

Basant Panchami: प्रकृतिजन्य संदेशों से परिपूर्ण ऋतुराज बसंत
डॉ. श्रीकांत द्विवेदी
‘ बसंत ‘ शब्द अपने आप में अनेक अर्थों को समेटे हुए है । इस ऋतु के आगमन के साथ ही आम्रवृक्ष की डालियां मंजरी से भरने लग जाती हैं । खेतों में पीली सरसों जिन पर पीले फूल तथा गेहूं की सुनहरी बालियां लहलहाती नजर आती हैं । मादकता , आनंद और मस्ती से सराबोर इस मौसम का स्वागत कोयल अपने मधुर स्वर से करती है । इसीलिए इस ऋतु को बसंतोत्सव नाम भी दिया गया है । भारतीय साहित्यकारों ने तो इस मौसम को बसंतराज की उपमा प्रदान की है । जबकि प्राचीन भारतीय शास्त्रों में बसंतोत्सव को ही होलिका उत्सव की शुरुआत भी माना गया है । कुल मिलाकर बसंतोत्सव का आशय प्रकृति का उत्सव ही है । इस ऋतु में मौसम का मिजाज बहुत सुखद अनुभूति , उमंग , उल्लास तथा स्फूर्ति प्रदान करने वाला होता है । मौसम के ऐसे मिजाज को सकारात्मक सोच के साथ हम अपने भीतर धारण करें , एक-दूसरे के साथ बसंत की तरह ही उत्साह , प्रेम तथा उमंग के साथ व्यवहार करें ।
वैसे देखा जाए तो बसंत शब्द वसन शब्द का ही अपभ्रंश भी हो सकता है । वसन का अर्थ होता है वस्त्र । इधर वसंत ऋतु के आगमन के साथ ही पेड़-पौधों से वस्त्र रूपी पुराने पत्ते झरने लग जाते हैं । यानी पुराने वसन का अंत होना ही बसंत कहलाया होगा । इस तरह से बसंत के आते ही पतझर का मौसम हमें यह संदेश भी देता है कि परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है । पुराने पत्तों का झरना और उनकी जगह नई कोंपलों का फूटना यह बताता है कि पुरानों को स्वैच्छा से नयों के लिए जगह खाली कर देना चाहिए । अन्यथा नवागत किसी दिन पुराने को हटाकर अपनी जगह बना लेंगे ।
अब जरा बसंत ऋतु को दूसरे संदर्भ में देखे तो पतझर का यह मौसम तप और त्याग का प्रतीक भी है । कारण जीवन में दुःख के बाद ही सुख की अनुभूति होती है । पतझर यानी विपत्तियां । विपत्तियों में अपना धैर्य और आत्मविश्वास बनाए रखें । जीवन में नई कोंपलों का फूटना तय है ।
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प्राकृतिक संदेश के अलावा भारतीय संस्कृति में बसंत पंचमी का पावन पर्व ज्ञानदायिनी मां सरस्वती का प्राकट्य दिवस होने से देवी सरस्वती की विशेष पूजा – अर्चना के लिए भी मान्य किया गया है । वहीं भारतीय ज्योतिष परम्परा में बसंत पंचमी को अक्षय तृतीया जैसा शुभ मुहूर्त का दिन भी माना गया है । इस तिथि पर मां सरस्वती की पूजा – आराधना करने से अक्षय झान की प्राप्ति होती है । ज्ञान की देवी होने के साथ-साथ सरस्वती को कला और संगीत की देवी होने का सम्मान प्राप्त है । इस आधार पर मानना होगा कि हमारे ऋषि – मनीषियों ने बच्चों के विद्याराम्भ के लिए बसंत पंचमी की तिथि को सबसे शुभ मुहूर्त माना है ।
विद्याराम्भ संस्कार के लिए भी विशेष मुहूर्त इसलिए निर्धारित किए गए हैं , क्योंकि मानव जीवन की सार्थकता अच्छी शिक्षा पर ही निर्भर करती है । स्वामी विवेकानंदजी के शब्दों में अच्छी शिक्षा का मतलब जीवन निर्माण और मनुष्य निर्माण वाली शिक्षा से हैं । ऐसे में बालक के अक्षर ज्ञान की शुरुआत शुभ घड़ी में होनी चाहिए । इस हेतु अभिभावकों को ध्यान देना होगा । विशेष रूप से ब्राह्मण परिवार के बच्चों की शिक्षा-दीक्षा ऐसी होनी चाहिए , जिससे कि बालक में शिक्षा पूर्ण कर लेने पर ऋषि संतान होने का भाव बना रहे । ब्राह्मण समाज को यह जानना जरूरी है कि देवी सरस्वती की साधना एक तरह का आध्यात्मिक उपचार है । इस उपचार से जीवन में सभी तरह की असमर्थता दूर की जा सकती है । ऋग्वेद में भगवती सरस्वती की आराधना में कहा गया है ‘ प्रणों देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु ।’ अर्थात् हे मां परम चेतना , आप हमारी बुद्धि , प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका बन हमें दिशा प्रदान करें । बसंत ऋतु की उक्त तमाम विशेषताओं और प्रभावों को प्रकृतिजन्य सौगात तथा आध्यात्मिकता के परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करते हुए रीतिकाल के कवि पदमाकर ने अपने काव्य में बसंत को ऋतुराज होने का गौरव इस तरह से प्रदान किया है –
” कूलन में , केलिन में , कछारन में , कुंजन में , क्यारिन में कलिन में , कलीन किलकंत है ।
कहै पदमाकर परागन में पौनहू में , पानन में , पिक में पलासन पगंत है ।
द्वार में , दिसान में , दुनी में , देस – देसन में ,
देखो दीप – दीपन में दीपत दिगंत है ।
बिथिन में , ब्रज में , नबेलिन में , बेलिन में
बनन में , बागन में बगरो बसंत ।
– डॉ. श्रीकांत द्विवेदी,धार
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