पुस्तक चर्चा:इंसानियत को राहत की सांस देती एक किताब!
वरिष्ठ पत्रकार और समीक्षक ओम प्रकाश का विश्लेषण
भिवंडी मुस्लिम समाज की बहुत पुख्ता जमीन है। पूर्वांचल की तो कई सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को भिवंडी ने बरसों से स्वर दिया। भिवंडी के और कुछ और सुधीजनों के सहयोग से और जाने-माने पत्रकार और चिश्ती पंथ के अनुयायी मुनीर अहमद मोमिन की प्रेरणा से इन दिनों इस्लाम को लेकर एक किताब आयी, जो खूब चर्चित हो रही है। किताब का नाम है ‘वो इस्लाम जो हम से कहीं छूट गया।’ किताब के लेखक रिटायर्ड जज रजी अहमद चिश्ती हैं, जो पशुहारी शरीफ और बलिया की दरगाह के गद्दीनशीन पीर हैं। उन्होंने यह किताब बहुत अध्ययन और विचार से लिखी। इसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता, शिक्षा व्यवस्था, जिहाद, फिरकापरस्ती, हिंसा और आतंकवाद आदि करीब उन सभी विषयों पर खुली बातचीत है, जिनसे मौजूदा मुस्लिम समाज किसी न किसी रूप में जूझ रहा है।
वे कहते हैं ‘फिरकों ने इस्लाम को बाँट दिया गया है। इस्लाम के नाम पर इन फिरकों के अपने अक़ीदे चल रहे हैं। ये ही हिंसा आदि सारे फितूर की जड़ हैं। आम मुसलमानों को इन फिरकों के मायाजाल से बाहर निकलना चाहिए। कुरआन और हदीस में जो कहा गया है, केवल और केवल वही रास्ता सही है। इस्लाम शांति, अमन-चैन, भाई-चारे और खुदी को बुलंद करने का दर्शन है। उसके मूल में साधना और विचारशीलता है। जहां इसका अभाव है, वहां इस्लाम नहीं है।
आगे उनका कहना है कि ‘फिरकों के सरमायेदार इस्लाम के भीतर रहते हुए इस्लाम के दुश्मन हैं, और शैतान का काम कर रहे हैं। जब यह मुमकिन न हुआ कि कोई दूसरा ईशदूत आये और कोई नया मज़हब बने; तो कुछ लोगों ने मुसलमान होने का दावा बरकरार रखते हुए अपने अक़ीदों के आधार पर इस्लाम को फिरकों में बाँट दिया। खिलाफत जब बादशाहत में बदल गयी, तब नस्ली हुकूमत को मज़बूत करने की भी जरूरत पड़ी। जिसके लिए बफर फिरकों का इस्तेमाल हुआ और शासक के हितों और उद्देश्यों को ध्यान में रख कर नियम और कानून बनाए गए।
रजी साहब आगे लिखते हैं कि बादशाहियत और फिरकों के सदरमायेदारों ने इस बात की भी कोशिश की कि आम मुसलमान कुरआन को सही न समझ सके। समझता तो किसी भी शासक के लिए अपने व्यक्तिगत हितों को बढ़ावा देना मुमकिन नहीं होता। इसलिए कुरआन को लोगों की जुबान में नहीं आने दिया गया। कहा गया कि समझने की जरूरत नहीं, पाठ कर लो। जो मोक्ष पाने का रास्ता था, उसे गले की ताबीज़ बनाकर रख दिया गया।
वे लिखते हैं कि अल्लाह ने सबको अपने रास्ते चलने की पूरी आज़ादी दी है। लेकिन, इन फिरकों ने लोगों से वह आज़ादी छीन ली। यह जानते हुए भी कि जहां पर व्यक्तिगत आज़ादी न हो, वहां लोगों में विज़न नहीं पैदा होता। वहां साइंस और टेक्नोलॉजी की तरक्की नहीं हो सकती। पाबंदी के माहौल में सोचने-समझने की काबिलियत नहीं पैदा होती। वे कुरआनी शिक्षा से अलग हो गए। जिसका यह दुष्परिणाम हुआ कि आम मुसलमान अपनी परेशानी और बदहाली को आजमाइश का नाम देकर दुनियावी तरक्की से अलग और बुनियादी जरूरतों के लिए भी दूसरी कौमों और उनकी खोजों का मोहताज हो गया। तहकीकात करके किसी नतीजे पर पहुंचना और एक इन्साफ पसंद न्याय व्यवस्था को अपनाना नये ज़माने की दो अहम खूबियां हैं। जिनका मुस्लिम समाज को खुले दिल से स्वागत करना चाहिए।
यह बहुत अफसोस की बात है कि इस्लामी देश, जिनका निज़ाम मजहबी कायदे-कानून पर आधारित है, उनके यहां आज़ादी का कोई तसव्वुर नहीं है। वहां तालीम हाकिमाना माहौल में होती है। जिसमें बच्चों को सवाल पूछने की न आज़ादी है और न इजाजत। वहां सोच-विचार करके किसी बात को जानने पर जोर नहीं है। उनके मदरसों की तालीम यह है कि सोचने-विचरने की जरूरत नहीं। जो पहले से ही तय है, उसकी तक़लीद करो। रजी साहब निजी स्वार्थ और लाभ के लिए धर्म के इस्तेमाल को शैतानी हरकत मानते हैं। जिहाद को रोज-रोज की किचकिच से अलग, उस समय का युद्ध मानते हैं जब नैतिक मूल्यों पर कोई गहरा संकट आया हो। तुलना के लिए वे कहते हैं कि गीता में श्रीकृष्ण ने जिन परिस्थितियों में युद्ध के लिए निर्देश दिया, उस तरह की परिस्थितियों और उस तरह की मंशा से किया गया युद्ध जिहाद है।
वे कहते हैं कि अल्लाह ने सबको अपने रास्ते चलने की पूरी आज़ादी दी है। इसलिए किसी को किसी और के धर्म या रहन-सहन, खान-पान, पहनावे या रीति-रिवाज आदि का दारोगा बनने का अधिकार नहीं है। जिहाद रोज रोज की किचकिच नहीं है। यह उस समय का धर्म युद्ध है, जब जब नैतिक मूल्यों पर कोई गहरा संकट आया हो। जैसा महाभारत युद्ध के समय आया था। जिहाद उस तरह की परिस्थितियों में लड़ा जानेवाला युद्द है। अध्याय दर अध्याय ऐसी अनेक बातें हैं, जो किताब को अविस्मरणीय बनाती हैं। और उन तनावों को कम करती हैं जो आजकल के माहौल में चिंता का सबब बन जाती हैं।