Census Results not Expected Soon : जनगणना के नतीजे जल्दी आने की उम्मीद मत कीजिए, इससे जुड़ेगा परिसीमन का मुद्दा! 

अगला परिसीमन 2026 के बाद होने वाली पहली जनगणना के नतीजों के आधार पर होगा!

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Census Results not Expected Soon : जनगणना के नतीजे जल्दी आने की उम्मीद मत कीजिए, इससे जुड़ेगा परिसीमन का मुद्दा! 

New Delhi : जनगणना को लेकर लगातार देरी हो रही है। यही वजह है कि यह जनगणना देश के इतिहास में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई। सरकार ने 4 जून को जनगणना की घोषणा की। इसके अनुसार, मकानों की लिस्टिंग का काम अप्रैल से सितंबर 2026 के बीच होगा। लोगों की गिनती फरवरी 2027 में की जाएगी। जनगणना के लिए 1 मार्च, 2027 की तारीख तय की गई है।

भविष्य में, लोकसभा क्षेत्रों का सीमांकन इसी जनगणना के आधार पर होगा। 84वें संशोधन में राज्यों के लिए लोकसभा सीटों की संख्या 1971 की जनसंख्या के आधार पर तय की गई थी। इसमें कहा गया था कि परिसीमन 2026 के बाद होने वाली पहली जनगणना के नतीजों के आधार पर होगा।

आखिर जनगणना की इतनी चर्चा क्यों

जनगणना में देरी का कारण कोविड नहीं है, कुछ लोगों का मानना है। यह सब राजनीतिक फायदे के लिए किया जा रहा है। बीजेपी को लगता है कि जनगणना से जनसंख्या में बदलाव का पता चलेगा। इससे हिंदी भाषी राज्यों को लोकसभा में ज्यादा सीटें मिलेंगी और दक्षिण के राज्यों को कम। जनगणना का राजनीतिक महत्व सिर्फ लोकसभा क्षेत्रों के सीमांकन से ही नहीं जुड़ा है। महिलाओं के लिए आरक्षण का बिल भी मोदी सरकार ने पास किया था। यह बिल भी सीमांकन के बाद ही लागू होगा। इसके अलावा, इस जनगणना में जाति की गिनती भी की जाएगी।

नतीजों के आने में समय लगेगा 

सवाल यह है कि क्या जनगणना फरवरी 2027 में पूरी होने के बाद और नतीजों के जारी होने के बीच का समय काफी होगा? क्या 2029 के आम चुनावों से पहले जरूरी बदलाव किए जा सकेंगे? अगर मान भी लें कि नतीजे 2027 के अंत तक आ जाते हैं, तो क्या परिसीमन का काम एक साल में पूरा हो पाएगा! इस बीच, जनगणना की शुरुआती जानकारी मीडिया में लीक होने लगेगी। जिन राज्यों को लोकसभा में कम सीटें मिलेंगी, वे राजनीतिक विरोध करेंगे। सरकार के लिए इसे अनदेखा करना मुश्किल होगा।

जनगणना से जुड़े इन मुद्दों चर्चा 

ऐसे में तीन बड़े मुद्दे सामने हैं। क्या इतनी जल्दी राजनीतिक सहमति बन पाएगी? ऐसा लगता है कि जनगणना के बाद होने वाला चुनावी बदलाव 2029 के आम चुनावों से पहले लागू नहीं हो पाएगा। मोदी सरकार के पास बहुमत नहीं है। दक्षिण के कई सहयोगी दल – TDP, JDS और ADMK इसके लिए शायद शुरुआत में सहमत न हों। शुरुआती अनुमानों के बावजूद, नतीजे अनिश्चित या अप्रत्याशित हो सकते हैं। यह मानना कि बीजेपी को परिसीमन से ज्यादा फायदा होगा, ये पूरी तरह से सही नहीं है।

परिसीमन पर भी जनगणना के साथ चर्चा 

अगर बीजेपी दक्षिण में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती है, तो उसे साउथ के राज्यों की चिंताओं को सुनना-समझना होगा। जनगणना के बाद इन राज्यों की जनसंख्या का हिस्सा कम हो जाएगा। दूसरा, भले ही विपक्ष संसद में दक्षिण से उत्तर की ओर शक्ति के बदलाव को स्वीकार न करे, लेकिन उसकी एकता को हल्के में नहीं लिया जा सकता। उत्तर और पूर्व में, कई क्षेत्रीय पार्टियां – समाजवादी पार्टी, आरजेडी, बीजेपी और यहां तक कि कांग्रेस भी परिसीमन का खुलकर विरोध नहीं कर सकतीं।

अगर जेडीयू-बीजेपी गठबंधन, बिहार में मुश्किल चुनाव का सामना करते हुए, परिसीमन को मुद्दा बनाते हैं, तो क्या कांग्रेस और आरजेडी अपना रुख बदलेंगे? सीमांकन से बिहार को केंद्र में ज्यादा प्रतिनिधित्व मिलेगा। अगर कांग्रेस 200 से ज्यादा सीटें जीतकर केंद्र में वापस आना चाहती है, तो उसे ज्यादातर सीटें उत्तर से ही मिलेंगी। यही बात INDIA गठबंधन के संभावित सहयोगियों पर भी लागू होती है।

तीसरा, जनगणना के नतीजे चाहे जो भी हों, अगले परिसीमन में SC-ST के लिए ज्यादा सीटें आरक्षित की जाएंगी। जनसंख्या में उनका हिस्सा बढ़ सकता है। क्या ये समूह इस मामले को और आगे बढ़ाना चाहेंगे? पिछले परिसीमन में, लोकसभा की कुल सीटें 543 पर स्थिर थीं। लेकिन SC और ST की सीटें बढ़ गईं। उनकी सीटें 1991 की जनगणना के आधार पर तय की गई, जबकि बाकी सीटें 1971 के आधार पर।

चौथा, महिलाओं के लिए आरक्षण को लोकसभा सीटों की संख्या में भारी वृद्धि किए बिना लागू करना मुश्किल है। अगर ऐसा नहीं किया जाता है, तो मौजूदा सांसदों में से एक तिहाई सीटें महिलाओं को चली जाएंगी। इससे सभी पार्टियों में नाराजगी होगी।

पांचवां, जाति की गिनती से शिक्षा और नौकरियों में ज्यादा आरक्षण की बात होगी। आरक्षित सीटों की संख्या को 49 फीसदी की सीमा से आगे बढ़ाने की मांग उठेगी। यह सीमा सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले में तय की थी। यह सीमा पहले ही टूट चुकी है।

सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 फीसदी अतिरिक्त आरक्षण को स्वीकार कर लिया है। तमिलनाडु में पहले से ही 69 फीसदी आरक्षण है, जिसे संवैधानिक सुरक्षा मिली हुई है। दबाव बढ़ेगा कि इस सीमा को और बढ़ाया जाए और निजी क्षेत्र में भी आरक्षण दिया जाए। क्योंकि ज्यादातर नौकरियां वहीं पैदा होंगी।