मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश को बांटकर ‘बुंदेलखंड’ राज्य के गठन की मांग बहुत पुरानी है! इन दोनों राज्यों के इस अति पिछड़े इलाके को अलग राज्य बनाकर विकास के नए द्वार खोलने की मांग राजनीतिक दलों की तुलना में दूसरे संगठन ज्यादा उठाते रहे हैं। अभिनेता से भाजपा नेता बने राजा बुंदेला जैसे नेता बरसों से इस आंदोलन की धुरी बने हुए हैं और आज भी इस मांग में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं। फिलहाल वे उत्तर प्रदेश के ‘बुंदेलखंड विकास बोर्ड’ के उपाध्यक्ष हैं। पहले वे ‘बुंदेलखंड कांग्रेस’ जरिए वे मांग को उठा चुके हैं। राजा बुंदेला का कहना है कि केंद्र सरकार राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन करके बुंदेलखंड राज्य बनाने की दिशा में पहल करती है, तो बुंदेलखंड को आत्मनिर्भर होने में ज्यादा व समय नहीं लगेगा! इससे बुंदेलखंड को दोहन से मुक्ति भी मिलेगी। जनता का जीवन स्तर भी सुधरेगा और बेरोजगारी दूर होगी। इसके प्रस्तावित नक्शे पर मध्य प्रदेश के सागर संभाग में आने वाले छतरपुर, टीकमगढ़, सागर, पन्ना, दमोह के साथ दतिया और यूपी के बुंदेलखंड से जुड़े झांसी, महोबा, हमीरपुर, बांदा, चित्रकूट, ललितपुर, जालौन जिले को जोड़कर दिखाया जाता रहा है। हाल ही में दार्जिलिंग में छोटे राज्यों के समर्थक नेताओं की बैठक ने नए राज्यों के गठन के मुद्दे को फिर हवा दी। जबकि, आंध्र प्रदेश को विभाजित कर पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण का फैसला होने के बाद देश के अन्य भागों में छोटे राज्यों के लिए दशकों से चलते आ रहे आंदोलनों में नई जान आई थी। लेकिन, वक़्त ने इसे फिर पीछे धकेल दिया! अब मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र को अलग राज्य का दर्जा दिए जाने की सुगबुगाहट फिर शुरू हो गई! इस हलचल की वजह क्या है, अभी इस बारे में दावे से कुछ कहा नहीं सकता। पर, केंद्र और राज्य की भाजपा सरकार इस मुद्दे पर फिर विचार करने के मूड में है। इस घटनाक्रम को देखते हुए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या अब केंद्र सरकार को दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन करना चाहिए? जो नए राज्यों के पुनर्गठन की समस्या का राजनीतिक, भाषाई, सांस्कृतिक और भौगोलिक सभी पहलुओं का गहराई से अध्ययन करें! ताकि, इस आधार पर सरकार भविष्य में नए और छोटे राज्यों के निर्माण के बारे में सुविचारित मानक नीति तैयार करके उस पर अमल हो सके! गोरखालैंड, विदर्भ, कार्बी आंगलोंग, बोडोलैंड, पूर्वांचल, पश्चिम प्रदेश, अवध प्रदेश, हरित प्रदेश और बुंदेलखंड जैसे कई नए राज्यों की मांग के समर्थन में आंदोलनों का लम्बा दौर चला है।
