Chhaava Movie: मोहतरमा को massacre /murder और Stampede में अंतर नज़र नहीं आता?

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Chhaava Movie: मोहतरमा को massacre /murder और Stampede में अंतर नज़र नहीं आता? 

मोहतरमा को सचमुच अभेद बुद्धि हासिल हो गई है।उन्हें छावा में औरंगज़ेब के संभाजी और भारतीयों पर ढाये गये अत्याचारों का, वास्तविकता की तुलना में एक अत्यंत अल्पकथित ( understated) बात का, प्रदर्शन और भगदड़ दोनों समान नज़र आते हैं।
कौन-से विश्वविद्यालय को इन्होंने पढ़कर गौरवान्वित किया कि इन्हें massacre /murder और Stampede में अंतर नज़र नहीं आता?
गीता में भगवान कृष्ण ने और भारतीय दंड संहिता ने अपराध के मूल में दुर्मेधा या दुष्प्रेरण को आधार बनाया। Mens rea को। criminal intent को। actus reus ही काफी नहीं है। आपराधिक मानस – guilty mind- भी आवश्यक है।
एडवर्ड कोक ने इसे यों बताया था: actus non facit reum nisi mens sit rea अर्थात् : “an act does not make a person guilty unless (their) mind is also guilty”
यह मन और कर्म दोनों का होना है। सिर्फ सोचते रहो तो अपराध नहीं है। वह संघटना हो और सोच हो उस अपराध की – दोनों की संयुक्ति हो तब culpability होती है।

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और वह actus reus ऐच्छिक होना चाहिये। भगदड़ reflex है, convulsion है पर वह सोच के शिल्प और तक्षण से नहीं होती।
सो इतनी मूलभूत बात न जानने वाली मोहतरमा डिग्री कैसे हासिल कर लेती हैं? ऐसे ब्रेन डेड को भी डिग्री मिल जाती है।
औरंगजेब ने जो किया, वह एक ‘दुष्पूरणानलेन’
दूषित विचार का परिणाम था। वह एक दुर्नीति थी।नरसंहारों को सांयोगिक बनाना कल्पना की खींचतान से भी संभव नहीं है।
वो विचार मात्र ही कितना दूषित है जो किसी भी अन्य ईश-आस्था के व्यक्ति या समाज को नष्ट करना चाहता है।
लेकिन वह विचार मध्यकालीन आक्रामकों ने कर्मानूदित कर दिया। औरंगजेब के समय में वह अपने चरम पर पहुँचा।
उन Gory details को सेंसर की अंतर्हित सीमाओं के चलते किसी फ़िल्म में नहीं दिखाया जा सकता। सच बेहद भयावह है। आधुनिक दर्शक की संवेद्यताओं के बहुत बाहर।विशेषकर उस दर्शक की जिसकी हिंसा में कोई ट्रेनिंग बचपन से ही नहीं होती।
इसलिए फिल्म में फिक्शनलाइजेशन किया गया है पर वह इसलिए कि फैक्ट फिक्शन से बहुत क्रूर है।
हाँ, हमें मालूम है कि औरंगजेब के टोपी सिल सिल कर जीने की सादगी और क़ुरान की प्रतियाँ बेचकर जीने के पाठ हमें भी पढ़ाये गये।
औरंगजेब के जनसंपर्क विभाग में काम करने वाले dead थोड़े हुए थे। वे तो हमारे पाठ्यक्रम बनाने वाले बने। ब्रेन डेड और soul-dead तो वे थे, पर ऐसे dead नहीं थे। zombies ऐसे ही होते हैं।
आपराधिक सोच को एक रिफ्लेक्स से समीकृत वही कर सकते हैं।
उन्हीं के लिए गंभीरता का मानदंड ‘टाइमलाइन’ है। जो अभी मृत्यु को प्राप्त हुए, बस वेदना उन्हीं के लिए। अन्य किसी के लिए नहीं। ऐसे कि वेदना का भी चयन हो। कि एक पर दुःखी होना दूसरे पर दु:खी होने के विरुद्ध एक निषेधाज्ञा हो।
और ‘वर्तमान’ कब शुद्ध वर्तमान है? एक निमिष और आप व्यतीत हो जाते हो?
और ‘वर्तमान’ की यह ‘टाइमलाइन’ भी सेलेक्टिव ही है। इसमें भारत की भगदड़ पर दुःख है पर पड़ोस के हत्याकांडों पर नहीं।
पर मैं फिल्म में औरंगजेब के अत्याचारों के वर्णन को heavily embellished कहने वाली इन मोहतरमा के द्वारा अपने कथन को उचित ठहराने वाले किसी ऐतिहासिक प्रमाण की प्रतीक्षा करता ही रहा।
वे मिलेंगे नहीं क्योंकि अत्याचारों को छिपाने वाली आधुनिकता तो वर्तमान की चीज़ है, उस समय तो वह गाज़ी होने का गौरव माना जाता था। तो स्वयं तत्कालीन दरबारी इतिहासकारों ने इसे पूरे अहं के साथ घोषित किया है।
ऑड्रे ट्रुश्के जिस कार्य में सफल नहीं हुए, उस कार्य में मोहतरमा कैसे सफल हो जायेंगी?
Heavily embellished अंग्रेज़ी निपट फारसी से पराजित हो जाती है।
एक Historical denialism है। राजनीतिक denial चलते हैं पर ऐतिहासिक denial एक आत्मप्रवंचनाकारी फंतासी में रहकर ही किये जा सकते हैं। उनका निराकरण उस व्यक्ति के कुछ दूसरे अच्छे काम गिनाकर नहीं होता। उन अपकर्मों को असिद्ध करके ही होता है।
Historical revisionism और Historical denialism में फर्क है। गड़े मुर्दे उखाड़ना बुरा है तो गड़े मुर्दों का श्रृंगार करना कैसे अच्छा हो जायेगा ?
होलोकास्ट का denial दुनिया के कई देशों में अपराध घोषित किया गया है। क्योंकि आप आत्म-प्रवंचना के सुख-स्वप्न में रह लें पर दूसरों को छलने का कोई मौलिक अधिकार थोड़े ही आपको मिल गया है ? सच कड़वा हो तो झूठ का नशा नहीं कर लिया जाता।
किन किन चीज़ों से इंकार करोगे? गुरु तेगबहादुर सोलह ब्राह्मणों के साथ अत्याचारों का विरोध करने निकले तो उन्हें गिरफ़्तार किया गया और सबके द्वारा धर्म बदलने से मना करने पर उन्हें जो यातनाएँ दी गईं और उनका सर कलम किया गया उनका भी ? नवंबर 1675 में मतिदास को बीच से चीर देने का भी? दयाल दास को जिंदा खौलते पानी में उबालकर मार डालने का भी? सती दास को जिंदा जला देने का भी? मंदिरों को ढा देने का? स्कूलों को गिरा देने का? ग़ैर मुस्लिमों की तरह वस्त्र पहनने वाले मुसलमानों को दंडित करने का भी? सूफ़ी सरमद काशानी को मरवा डालने का भी? नौरोज़ सहित सभी गैर-इस्लामिक पर्वों को बंद करवाने का भी?
ना ना कहते ये अपनी विश्वसनीयता खो बैठे हैं। थक भी जायेंगे।
मोहतरमा भारत में हैं। और जैसा कि हम पहले कह चुके हैं उन्हें अपराध और दुर्घटना के बीच अद्वैतसिद्धि की विलासिता उपलब्ध है।

