तेलंगाना की सरकार ने 35 साल पुराना अपना ही एक आदेश फिर से लागू कर दिया है। इस आदेश के अनुसार सरकारी अस्पतालों में काम करने वाले चिकित्सक प्राइवेट प्रैक्टिस नहीं कर पाएंगे। यह भी तय किया गया है कि अब सरकारी अस्पतालों के लिए जो भी डॉक्टर नियुक्त होंगे, उन पर यह आदेश लागू रहेगा। तेलंगाना सरकार ने यह भी निर्देश दिया है कि जिन डॉक्टरों को प्रशासकीय ड्यूटी में नियुक्त कर दिया जाता है, उन्हें वहां से हटाकर वापस उनके मूल चिकित्सा कार्य में तैनात किया जाएगा।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव ने इस बात का ऐलान करते हुए कहा कि इस व्यवस्था से सरकारी अस्पतालों में इलाज बेहतर हो पाएगा। तेलंगाना के चिकित्सा विभाग के सचिव ने इस पर सफाई दी है और कहा है कि सरकार ने केवल उन डॉक्टरों को ही प्राइवेट प्रैक्टिस से रोकने का फैसला किया है, जो नए नियुक्त होंगे। जो भी हो तेलंगाना सरकार की ही पहल इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि वहां सरकार 12 हजार 755 डॉक्टरों की नियुक्ति करने जा रही है। सरकार चाहती है कि सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर केवल अपने सरकारी काम में ही ध्यान केन्द्रित करें यानी तनख्वाह के अलावा कोई और आस न करें।
अभी कर्नाटक में यह व्यवस्था है कि सरकारी अस्पतालों के चिकित्सक अपने निजी क्लीनिक या प्राइवेट अस्पताल में मरीजों को आवश्यक दवाओं की पर्ची लिख सकते हैं। उन्हें अपना खुद का अस्पताल संचालित करने की अनुमति नहीं है और न ही वे किसी प्राइवेट अस्पताल में जाकर ऑपरेशन कर सकते हैं।
मुख्यमंत्री के इस आदेश से वे नए डॉक्टर खुश नहीं हैं, जो सरकारी नौकरी भी चाहते हैं और प्राइवेट प्रैक्टिस करना भी। उनकी मांग है कि अगर तेलंगाना सरकार इस तरह का प्रतिबंध लगाती है, तो उनके वेतन में वृद्धि की जानी चाहिए, ताकि वे अपने पढ़ाई का खर्च प्राप्त कर पाएं और जिन डॉक्टरों ने निजी मेडिकल कॉलेजों में मोटी फीस जमा की है, उसकी भरपाई हो सकें।
भारत की स्वास्थ्य सेवाओं और डॉक्टरों के कारोबार को लेकर सबसे ज्यादा चिंता कोरोना काल के दौरान देखने में आई। ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सेवाएं बुरी तरह प्रभावित रहीं। अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में नीम हकीम और झोलाछाप डॉक्टर इलाज कर रहे हैं। भारत सरकार के अनुसार देश के शहरी क्षेत्रों में 5 हजार 895 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में 1.5 लाख से ज्यादा उपस्वास्थ्य केन्द्र और 25 हजार के करीब प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं। सरकार की योजना है कि ग्रामीण स्वास्थ्य केन्द्रों और उपकेन्द्रों का विस्तार हों और वे लोगों का इलाज नि:शुल्क कर सकें। यहीं लक्ष्य शहरी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को लेकर भी है।
सरकार का दावा है कि मरीजों को जरूरत पड़ने पर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के माध्यम से करीब पौने दो सौ दवाइयां वितरित की जाती हैं। यह प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के माध्यम से जरूरतमंदों की सेवा कर रहे हैं। इनमें आशा और एएमएम के माध्यम से की जाती थी। भारत सरकार कहती है कि देश में प्रतिवर्ष लगभग पौने दो करोड़ लोगों की कैंसर जांच की जाती है। महिलाओं के कैंसर की आशंका को लेकर हर साल दो करोड़ जांच होती है। ई-संजीवनी प्लेटफार्म और संजीवनी परामर्श सुविधाएं भी शुरू की गई है।