बुंदेलखंड का गठन मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के जिलों को मिलाकर होना है। मध्यप्रदेश में चौथी बार भाजपा की सरकार है। पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने जरूर मांग की थी, कि राज्य पुनर्गठन आयोग को फिर से बनाया जाए और अलग राज्य संबंधी जितने भी प्रस्ताव फैसले से वंचित रह गए हैं, उन पर भी विचार किया जाए। उसी समय कांग्रेस के तत्कालीन राष्ट्रीय महासचिव मधुसूदन मिस्त्री ने भी कहा था कि उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व के कान में पृथक बुंदेलखंड राज्य का मुद्दा डाल दिया है। तेलंगाना राज्य को जब कांग्रेस कार्यसमिति मंजूरी दे रही थी, तब भी उन्होंने बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाने की और नेतृत्व का ध्यान खींचा! भाजपा की बात करें तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पहले ही पृथक बुंदेलखंड की मांग से इंकार कर चुके हैं।
यदि बुंदेलखंड चुनावी मुद्दा बनता है, तो शिवराज सिंह ही नहीं उत्तर प्रदेश की सरकार को भी इसकी कोई गाइडलाइन बनाना होगी। क्योंकि, ये मुद्दा राख में कहीं दब जरूर गया, पर चिंगारी सुलग रही है। सवाल यह है कि नेताओं की सोच क्या मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के मतदाताओं के गले उतरेगी! छोटे राज्य के गठन से विकास को एक नई दिशा मिली है तो पृथक बुंदेलखंड की मांग को भी जनता का समर्थन मिलना चाहिए! सवाल यह भी है कि छत्तीसगढ़ के तौर पर मध्य प्रदेश का एक बंटवारा पहले ही हो चुका है, ऐसे में सागर संभाग के पांच जिलों को खोना क्या मध्यप्रदेश को गंवारा होगा? बड़ा सवाल यह है कि इस अति पिछड़े क्षेत्र में बिखरी पड़ी प्राकृतिक संपदा से क्या बुंदेलखंड आत्मनिर्भर हो जाएगा! पृथक बुंदेलखंड की मांग सिर्फ सियासी होगी या फिर वाकई में क्षेत्र के विकास में यह विकल्प निर्णायक भूमिका निभा सकता है?
तेलंगाना के गठन के तत्कालीन यूपीए सरकार के फैसले ने देश के दूसरे हिस्सों में अलग राज्यों की मांग में चल रहे आंदोलनों को भड़का दिया था। इस्तीफों का दौर भी चला और सड़क पर विरोध भी हुआ! कोई खुश हुआ तो कोई दुखी! इस बात की आशंका भी थी। क्योंकि, ऐसे राजनीतिक फैसले सभी को खुश नहीं कर सकते! ऐसे में सवाल उठता है कि देश की आजादी के बाद से हमेशा ही अलग राज्यों की मांगें क्यों उठती रही है। इस तरह की मांगों के पीछे वोट की राजनीति है या फिर कोई और कारण! इन आंदोलनों के लिए क्या सिर्फ राज्यों की सांस्कृतिक और भौगोलिक भिन्नता ही जिम्मेदार है या फिर इसके पीछे कोई और कारण भी है।
समाजशास्त्रियों के तर्क है कि समाज के अगड़े-पिछड़े के बीच तनाव, शोषण, भाषा और संस्कृति पर मंडराते खतरे, मुख्यधारा से कट जाने का खतरा और आजादी में खलल जैसे कारण ही अलग राज्य की मांगों को हवा दे रही है। लेकिन, इस तरह की मांगों के साथ जब भी राजनीति जुड़ती है तो आंदोलन की यह चिंगारी आग की शक्ल में सब कुछ जला डालती है। लंबे समय से देश के विभिन्न अंचलों से भाषाई, भौगोलिक और जातिगत आधार पर अलग राज्यों की मांग उठती रही है। कुछ मांगे तो आजादी से पहले की हैं और कुछ आजादी के बाद की! पश्चिम बंगाल के पर्वतीय क्षेत्र दार्जिलिंग में सबसे पहले 1907 में गोरखा समुदाय के लिए अलग राज्य की मांग उठी थी! अलग गोरखालैंड की मांग कर रहे ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा’ के प्रमुख विमल गुरुंग कहते हैं, कि दार्जिलिंग तो कभी बंगाल का हिस्सा रहा ही नहीं!
