में जमीन आसमान का अन्तर है। क्या चीज खबर के लायक है इस पर दोनों की राय एकदम जुदा हो सकती है। पत्रकारों को उस समय ज्यादा मजा आता है जब वे साइन्स के नकारात्मक पहलुओं को कवर कर रहे होते हैं या तब, जब कि स्टोरी का सम्बन्ध चिकित्सा शोध की अनैतिकता और कदाचरण से हो। किसी संस्थान की उपलब्धि वाली खबरें भी अनेक बार दूसरे शोधकर्ताओं को नागवार लग सकती है। वे कह सकते हैं इसमें खबर के लायक क्या था? यह तो रुटीन रिसर्च है. हम रोज करते हैं

कम्पनियों के पास बहुत पैसा होता है, बड़ी प्राफिट मार्जिन दाव पर लगी होती है। यह सच है कि कम्पनियां मीडिया को प्रभावित कर सकती है। परन्तु यह भी सच है कि कम्पनियों को खलनायक के रुप में चित्रित करने वाली स्टोरी बना कर, पत्रकारों को वाहवाही ज्यादा मिलती है और इस लालच में उनका कवरेज कई बार असत्य और एक पक्षीय हो जाता है। इसी प्रकार के उभयपक्षीय मुद्दे बड़े संस्थाओं और यहा तक कि एन.जी.ओ. पर लागू होते हैं

विचारधाराओं का टकराव-

पत्रकार या उसके मीडिया-हाउस की राजनैतिक और विचारधारात्मक पृष्ठभूमि का भी असर पड़ता है। वामपन्थी विचारों में पगे पत्रकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की उपलब्धियों और योगदान के बजाय उनके द्वारा कथित शोषण को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करेंगे। दक्षिण पन्थी मीडिया ग्लोबल वार्मिग के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे बुरे प्रभावों की चर्चा दबे स्वर में करेगा। जर्मनी की फासी/सरकार के जमाने में मनुष्यों पर अनैतिक प्रयोगो की कोई खबर नहीं छापी गई थी। स्टालिन के पतन के बाद ही गुलाग की दुनिया में मनोचिकित्सा के दुरुपयोग की सच्चाई उभर कर आई। धार्मिक रुढीवादी सोच के पत्रकार यौन शिक्षा और कन्डोम के फायदों के स्थान पर संयमशील संस्कृति की ज्यादा दुहाई देंगे।

और अंत में

दुःख की बात है कि हिन्दी के नाम पर रोने, शिकायत करने, हल्ला मचाने, आन्दोलन करवाने वाले वक्तव्य वीरों की संख्या ज्यादा है लेकिन हिन्दी में विज्ञान पर उच्च कोटि की  प्रामाणिक सामग्री जिसका फलक सरल संक्षिप्त से लेकर गूढ-कठिन-गम्भीर विस्तृत तक फैला हो, लिखने वाले की बेहद कमी है।

 

भारतीय भाषाओं पर अधिकार रखने वाले वैज्ञानिकों और पत्रकारों का कर्तव्य बनता है कि वे विज्ञान पत्रकारिता के क्षेत्र में आगे आएं। साक्षरता, शिक्षा व आर्थिक स्तर में सुधार के साथ उम्मीद की जाती है कि विकासशील देशों में भी इस प्रकार के विज्ञान साहित्य की मांग व चलन बढ़ेगा।

Author profile
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डॉ अपूर्व पौराणिक

Qualifications : M.D., DM (Neurology)

 

Speciality : Senior Neurologist Aphasiology

 

Position :  Director, Pauranik Academy of Medical Education, Indore

Ex-Professor of Neurology, M.G.M. Medical College, Indore

 

Some Achievements :

  • Parke Davis Award for Epilepsy Services, 1994 (US $ 1000)
  • International League Against Epilepsy Grant for Epilepsy Education, 1994-1996 (US $ 6000)
  • Rotary International Grant for Epilepsy, 1995 (US $ 10,000)
  • Member Public Education Commission International Bureau of Epilepsy, 1994-1997
  • Visiting Teacher, Neurolinguistics, Osmania University, Hyderabad, 1997
  • Advisor, Palatucci Advocacy & Leadership Forum, American Academy of Neurology, 2006
  • Recognized as ‘Entrepreneur Neurologist’, World Federation of Neurology, Newsletter
  • Publications (50) & presentations (200) in national & international forums
  • Charak Award: Indian Medical Association

 

Main Passions and Missions

  • Teaching Neurology from Grass-root to post-doctoral levels : 48 years.
  • Public Health Education and Patient Education in Hindi about Neurology and other medical conditions
  • Advocacy for patients, caregivers and the subject of neurology
  • Rehabilitation of persons disabled due to neurological diseases.
  • Initiation and Nurturing of Self Help Groups (Patient Support Group) dedicated to different neurological diseases.
  • Promotion of inclusion of Humanities in Medical Education.
  • Avid reader and popular public speaker on wide range of subjects.
  • Hindi Author – Clinical Tales, Travelogues, Essays.
  • Fitness Enthusiast – Regular Runner 10 km in Marathon
  • Medical Research – Aphasia (Disorders of Speech and Language due to brain stroke).