मन को भा नहीं रहा भागवत राग …

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मन को भा नहीं रहा भागवत राग …

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत विद्वान व्यक्ति हैं और उनके जाति-वर्ण संबंधी बयान को भी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता तो पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता। मोहन भागवत के पूरे बयान को “आधी हकीकत, आधा फ़साना” की तरह ही स्वीकार किया जा सकता है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि भगवान ने हमेशा बोला है कि मेरे लिए सभी एक हैं, उनमें कोई जाति, वर्ण नहीं है। लेकिन पंडितों ने श्रेणी बनाई, वो गलत था। इसमें आधी हकीकत तो समझी जा सकती है कि मेरे लिए सभी एक हैं, उनमें कोई जाति, वर्ण नहीं है। हालांकि गीता में भगवान कृष्ण की वाणी से इस वाक्य का भी खुला खंडन होता दिखता है। पर भगवान भाव के भूखे रहते हैं और उसमें जाति-वर्ण जैसी कोई बात नहीं है, इस सत्य को भी सभी स्वीकार करते हैं। तो इसका दूसरा हिस्सा “लेकिन पंडितों ने श्रेणी बनाई, वो गलत था।”, यह किसी भी सूरत में गले नहीं उतर रहा है। तो इसके साथ ही उनके खुद के बयान में जाति-वर्ण का विरोध करने वाले भागवत जब संतों में ऊंचे दर्जे की बात कह रविदास को ऊंचा और परोक्ष तौर पर तुलसी, कबीर, सूर को नीचा ठहराने की बात कहते हैं, तब शायद दिमाग कुछ भी सोचने की स्थिति में नहीं रहता। संघ के प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने भागवत के बयान पर सफाई देते हुए कहा कि मोहन भागवत ने पंडित शब्द ज्ञानियों के लिए इस्तेमाल किया था न कि किसी जाति या धर्म के लिए। उन्होंने कहा कि बीते दिन भागवत एक कार्यक्रम में लोगों को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने इस दौरान पंडित शब्द का इस्तेमाल किया था, जिसका मतलब विद्वान या ज्ञानी होता है। इसका गलत मतलब निकालकर इसका मुद्दा बनाया जा रहा है। तो सवाल यह भी है कि आखिर यह ‘विद्वान या ज्ञानी’ कौन सा वर्ग है?
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तो अब बात गीता की कर लें, जो श्लोक भागवत पुराण में भी व्यासपीठ से विद्वान बताते ही हैं। भगवान कृष्ण अर्जुन से बात करते हैं क्योंकि वे सनातन धर्म (भगवद गीता, अध्याय 4, श्लोक 13) में जाति व्यवस्था की उत्पत्ति और उद्देश्य को स्पष्ट करते हैं। “चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।” संस्कृत के इस श्लोक का सारांश यह है कि मनुष्यों के गुणों और कर्मों के अनुसार मेरे द्वारा चार वर्णों की रचना की गयी है। यद्यपि मैं इस व्यवस्था का सृष्टा हूँ किन्तु तुम मुझे अकर्ता और अविनाशी मानो। हालांकि वर्ण की बात कही गई है और जन्म आधारित जातिप्रथा से इसका कोई संबंध नहीं था। जोर गुण और कर्म पर है न कि जाति (जन्म) पर।
तो गीता में कृष्ण का भाव यही है कि गुण और कर्म के विभाजन के अनुसार चतुर्भुज क्रम की रचना हुई। चातुर्वर्ण्यम्: चतुर्वर्णीय क्रम। चार वर्णों के नाम हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। वे चार गुना क्रम का गठन करते हैं। तीन गुणों – सत्व, रज और तम – और कर्म के नियम – इन चार तत्वों को चार वर्णों के निर्माण के लिए मेरे द्वारा विभाजित किया गया था। दलितों को उकसाकर हिंदू धर्म से अलग करने में जुटे लोग अक्सर दलील देते हैं कि हिंदू धर्म की मान्यता है कि शूद्रों का जन्म ब्रह्मा के पैरों से हुआ है। इस आधार पर जाति व्यवस्था को भेदभाव वाला साबित करे की कोशिश लगातार चलती रहती है। दरअसल ये बात पूरी तरह गलत है। पुरुषसूक्त ऋग्वेद संहिता के दसवें मंडल का एक प्रमुख सूक्त यानी मंत्र संग्रह (10.90) है, जिसमें एक विराट पुरुष का वर्णन किया गया है और उसके अंगों का वर्णन है। “ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥ इसका अर्थ बताया जाता है कि उस विराट परमात्मा के मुख से ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई, बाहुओं से क्षत्रियों की, उदर से वैश्यों की और पदों यानी पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। जिज्ञासा का समाधान किया है कि “यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्य कौ बाहू का उरू पादा उच्येते॥12॥” ब्राह्मण (शिक्षक और बुद्धिजीवी) इस शरीर संरचना के मुख हैं, क्षत्रिय (रक्षक) हाथों के समान, वैश्य (पालन करने वाले) पेट के समान और शूद्र (श्रमिक) पैरों के समान हैं। यानी समाज के अलग-अलग हिस्सों को उनकी जिम्मेदारी के हिसाब से उनकी तुलना मानव शरीर से की गई है। इसमें पैदा करने या उत्पन्न होने जैसी कोई बात ही नहीं है। चारों वेदों में ‘शूद्र’ शब्द लगभग 20 बार आया है। कहीं भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है। वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने, उन्हें वेदों का अध्ययन करने से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है। वेदों में अति परिश्रमी कठिन कार्य करने वाले को शूद्र कहा है (“तपसे शूद्रम” यजुर्वेद 30.5), इसीलिए पुरुष सूक्त शूद्र को मानव समाज का आधार स्तंभ कहता है। इसका जन्म से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि ऐसे सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं जहां शूद्र माता-पिता से पैदा हुआ कोई व्यक्ति विद्वान पंडित बना।
तो संत रविदास को सम्मानित करते हुए यह बात हमेशा ध्यान में रखने योग्य है कि किसी का अपमान तो नहीं हो रहा है। जिस तरह भगवान का भाव वर्ण को लेकर है, ठीक उसी तरह का भाव भागवत भी जाति व्यवस्था के प्रति रख सकते हैं। पर पंडित इसके लिए जिम्मेदार हैं, भागवत का यह राग मन को नहीं भा रहा है। यदि यह व्यवस्था पंडितों यानि आंबेकर की‌ सफाई के मुताबिक विद्वानों और ज्ञानियों की देन है तो निश्चित तौर से वह पंडित ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णों से रहे होंगे…।