बड़ा कोफ्त होता है, जब इस तरह की खबरें रूह कंपा देती हैं कि दादी के पास सोई नाबालिग को बहसी दरिंदा रात में उठा ले गया। और फिर जब वह खून से लथपथ-दर्द से कराहती घर लौटी तो दादी से लिपटकर अपना दर्द बयां कर चीखती रही कि बचा लो दादी…! पूरी जिंदगी जीकर पथरा चुकी बूढ़ी आंखों की लाचारी और बेबसी, तो अभी दुनिया देखने की जिज्ञासा से भरीं वह आंखें जो इसकी वीभत्सता को देख पथरा गईं हैं। दोनों का ही जी, इस बेरहम दुनिया से भर गया है। जाएं तो जाएं कहां … शायद यही शब्द बार-बार कलेजे को चीर रहे होंगे !
लगता है कि इन बहसी दरिंदों को सीधे गोली मार दी जानी चाहिए। वकील, दलील और अपील जैसी किसी कानूनी सुविधा पर इनका कोई हक नहीं है। बुलडोजर इनके मकानों-दुकानों पर नहीं, बल्कि इनके सीने पर चला देना चाहिए ताकि इनकी रूह अगले किसी जनम में ऐसा बर्ताव करने की सोच पर ही कांप जाए। कानून व्यवस्था आखिर कितना दम भरेगी, जब तक कि इंसान अपनी दुष्टता, क्रूरता और आसुरी प्रवृत्ति से बाज नहीं आएगा। आखिर चूक कहां हुई है? और सतयुग, त्रेता, द्वापर में तो देव-दानव दो धड़ों में बंटे अलग-अलग दिखते थे, चेहरों पर इंसानियत और हैवानियत का भाव साफ नजर आ जाता था। लेकिन अब तो पता ही नहीं चलता कि हैवान कौन है और इंसान कौन है? वह बच्ची अगर यह बयां कर रही है कि एक दिन पहले जो व्यक्ति पास खड़ा था, उसी दरिंदे की यह करतूत है…तब फिर यह बच्चियां आखिर किस हवा में सांस लें, ताकि उनकी जिंदगी में जहर न घुल पाए।
कभी-कभी लगता है कि आखिर इस दुनिया की रचना हुई ही क्यों है? क्या इसीलिए कि हर युग में जब हैवानियत, दरिंदगी और दैत्य प्रकृति हद पार करने तक पहुंचेगी, तब कोई महाशक्ति जन्म लेगी और चुन-चुनकर असुरों का नाश करेगी…और इसके बाद परदा गिरेगा और नया युग फिर शुरू हो जाएगा। और फिर नए सिरे से युगों की पुनरावृत्ति होना शुरु हो जाएगी। कभी-कभी लगता है कि क्या जुल्म सहने वालों का नसीब पहले से ही तय है? क्योंकि सरकारें कोई भी रही हों, लेकिन जुल्म, ज्यादती, हत्या, बलात्कार और अपराध न कभी थमे थे और न कभी थमेंगे…? खैर यह सब तब तक बकवास ही नजर आता है, जब तक कि पीड़ा किसी अपने को न हो। पर बेहतर तो यही है कि मासूम, नाबालिग बच्चियों पर दरिंदों की नजर पड़े, इससे पहले ही उन दरिंदों को बुलडोजर से कुचल दिया जाए।
मन रोता है और अपना आपा खो देता है। मन मजबूर होता है और रह-रहकर इस दरिंदों की दुनिया से दूर होता है। पर बिडंबना यह है कि करें तो क्या करें? मन के खिन्न होने से दुनिया के भाव तो नहीं बदलते। अब रूस-यूक्रेन युद्ध को ही ले लें। वह भी एक खास किस्म की दरिंदगी ही है। युद्ध सिर्फ इसलिए ही जारी है, क्योंकि रुस चाहता है कि यूक्रेन घुटनों के बल पर बैठकर दया की भीख मांगे और दुनिया है कि तमाशबीन बनकर तमाशा देख रही है। तहस-नहस होते हुए भी यूक्रेन का जमीर जिंदा है और बाकी सभी देश अपने-अपने जमीर का पूरा इम्तिहान ले रहे हैं। कभी-कभी लगता है कि इस प्रगति, विज्ञान और विकास के मायने आखिर क्या हैं? क्या मानव विकास से विनाश तक की यात्रा पूरी करने के लिए ही बना है? क्या मानव सज्जनता से दुर्जनता की यात्रा करने के लिए ही बना है? क्या मानव ऊर्जा से ओतप्रोत से लेकर ऊर्जा से हीन होने तक की यात्रा के लिए ही बना है? रावण और कंस एक दिन मरते हैं, लेकिन इनका त्रास मानवता सदियों तक भुगतती रहती है।
आज उस खून से लथपथ बच्ची का चेहरा और दर्द से टूटती उसकी रूह मेरी आंखों से ओझल नहीं हो रही है। और शायद मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं जो लिख रहा हूं, क्या वाकई वह पढ़ने-लिखने लायक है। हां यह बात सच है कि ऐसे दरिंदों पर ही बुलडोजर चलाने की जरूरत है अब, जो इंसान के वेश में हैवान हैं। दीवारों पर बुलडोजर चलाने से उद्देश्य कभी पूरा नहीं होगा। उपलब्धियों की सदियों लंबी यात्रा में हमने पाया बहुत है तो खोया भी बहुत है। रामराज्य लाने के लिए उसी खोये हुए की भरपाई की लंबी यात्रा अभी बाकी है।