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पूर्व वरिष्ठ IAS अधिकारी और साहित्यकार मनोज श्रीवास्तव की फेसबुक वाल से 

meediawala.in के सम्पादक की और से ——

संभवत यह पोस्ट स्वरा भास्कर के ‘छावा’ पर विवादित ट्वीट को लेकर लिखी गई है।  भास्कर ने अपनी एक पोस्ट में ‘छावा’ को लेकर दर्शकों की प्रतिक्रिया की तुलना महाकुंभ में हुई भगदड़ की घटना पर लोगों की प्रतिक्रिया से की थी.स्वरा की पोस्ट वायरल हुई और यूजर्स ने इसे भारतीयों की भावनाओं को आहत करने वाला बताया।

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स्वरा ने किया था ये पोस्ट

अपनी पहली पोस्ट में स्वरा भास्कर ने लिखा था, ‘एक समाज 500 साल पहले हिंदुओं पर हुए अत्याचार को काल्पनिक फिल्मी रूप से दिखाने पर गुस्सा है. लेकिन उनमें भगदड़ और खराब बंदोबस्त की वजह से जाने वाली जानों को लेकर कोई आक्रोश नहीं है. बुलडोजर से मृतकों को हटाने पर कोई गुस्सा नहीं है. उस समाज का दिमाग और आत्मा मर चुकी है.’ इस पोस्ट को ‘छावा’ फिल्म से जोड़कर देखा गया, जिसमें विक्की कौशल ने छत्रपति संभाजी महाराज का किरदार निभाया है.

 

एक्ट्रेस ने दी सफाई

ये पोस्ट वायरल हुई और स्वरा को यूजर्स की तीखी प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ा. ऐसे में ट्रोलिंग के बाद स्वरा भास्कर ने अपनी पोस्ट पर सफाई दी है. स्वरा ने लिखा, ‘मेरे ट्वीट से बहुत ज्यादा बहस और गलतफहमी फैल गई.