इतिहास भी इस बात का गवाह है। गोरखाओं की खत्म होती पहचान बनाए रखने के लिए गोरखालैंड जरूरी है। लेकिन, केंद्र सरकार ने कभी भी इन आंदोलनों को गंभीरता से नहीं लिया! कभी आंदोलनों को बल प्रयोग से दबाया गया तो कभी समझौतों के जरिए। किसी भी राजनीतिक दल की सरकार ने समस्या की तह तक जाने की कोशिश नहीं की! असम के ‘बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल’ के सदस्य हाग्रामा मोहिलारी का कहना है कि असम में रहकर बोडो जनजाति की पहचान खत्म होने वाली है। सरकार ने अलग काउंसिल का लालच भले दिया हो, पर अलग राज्य के बिना बोडो जनजाति की पहचान को बनाए रखना संभव नहीं! देश की आजादी के बाद राज्यों के पुनर्गठन की सबसे बड़ी कवायद 1953 में ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ बनाकर की गई थी! इसके तहत राज्यों की सीमाएं भाषाई आधार पर तय की जानी थी। भाषाई आधार का नतीजा ये हुआ कि भौगोलिक बनावट, क्षेत्रफल, आबादी और भाषा के अलावा दूसरी सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति जैसे मसलों को आयोग ने महत्व नहीं दिया! यही कारण था कि कुछ सालों बाद ही असंतोष पनपने लगा!
चार साल बाद ही मुंबई (तब बंबई) से अलग करके गुजरात को अलग राज्य का दर्जा दिया गया। इसके छह साल बाद पंजाब को तीन हिस्सों में बांटकर हरियाणा और हिमाचल प्रदेश बनाना पड़ा। देश में छोटे राज्यों के लिए नए सिरे से उठने वाली मांगों के लिए तीन बातें ख़ास तौर पर जिम्मेदार हैं। पहली वजह जाति और धर्म के आधार पर देश के सामाजिक ताने-बाने का राजनीतिकरण होना है। पिछले कुछ सालों में क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ा है, जो लोगों की भावनाओं को भड़काकर मांग को आंदोलन का स्वरूप देने लगे हैं। चुनावी राजनीति में बड़े दल भी अपने क्षेत्रीय एजेंडे के तहत अलगाववाद की भावना को बढ़ावा देने में पीछे नहीं हैं! दूसरा कारण है देश में एक समान विकास का अभाव! ऐसी स्थिति में यह भावना प्रबल हो जाती है कि अलग राज्य होने की स्थिति में क्षेत्र और वहां के लोगों के विकास की गति तेज होगी! क्योंकि, ये आम धारणा है कि विकसित इलाकों में निजी निवेश होता है, जिससे इलाके का विकास होता है। पिछड़े इलाके विकास की दौड़ में इसलिए और पिछड़ते रहते हैं!
अपने लिए अलग राज्य की मांग का समर्थन करने वालों के पास अपनी दलीलें हैं। मांग का समर्थन करने वाले कहते हैं कि छोटे राज्यों से सुशासन सुनिश्चित करने के अलावा विकास की गति भी तेज हो सकती है। गोरखा आंदोलन से जुड़े नेताओं का कहना है कि राजधानी से दूर होने की वजह से सरकार और प्रशासन का ध्यान इलाके की समस्याओं और विकास की ओर नहीं जाता। इन आंदोलनकारियों का ये भी कहना है कि छोटे राज्यों की विकास दर दूसरे राज्यों से बेहतर है। अपनी बात के समर्थन में वे छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड का हवाला देते हैं जिनकी औसतन सालाना वृद्धि दर दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान अपने मूल राज्यों (जिनसे अलग होकर उनका गठन हुआ था) के मुकाबले बेहतर रही। ऐसी मांगों का विरोध करने वाले इस देश की एकता व अखंडता पर खतरा मानते हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कहना है कि दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र बंगाल का अभिन्न हिस्सा रहा है। कुछ इलाके को मिलाकर यदि गोरखालैंड बना भी दिया गया, तो संसाधन कहां से आएंगे? छोटे राज्यों के गठन से राजनीतिक व सामाजिक अस्थिरता भी बढ़ेगी! झारखंड इसका ताजा उदाहरण है जहां हर साल सरकार गिर या बदल जाती है। लेकिन, सिर्फ राजनीतिक अस्थिरता को आधार बनाकर छोटे राज्यों के पक्ष को नकारा नहीं जा सकता!