सरकार को भी दावे करें, असलियत यह है कि भारत बीमार लोगों के लिए नहीं है। गरीब आदमी बीमारी की दशा में सरकारी अस्पतालों के चक्कर लगाता रहता है। जहां उसकी कोई सुनवाई नहीं होती। सरकारी मेडिकल कॉलेजों में गरीब मरीज को गिनी पिग की तरह समझा जाता है। सरकारी मेडिकल कॉलेजों में पढ़ने वाले विद्यार्थी आमतौर पर उनका इलाज करते हैं। अकुशल पैरामेडिकल स्टॉफ इन सरकारी अस्पतालों में अपनी सेवाएं देता है। प्रशिक्षण ले रहें कर्मचारी मरीजों को इंजेक्शन लगाते हैं। ऐसी मामूली सुविधा भी सरकारी अस्पतालों के मरीजों को नहीं मिल पाती। अस्पताल में आईसीयू, उचित बिस्तर और अन्य चिकित्सा जांच के बारे में तो कहना ही क्या? सरकारी चिकित्सा उपकरणों की जान-बूझकर अनदेखी होती हैं और पीपीपी मॉडल पर निजी कंपनियों को जांच का जिम्मा दे दिया जाता है।
कहना के लिए भारत के शहरों में एम्स जैसे एडवांस अस्पताल भी हैं, लेकिन वहां मरीजों की इतनी लंबी भीड़ है कि इलाज कराते-कराते ही बीमारी और बढ़ जाती है। एम्स जैसे अस्पतालों में वीआईपी मरीजों की देखभाल जल्दी शुरू हो जाती है, लेकिन आम मरीज को यहां इलाज के लिए हफ्तों इंतजार करना पड़ता है
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में बीमार होना किसी आर्थिक आपदा से कम नहीं। परिवार में किसी एक व्यक्ति के बीमार होने पर अगर निजी अस्पताल में भर्ती होना पड़े, तो परिवार की अर्थव्यवस्था चौपट हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में किसी भी गंभीर बीमारी का इलाज कराने के बाद 32 प्रतिशत लोग हर साल गरीबी रेखा के नीचे पहुंच जाते हैं। सरकारी अस्पतालों में इलाज के नाम पर जितना पैसा खर्च होता है, उसका केवल 22 प्रतिशत ही सरकार करती है। 78 प्रतिशत खर्च मरीज अपनी जेब से दवा और अन्य चिकित्सा सामग्री के लिए खरीदता है। सरकारी खर्च का 22 प्रतिशत आमतौर पर डॉक्टरों-नर्सों की तनख्वाह और अस्पताल के रखरखाव पर ही खर्च हो जाता है।
भारत सरकार अपने बजट में स्वास्थ्य के नाम पर जीडीपी का 2 प्रतिशत बजट ही रखती है। कोरोना काल में भी स्वास्थ्य सेवा के नाम पर जो बजट घोषित किया गया था, वह बड़े प्राइवेट अस्पतालों के निर्माण और विस्तार पर कर्ज देने के लिए काम में आया। इसका सीधा सा मतलब यह है कि सरकार चिकित्सा जैसे महत्वपूर्ण विषय को भी व्यावसायिक दृष्टि से देखती है और जनहित में कोई बड़ी धनराशि खर्च करने की नहीं सोचती।
विशेषज्ञों का कहना है कि भारत जैसे देश में इस तरह की व्यवस्था होनी चाहिए कि लोग बीमार होने के पहले ही सतर्क हो जाएं, यानी प्रिवेंटिव मेडिकल सुविधाओं का विस्तार करना चाहिए। कोई व्यक्ति बीमार होने पर अस्पताल जाएं, इससे बेहतर है कि लोगों को सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में रेग्युलर मेडिकल चेकअप, टीकाकरण और बच्चों की सेहत को बेहतर बनाने के बारे में कदम उठाए जाएं। भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी बड़ी संख्या में बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। विशेषज्ञों का कहना हैं कि अगर भारत प्रिवेंटिव मेडिकल फेसिलिटी बढ़ाएं, तो लगभग 80 प्रतिशत बीमारियां रोकी जा सकती हैं।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 38 कहता है कि देश के नागरिकों को बेहतर चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध कराना सरकार का दायित्व है। कोई भी अस्पताल किसी भी मरीज को इलाज करने से मना नहीं कर सकता और न ही अपाइंटमेंट देने में जान-बूझकर देरी कर सकता है। अगर कोई भी अस्पताल, चाहे वह सरकारी हो या प्राइवेट इलाज से मना करें या अपाइंटमेंट में देरी करें, तो जनता को सरकार से जवाब मांगने का अधिकार हैं।
भारत में लोगों को आसान और सस्ती प्राइमरी हेल्थ केयर सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए बीमारियां बढ़ जाती हैं और फिर उनके लिए महंगे इलाज की दरकार होती हैं। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों को 100-100 मरीज तक देखने होते हैं। मामूली से फोड़े-फुंसी का इलाज सरकारी अस्पतालों में नहीं हो पाता और वह बढ़कर कैंसर जैसी घातक बीमारी बन जाती हैं। भारत में बड़ी संख्या में लोग तम्बाकू का सेवन करते हैं, जिससे तम्बाकू खाने वालों के मुंह में गाठ बन जाती हैं। जांच होने पर गाठ बनने की प्रक्रिया में ही बीमारी को पकड़ा जा सकता हैं और उस गाठ को मामूली से खर्चे में हटाया जा सकता हैं, लेकिन बाद में जब वह गाठ कैंसर बन जाती हैं, तब उसके इलाज में लाखों रुपये खर्च करने पड़ते हैं। अगर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर अच्छी चिकित्सा व्यवस्था हों, तो हजारों लोगों को एम्स जैसे अस्पतालों में आने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
