कुर्सी विष व्याप्त नहीं ….

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आज बात करते हैं कुर्सी की. हमारे पूर्वजों ने चिंतन, मनन के बाद बहुत कुछ लिखा. आगे भी लिखा जाएगा, लेकिन अब्दुल रहीम खानखाना ने जो लिखा वो सबसे अलग है. वे कहते हैं-

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।

चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥

रहीम साहब के जमाने में चंदन की ही उपमा दी जा सकती थी, सो उन्होंने दी. वे यदि आज हमारे बीच होते तो लिखते-

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।

‘कुरसी’ विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥

रहीम साहब के जमाने में कुर्सी और चंदन के बीच सचमुच भेद था, आज नहीं है. आज चंदन के वृक्ष ही कहाँ हैं, जो थे उन्हें वीरप्पन साहब ने समाप्त कर दिया. अड़ मुल्क में चंदन के वृक्षों से जायदा कुर्सियां हैं. कुर्सियों का कलिकाल में महत्व घटने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है. कुर्सी के लिए केर-बेर का संग भी सहज स्वीकार्य है. कुर्सी हासिल करने के लिए कोई न जात-पात देखी जाती है और न ऊँच-नीच. छोटा-बड़ा सब काम आ जाता है. कुर्सी सर्वव्यापी और सर्व ग्राही वस्तु है.

द्वापर में कुर्सी के लिए महाभारत हुआ लेकिन त्रेता में भी हुआ किन्तु महाभारत नहीं हो पाया. कलियुग में कुरसी के लिए महाभारत को दल-बदल कहा जाता है. जनता कोई भी आदेश [जनादेश] देती रहे किन्तु होता वो ही है जो नेताओं के मन में होता है. कलियुग में राम के साथ कुर्सी भी एक बड़ा आधार है. आधार कार्ड से भी बड़ा आधार. आपके पास आधार कार्ड हो या न हो लेकिन कुर्सी जरूर होना चाहिए. कलियुग में कुरसी से वंचित लोग अभागे माने जाते हैं.

बात कुर्सी से लिपटने वाले भुजंगों की थी. कुर्सी से एक से बढ़कर एक भुजंग लिपटे रहते हैं किन्तु कुर्सी आज तक विषाक्त नहीं हुई. कुर्सी का गन है कि वो सब कुछ झाड़-पोंछकर साफ़ कर देती है. इसलिए कुर्सी का संग सुसंग कहा जाता है. जन सेवा के लिए कुर्सी पहली जरूरत है. हर जनसेवक की और हर राजनीतिक दल की. हर दल कुर्सी प्रधान होता है. जो नहीं होता उसका कोई प्रधान नहीं होता, कोई विधान नहीं होता.

कुर्सी इतनी महत्वपूर्ण चीज है कि न केवल इसके किस्से मशहूर होते हैं अपितु कुरसी को लेकर ‘किस्सा कुरसी का’ जैसी फ़िल्में भी बनाई जाती हैं. पहले भी बन चुकी हैं, आज भी बन रही हैं और कल भी बनेंगीं अर्थात कुर्सी सर्वकालिक आवश्यक वस्तु है. दुनिया के किसी भी हिस्से में जाइये आपको किस्सा कुर्सी का देखने को अवश्य मिल जाएगा. कुछ लोग कुर्सी के लिए बेहद निर्मम होते हैं तो कुछ अति विनम्र. कुछ कुरसी के लिए कीचड़ में भी उतर जाते हैं भले ही कपड़ों की लकदक चली जाये.

दुनिया गोल है और बड़ी भी, इसलिए सब जगह कुरसी चरित्रम एक जैसा है. बस आकार का फर्क होता है. कहीं कुरसी को सिंघासन कहते हैं तो कहीं मयूरासन, अनपढ़ लोग कुरसी को तख्त भी कह देते हैं और कुछ तख्ते ताऊस भी. लेकिन सबका मतलब एक ही होता है, यानि कुरसी, कुरसी हो या तख्त आती बैठने के काम ही है. इसके ऊपर बैठकर ही राजकाज चलाया जाता है. आज तक आपने किसी को चबूतरे पर बैठकर राजकाज करते हुए देखा है!

कुर्सी का कोई लिंग नहीं होता, कुरसी स्त्री लिंग भी है और पुल्लिंग भी. कहीं-कहीं उभयलिंग भी. कुर्सी की पूजा सब जगह की जाती है. कुरसी हासिल करना कुर्सी का अभिषेक करने जैसा ही होता है. जब कुरसी अभिषेक होता है तो दूर-दूर से मेहमान बुलाये जाते हैं. आस-पड़ोस से भी. पहले कुरसी अभिषेक नितांत निजी कार्यक्रम हुआ करता था, लेकिन अब ये कार्यक्रम सार्वजनिक हो चला है. इसके लिए बागीचों में बड़े-बड़े मंच सजाये जाते हैं. इन समारोहों में कुरसी प्रेमी नेता शोभायमान होते हैं.

कुरसी का अभिषेक होता है तब हमारे पंत प्रधान तक इसमें शामिल होते हैं, होना पड़ता है. कुरसी जब खाली होती है तो उसे भरने के ख़ास तरीके होते हैं. त्रेता युग में राम की कुरसी को ग्रहण लगा था. द्वापर युग में पांडवों की कुर्सी को. कलियुग में कांग्रेस की कुरसी को ग्रहण लगा हुआ है. कुछ कुर्सियां शुभ होती हैं तो कुछ शापित कुर्सियां. इसीलिए आपने देखा होगा कि मंत्रीगण कुरसी पर बैठने से पहले मुहूर्त निकलवाते हैं. कुरसी को गंगाजल से धोकर पवित्र किया जाता है.

हमारे वैज्ञानिक कुर्सी के अजर-अमर होने को लेकर शोध कर रहे हैं, काम अभी जारी है. वैज्ञानिकों से कहा गया है कि वे केवल ऐंटी टॉक्सिक कुर्सी बनाएं ताकि किसी को भी कुर्सी से परेशनी न हो. कोशिश की जा रही है कि कुरसी को ऐसा रूप दिय जाये कि वो प्रयोज्य बनी रहे. अप्रासंगिक न हो. कलयुग केवल कुर्सी आधारित है. इसका सुमरन करके ही आप पार उतर सकते हैं. कुर्सी सबके भाग्य में नहीं होती. नेता चाहे पक्ष का हो या विपक्ष का कुर्सी के बिना रहने को तैयार नहीं है. आपके पास कोई ऐसा नेता नजर आये तो हमें जरूर बताइये.

गांधीजी अक्सर कुर्सी से दूर ही रहते थे. वे पारम्परिक गद्दी और गायब तकिया लगाकर बैठते थे. लोगों को लगे या न लगे लेकिन मुझे लगता है कि दुनिया में कुर्सी का भविष्य हमेशा उज्ज्वल रहने वाला है. कुर्सी चाहे लोकतंत्र की हो चाहे किसी और तंत्र की, किसी न किसी रूप में पूजनीय है, क्योंकि कुर्सी के रूप अनेक हैं. जिस पत्थर पर बैठकर विक्रमादिय ने उज्जयनी में राज किया वो भी एक कुर्सी ही थी. कुर्सी में करेंट होता है. मरियल से मरियल नेता भी लाल होकर उतरता है. उतरता कोई नहीं हाँ उतारा जाता है.