Buldozer Justice: अपराध रोकने से मुंह मोड़ने का सस्ता तरीका!
रंजन श्रीवास्तव की खास रिपोर्ट
जो बुलडोज़र न्याय के पक्षधर हैं और हर एक आरोपी के मकान पर बुलडोज़र चलने पर तालियां बजाते हैं और सरकार की वाहवाही करते हैं उनको यह पढ़कर अजीब लग सकता है कि बुलडोज़र चलाकर सरकार अपनी उन नाकामियों को छिपाती है जिसकी वजह से समाज में अपराध बढ़ते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के बुलडोज़र कल्चर पर टिप्पणी के बाद बुलडोज़र न्याय पर पूरे देश में पुनः बहस चल पड़ी है। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट करते हुए कि उसकी मंशा अवैध निर्माण को प्रश्रय देने की नहीं है। इस सम्बन्ध में आने वाले समय में एक दिशा निर्देश जारी करने की बात की है। अगर बुलडोज़र चलाने से अपराध रुकते या कम होते तो रोजाना मीडिया में जितनी हत्या, हत्या का प्रयास, बलात्कार, छेड़खानी, अपहरण ,डकैती, लूट, चोरी इत्यादि की ख़बरें आतीं हैं वो नहीं आतीं या नगण्य होतीं। खासकर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और उन राज्यों में जहाँ मकानों पर बुलडोज़र चलाकर सरकारें सस्ती वाहवाही लूट रही हैं और अपना वोट बैंक पक्का करने की कोशिश कर रही हैं। अगर मकान गिराने से अपराध रुकते तो फिर तो एनकाउंटर में पुलिस द्वारा अपराधियों को मारे जाने पर अपराध ख़त्म हो जाना चाहिए था। बुलडोज़र कल्चर और भी बदरंग और भयावह दिखने लगता है जब इसके पहिओं में साम्प्रदायीकरण की हवा भर दी जाती है।
अगर बुलडोज़र संस्कृति का आधार न्याय है तो देश के तत्कालीन गृह राज्य मंत्री के मकान पर भी बुलडोज़र चलना चाहिए था जिनके पुत्र ने किसानो के ऊपर अपनी गाड़ी चढ़ाकर 5 की हत्या कर दी थी। बुलडोज़र भाजपा के उन कार्यकर्ताओं के घरों के ऊपर भी चलना चाहिए था जो बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी की छात्रा के साथ बलात्कार के आरोपी हैं। उत्तर प्रदेश में ही बलात्कार के मामले में दोष सिद्ध पाए गए भाजपा के तत्कालीन विधायक कुलदीप सिंह सेंगर के घर पर बुलडोज़र नहीं चला। बहुत से अन्य मामले भी हैं जहाँ उत्तर प्रदेश की सरकार का बुलडोज़र आगे नहीं बढ़ा। यह भी देखा गया कि जिस तत्परता से बुलडोज़र एक खास संप्रदाय के घरों पर चला वो तत्परता अन्य मामलों में नहीं देखा गया।
एक मीडिया संस्था की रिपोर्ट के अनुसार जून महीने में मध्य प्रदेश में 37 घरों पर बुलडोज़र चले जिसमे 27 घर एक विशेष समुदाय के थे। जब भी इस तरह का अन्याय होता दिखेगा तो बुलडोज़र एक्शन के पीछे सरकार की नीयत पर प्रश्न चिन्ह उठना स्वाभाविक है। संभवतः सुप्रीम कोर्ट की मंशा यही है कि अगर राज्य सरकारें ही इस तरह का ‘न्याय’ देने लगीं तो फिर देश की न्याय व्यवस्था किसलिए है। न्याय व्यवस्था का सिंद्धात यह है कि कोई भी आरोपी तब तक निर्दोष है जब तक दोष सिद्ध ना हो जाए। सिर्फ आरोप के आधार पर किसी का घर गिरा देना और किसी एक व्यक्ति पर आरोप लगने पर उसके घर के सभी सदस्यों को बेघर कर देना कहाँ तक न्याय संगत है? प्रश्न यह भी है कि अगर किसी आरोपी पर दोष सिद्ध ही ना हो तो क्या सरकार उस व्यक्ति से क्षमा मांगेगी और उसको उसका घर वापस कर देगी? और घर गिरने से सारे सदस्यों को जिस शारीरिक और मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ता है क्या उसकी क्षतिपूर्ति सरकार कर पायेगी?
सरकार का यह मत मान भी लें कि बुलडोज़र से अवैध निर्माण गिराया गया तब भी यह प्रश्न है कि अवैध निर्माण होते समय सरकार के सम्बंधित अधिकारी और कर्मचारी क्या कर रहे थे? क्या उनको भी अवैध निर्माण होने देने पर दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए? जहाँ तक किसी अपराध का प्रश्न है सरकारें, पुलिस और प्रशासन इसकी तह तक जाकर उसका निराकरण करना ही नहीं चाहते या अक्षम हैं। उदाहरण के तौर पर बलात्कार के कारणों में इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध पोर्नोग्राफी, शराब और सूखे नशे का एडिक्शन, पुलिस और अभियोजन का काम करने का तरीका, गवाहों को सुरक्षा नहीं मिल पाना,न्याय मिलने में देरी, पीड़िता और उसके परिवार में सामाजिक सम्मान खोने का भय, उनको डराना धमकाना इत्यादि अनेक कारण हैं। दिल्ली में निर्भया काण्ड के सारे बलात्कारी अपराध के समय भयंकर नशे में थे और उस काण्ड के 12 वर्ष बाद कोलकाता में ट्रेनी डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या का आरोपी संजय रॉय भी नशे में था तथा पोर्नोग्राफी देखने का आदी था। इन 12 वर्षों में भी देश भर में जाने कितने बलात्कार और हत्याएं हुईं और उसके कारणों में नशा, पोर्नोग्राफी तथा अन्य कई कारण थे पर आज तक केंद्र सरकार और राज्य की सरकारें पोर्नोग्राफी और नशे के कारोबार पर अंकुश नहीं लगा सकी हैं। अन्य कारण भी यथावत हैं। तो जब भी बुलडोज़र चलता है और जनता वाहवाही में व्यस्त हो जाती है तो सरकारें अपराध के मुख्य कारणों और उसके जड़ों पर प्रहार करने के बजाय इसी तरह की सस्ती लोकप्रियता के कामों में व्यस्त हो जातीं हैं । पुलिस और प्रशासन को भी अपने दायित्वों से मुक्ति मिल जाती है और अपराध बदस्तूर जारी रहता है।