साल भर में एक दिन होली आती, दीपावली आती, राखी आती, ईद आती, क्रिसमस आता, प्रकाश पर्व आता … या फिर स्वतंत्रता दिवस आता, गणतंत्र दिवस आता या फिर दूसरे त्यौहार आते…तब सब तरफ खुशी की माहौल दिखता है। पर साल भर में सरकारों के लिए संवैधानिक उत्सव में सबसे खास और सबका हितैषी सालाना “बजट” उत्सव बड़ा मायूस है। उसे इन सामाजिक उत्सवों से ईर्ष्या होने लगी है। इन उत्सवों पर लोग अपनी खुशी के लिए लाखों रुपए खर्च करते हैं और फिर भी किसी को कोसते नहीं हैं।
वहीं “बजट” की परेशानी यह है कि वह साल भर में आता है। सभी वर्गों का ख्याल रखता है। किसानों, गरीबों, मजदूरों, अमीरों सबके लिए कुछ न कुछ अपने पिटारे में लेकर ही आता है। चाहे सेहत की बात हो, चाहे शिक्षा की, चाहे सड़क, बिजली और पानी की बात हो या फिर रोटी, कपड़ा, मकान, व्यवसाय, रोजगार और आय वगैरह…आखिर बजट होने के नाते वह सबकी खुशियों की चिंता करता है। फिर भी बिडंबना है कि सबको कभी भी खुश कर ही नहीं पाता।
21वीं सदी में यह मर्ज कुछ ज्यादा बढ़ गया है कि बजट पेश कर सरकार को खुद ही अपने मुंह मिया मिट्ठू बनना पड़ता है और विपक्ष है कि उसे बजट में नख से सिर तक कुछ भी रास नहीं आता। विपक्ष की नजर जहां पड़ती है, बजट में मानो वहीं बदसूरती नजर आती है। कहीं भी तारीफ के लिए मुंह पर थोड़ी सी भी मुस्कान नजर नहीं आती। आखिर ऐसा भी क्या इस सालाना लोकतांत्रिक, संवैधानिक उत्सव में जन्मजात खोट समाया है कि सत्तापक्ष-विपक्ष को लोकतांत्रिक गाड़ी के दो पहिए कहा जाता है, लेकिन एक पूरब की तरफ भागता है, तो दूसरा पश्चिम की तरफ और “बजट” है कि कराहता रहता है।
दर्द यह है कि सत्तापक्ष से विश्व सुंदरी का तमगा हासिल करने की चाह भी नहीं है, पर विपक्ष से सिर्फ और सिर्फ जलालत भी रास नहीं आती। पर समझ में यह नहीं आता कि अपनी इस फूटी किस्मत का मैं क्या करूं? दिल पर गहरी चोट यह भी लगी है कि जो दल सत्ता में होता है वह तारीफ करते नहीं थकता और जो दल विपक्ष में होता है उसका निंदा करते हुए जी नहीं भरता। मन में जो फांस चुभी है, वह यह कि सत्ता में कभी यह दल रहता है, कभी वह। सत्ता से हटते ही जैसे नजरें भी फिर जाती हैं और जैसे उस पर बजट के प्रति विष-वमन का भूत सवार हो जाता है। कभी अगर धोखे से विपक्ष के सत्ता में रहते पेश किए बजट को ही दोहरा दिया जाए, तब भी उसकी किस्मत में विपक्ष की घृणा और हिकारत ही रहेगी।
अब बजट ने इशारा किया कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ ही ले लो। संयोग से 9 मार्च 2022 को दोनों ही जगह बजट उत्सव था। मध्यप्रदेश में कांग्रेस विपक्ष में है और भाजपा सत्ता में, तो छत्तीसगढ़ में इसका उलटा। पर मजेदार बात है कि बजट को कोसने का चश्मा एक जैसा है। मध्यप्रदेश में भाजपा ने गले से लगाया तो कांग्रेस ने दुत्कारा और छत्तीसगढ़ में भाजपा ने छीछालेदर की मेरी, तो कांग्रेस ने दुलारा। आखिर ऐसा कैसा लोकतंत्र कि एक को सब कुछ भाता है तो दूसरे को मेरा रूप रत्ती भर रास नहीं आता।
दुनिया की ऐसी कोई रचना नहीं, जिसके साथ कोई भी इस तरह का बर्ताव करता हो। मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बजट को आत्मनिर्भर मध्य प्रदेश के निर्माण का बजट बताया। एक वैभवशाली, गौरवशाली, संपन्न और समृद्ध भारत के निर्माण का और प्रधानमंत्री के संकल्प की पूर्ति का बजट बताया।