यदि बुंदेलखंड चुनावी मुद्दा बनता है, तो शिवराज सिंह ही नहीं उत्तर प्रदेश की सरकार को भी इसकी कोई गाइडलाइन बनाना होगी। क्योंकि, ये मुद्दा राख में कहीं दब जरूर गया, पर चिंगारी सुलग रही है। सवाल यह है कि नेताओं की सोच क्या मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के मतदाताओं के गले उतरेगी! छोटे राज्य के गठन से विकास को एक नई दिशा मिली है तो पृथक बुंदेलखंड की मांग को भी जनता का समर्थन मिलना चाहिए! सवाल यह भी है कि छत्तीसगढ़ के तौर पर मध्य प्रदेश का एक बंटवारा पहले ही हो चुका है, ऐसे में सागर संभाग के पांच जिलों को खोना क्या मध्यप्रदेश को गंवारा होगा? बड़ा सवाल यह है कि इस अति पिछड़े क्षेत्र में बिखरी पड़ी प्राकृतिक संपदा से क्या बुंदेलखंड आत्मनिर्भर हो जाएगा! पृथक बुंदेलखंड की मांग सिर्फ सियासी होगी या फिर वाकई में क्षेत्र के विकास में यह विकल्प निर्णायक भूमिका निभा सकता है?
तेलंगाना के गठन के तत्कालीन यूपीए सरकार के फैसले ने देश के दूसरे हिस्सों में अलग राज्यों की मांग में चल रहे आंदोलनों को भड़का दिया था। इस्तीफों का दौर भी चला और सड़क पर विरोध भी हुआ! कोई खुश हुआ तो कोई दुखी! इस बात की आशंका भी थी। क्योंकि, ऐसे राजनीतिक फैसले सभी को खुश नहीं कर सकते! ऐसे में सवाल उठता है कि देश की आजादी के बाद से हमेशा ही अलग राज्यों की मांगें क्यों उठती रही है। इस तरह की मांगों के पीछे वोट की राजनीति है या फिर कोई और कारण! इन आंदोलनों के लिए क्या सिर्फ राज्यों की सांस्कृतिक और भौगोलिक भिन्नता ही जिम्मेदार है या फिर इसके पीछे कोई और कारण भी है।
समाजशास्त्रियों के तर्क है कि समाज के अगड़े-पिछड़े के बीच तनाव, शोषण, भाषा और संस्कृति पर मंडराते खतरे, मुख्यधारा से कट जाने का खतरा और आजादी में खलल जैसे कारण ही अलग राज्य की मांगों को हवा दे रही है। लेकिन, इस तरह की मांगों के साथ जब भी राजनीति जुड़ती है तो आंदोलन की यह चिंगारी आग की शक्ल में सब कुछ जला डालती है। लंबे समय से देश के विभिन्न अंचलों से भाषाई, भौगोलिक और जातिगत आधार पर अलग राज्यों की मांग उठती रही है। कुछ मांगे तो आजादी से पहले की हैं और कुछ आजादी के बाद की! पश्चिम बंगाल के पर्वतीय क्षेत्र दार्जिलिंग में सबसे पहले 1907 में गोरखा समुदाय के लिए अलग राज्य की मांग उठी थी! अलग गोरखालैंड की मांग कर रहे ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा’ के प्रमुख विमल गुरुंग कहते हैं, कि दार्जिलिंग तो कभी बंगाल का हिस्सा रहा ही नहीं!