भारत में चिकित्सा को लेकर कोई नीति है ही नहीं। सबको अपने हिसाब से काम करने की छूट हैं। कोई रोक-टोक नहीं। हेल्थ और ड्रग्स पॉलिसी इस तरह बनती हैं कि उसमें बड़ी-बड़ी अंतर्राष्ट्रीय दवा कंपनियों का फायदा होता रहें। भारत में ही ऐसी दवाएं बिक रही हैं, जो मरीजों को इलाज से ज्यादा मौत की तरफ ले जाती हैं। कोरोना काल में हुई लाखों मौतें इस बात का सबूत हैं कि मृतकों में एक बड़ा वर्ग उन लोगों का था, जो ओवर मेडिसीन के शिकार हुए। कोरोना काल में डॉक्टरों ने अंदाज से इलाज किया। कहना भी ठीक नहीं हैं कि कोरोना काल में डॉक्टरों ने इलाज किया। वास्तव में पूरे कोरोना काल में इलाज का काम वार्ड बाय और नर्सेस ही करते रहें, बहुत कम बहादुर डॉक्टर थे, जिन्होंने जान जोखिम में डालकर मरीजों की सेवा की। ऐसे डॉक्टरों को सलाम, लेकिन उन डॉक्टरों का क्या, जिन्होंने सेवा की शपथ लेने के बाद भी कोई सेवा की नहीं। निजी क्षेत्र में प्रैक्टिस करने वाले अधिकांश डॉक्टर अपनी दुकानें बंद करके अज्ञातवास में चले गए।
भारत में ड्रग्स लॉबी इस तरह हावी हैं कि वह सस्ती दवाएं बिकने ही नहीं देती। दिल के मरीजों को जो स्टंट 50 हजार से 5 लाख रूपये तक में लगाया जाता हैं, वैसा स्टंट या वाल्व पूर्व राष्ट्रपति एबीजे अब्दुल कलाम ने मात्र 10 हजार रुपये में उपलब्ध कराने की व्यवस्था कर दी थी, लेकिन 10 हजार रुपए के वाल्व में डॉक्टरों को कम कमाई होती, इसलिए इम्पोर्टेट वाल्व के नाम पर लाखों रुपये के वाल्व शरीर में लगा दिए जाते हैं। कैंसर की एक प्रमुख दवा सवा लाख रूपये में बिक रही हैं, जबकि उसका जेनेरिक वर्सन केवल 8 हजार रुपये में मिलता हैं, लेकिन बड़े अस्पताल, डॉक्टर, केमिस्ट, जेनेरिक वर्सन को बिकने नहीं देना चाहते।
जब से बीमा कंपनियां स्वास्थ्य के क्षेत्र में कूदी हैं, तब से उन मरीजों की देखभाल करने वाला कोई हैं ही नहीं, जिनका बीमा नहीं होता। प्राइवेट अस्पताल बीमित मरीज का इलाज करने में ज्यादा रूचि लेते हैं और मनमाना बिल थमाते हैं। अस्पताल में नए पैकेज के हिसाब से इलाज करते हैं और बीमा कंपनियां 3 साल पुराने पैकेज के हिसाब से। केन्द्र और राज्य सरकार प्राइवेट अस्पतालों को व्यावसायिक गतिविधि मानते हैं। इसलिए जिस भाव में मल्टी प्लेक्स को बिजली मिलती हैं, उसी भाव में अस्पताल को मिलती हैं।
भारत में महंगी चिकित्सा व्यवस्था की शुरुआत प्राइवेट मेडिकल कॉलेज से ही होती हैं। हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कह रहे हैं कि हर जिले में एक मेडिकल कॉलेज खोलना उनकी सरकार लक्ष्य हैं, अगर यह लक्ष्य पूरा होता हैं, तो भारत में चिकित्सकों की कमी नहीं रहेगी।
जब भी कभी सरकारी अस्पतालों को सुधारने की बात होती हैं, तब यह सवाल उठता हैं कि उन्हें सुधारेगा कौन? जब भी हमारे नेताओं को इलाज की जरूरत होती हैं, तब वे विदेश जाकर अस्पताल में भर्ती हो जाते हैं। उनकी दूसरी पसंद भारत के कुछ 5 स्टार अस्पताल होते हैं। अस्पताल चाहे सरकारी हो या प्राइवेट सुविधाजनक होने चाहिए। इसमें कोई दोमत नहीं। आम धारणा हैं कि अगर हमारे नेता, ब्यूरोक्रेट्स और अन्य वीवीआईपी सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने जाएंगे, तो सरकारी अस्पतालों की दशा सुधारने की तरफ उनका ध्यान जाएगा। अभी तो यही कह सकते हैं कि तेलंगाना सरकार सरकारी अस्पतालों की दशा सुधारने के लिए जो पहल कर रही हैं, वह सराहनीय हैं। दूसरे राज्य भी ऐसी पहल करके शुरूआत कर सकते हैं।