तो नेता प्रतिपक्ष कमलनाथ ने बजट को जनता को गुमराह करने वाला और फिर से धोखा देने वाला झूठ का पुलिंदा बताया।मध्यप्रदेश विधानसभा में 2022-23 का कुल 2 लाख 79 हजार 237 करोड़ का बजट पेश किया। इसमें 55 हजार 111 करोड़ का अनुमानित राजकोषीय घाटा बताया है। बजट में कोई भी नया कर नहीं लगाया है और मौजूदा करों में भी कोई दर नहीं बढ़ाई गई है। सरकार ने पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष 13 प्रतिशत अधिक राजस्व वसूली का अनुमान लगाया है।
उधर छत्तीसगढ़ में पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने बजट पर ट्वीट करते हुए कहा कि सरकार का बजट बिना आत्मा के शरीर, बिना पानी के नदी, बिना ऊंचाई के पहाड़ और फुले हुए गुब्बारे जैसा है, जिसमें न दूरदर्शिता है ना ही विज़न है। महिलाओं, बेरोजगारों, किसानों, मजदूरों, बुजुर्गों, बेटियों के लिए इस बजट में सिवाय निराशा के कुछ नहीं है।मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने एक लाख 04 हजार 603 करोड़ रुपए का बजट पेश किया।
आकार के लिहाज से यह अब तक का सबसे बड़ा बजट है। इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों पर फोकस है। स्थानीय विकास योजनाओं के साथ युवाओं के सपनों को पंख लगाने की योजनाएं शामिल की गई हैं। इस बजट से पुरानी पेंशन योजना भी बहाल हो गई है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने उम्मीद जताई कि, यह बजट ग्राम केंद्रित अर्थव्यवस्था को अधिक ताकत देगा।
बजट थोड़ा पीछे मुड़ा तो उसे निर्मला सीतारमण द्वारा पेश किए गए केंद्रीय बजट पर सत्ता पक्ष-विपक्ष के वही तेवर नजर आए, जो अभी मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ में दिख रहे थे। “बजट” अपनी ऐसी दुर्दशा पर आंसू बहा रहा है और यह सोच रहा है कि सत्तापक्ष-विपक्ष के बीच का कसैलापन आखिर कब खत्म होगा? अलग-अलग चश्मे से मुझे कब तक सुंदर-कुरूप परिभाषित किया जाता रहेगा?
वह दिन कब आएगा, जब अन्य उत्सवों की तरह मुझ सालाना उत्सव को एक ही नजर और एक ही चश्मे से देखा जाएगा। लोकतंत्र के इस संवैधानिक उत्सव को निष्पक्ष नजरिए के साथ कब देखा जाएगा, जब कमल नयन की तारीफ होगी…भले ही बेडौल शरीर पर तंज कसा जाए। जाके पैर न फटी बिमाई, वह क्या जाने पीर पराई। जिन उत्सवों के हिस्से में “फीलगुड” ही “फीलगुड” है, आखिर वह हमारी इस फजीहत को कैसे महसूस कर पाएंगे…? क्या जन-जन के हितैषी सभी जनप्रतिनिधि दलदल से बाहर निकलकर कभी भी “निष्पक्ष नजरिए” से हमें देखकर हमारे गुणों को सराहने और दोषों पर मुंह सिकोड़ने का काम नहीं करेंगे?
ताकि जन-जन के हितैषी बनने का जनप्रतिनिधियों का दावा हमारी नजर में भी खरा साबित हो सके। सब मिलकर मेरी सुंदरता में चार चांद लगाकर जनता के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करें। ताकि फिर कोई मुझसे यह न कह सके कि हाय रे “बजट” तेरी यही कहानी… सत्ता कहे सुंदर, विपक्ष कहे जन संग बेईमानी…। और मेरे सुंदर भाव हर जन मन को लुभा सकें। बजट नेे खुद से यह सवाल किया कि क्या लोकतंत्र में वह दिन कभी आएगा…! और फिर अपनी नजरें झुका लीं।