इतिहास भी इस बात का गवाह है। गोरखाओं की खत्म होती पहचान बनाए रखने के लिए गोरखालैंड जरूरी है। लेकिन, केंद्र सरकार ने कभी भी इन आंदोलनों को गंभीरता से नहीं लिया! कभी आंदोलनों को बल प्रयोग से दबाया गया तो कभी समझौतों के जरिए। किसी भी राजनीतिक दल की सरकार ने समस्या की तह तक जाने की कोशिश नहीं की! असम के ‘बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल’ के सदस्य हाग्रामा मोहिलारी का कहना है कि असम में रहकर बोडो जनजाति की पहचान खत्म होने वाली है। सरकार ने अलग काउंसिल का लालच भले दिया हो, पर अलग राज्य के बिना बोडो जनजाति की पहचान को बनाए रखना संभव नहीं! देश की आजादी के बाद राज्यों के पुनर्गठन की सबसे बड़ी कवायद 1953 में ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ बनाकर की गई थी! इसके तहत राज्यों की सीमाएं भाषाई आधार पर तय की जानी थी। भाषाई आधार का नतीजा ये हुआ कि भौगोलिक बनावट, क्षेत्रफल, आबादी और भाषा के अलावा दूसरी सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति जैसे मसलों को आयोग ने महत्व नहीं दिया! यही कारण था कि कुछ सालों बाद ही असंतोष पनपने लगा!
चार साल बाद ही मुंबई (तब बंबई) से अलग करके गुजरात को अलग राज्य का दर्जा दिया गया। इसके छह साल बाद पंजाब को तीन हिस्सों में बांटकर हरियाणा और हिमाचल प्रदेश बनाना पड़ा। देश में छोटे राज्यों के लिए नए सिरे से उठने वाली मांगों के लिए तीन बातें ख़ास तौर पर जिम्मेदार हैं। पहली वजह जाति और धर्म के आधार पर देश के सामाजिक ताने-बाने का राजनीतिकरण होना है। पिछले कुछ सालों में क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ा है, जो लोगों की भावनाओं को भड़काकर मांग को आंदोलन का स्वरूप देने लगे हैं। चुनावी राजनीति में बड़े दल भी अपने क्षेत्रीय एजेंडे के तहत अलगाववाद की भावना को बढ़ावा देने में पीछे नहीं हैं! दूसरा कारण है देश में एक समान विकास का अभाव! ऐसी स्थिति में यह भावना प्रबल हो जाती है कि अलग राज्य होने की स्थिति में क्षेत्र और वहां के लोगों के विकास की गति तेज होगी! क्योंकि, ये आम धारणा है कि विकसित इलाकों में निजी निवेश होता है, जिससे इलाके का विकास होता है। पिछड़े इलाके विकास की दौड़ में इसलिए और पिछड़ते रहते हैं!
अपने लिए अलग राज्य की मांग का समर्थन करने वालों के पास अपनी दलीलें हैं। मांग का समर्थन करने वाले कहते हैं कि छोटे राज्यों से सुशासन सुनिश्चित करने के अलावा विकास की गति भी तेज हो सकती है। गोरखा आंदोलन से जुड़े नेताओं का कहना है कि राजधानी से दूर होने की वजह से सरकार और प्रशासन का ध्यान इलाके की समस्याओं और विकास की ओर नहीं जाता। इन आंदोलनकारियों का ये भी कहना है कि छोटे राज्यों की विकास दर दूसरे राज्यों से बेहतर है। अपनी बात के समर्थन में वे छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड का हवाला देते हैं जिनकी औसतन सालाना वृद्धि दर दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान अपने मूल राज्यों (जिनसे अलग होकर उनका गठन हुआ था) के मुकाबले बेहतर रही। ऐसी मांगों का विरोध करने वाले इस देश की एकता व अखंडता पर खतरा मानते हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कहना है कि दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र बंगाल का अभिन्न हिस्सा रहा है। कुछ इलाके को मिलाकर यदि गोरखालैंड बना भी दिया गया, तो संसाधन कहां से आएंगे? छोटे राज्यों के गठन से राजनीतिक व सामाजिक अस्थिरता भी बढ़ेगी! झारखंड इसका ताजा उदाहरण है जहां हर साल सरकार गिर या बदल जाती है। लेकिन, सिर्फ राजनीतिक अस्थिरता को आधार बनाकर छोटे राज्यों के पक्ष को नकारा नहीं जा सकता!