

Chhaava (छावा):कितने सुधि दर्शक होंगे जिन्होंने शिवाजी सावंत का नॉवेल पहले पढ़ा होगा उसके बाद फिल्म देखने गए होंगे?
प्रवीण दुबे
छावा मैंने कॉलेज के दिनों में ही पढ़ ली थी..इस पर बनी मूवी देखने की बहुत इच्छा थी आख़िरकार कल मिल पाया वक्त…शिवाजी सावंत साहब क्या क़माल लिखते थे… उनका हर नॉवेल आँखों के आगे चित्र सा खींचता चलता है..उसका एक हिस्सा ही बमुश्किल फिल्म में देखने को मिला होगा…मगर इसके बावज़ूद फ़िल्म देखने लायक तो है..
छत्रपति शिवाजी महाराज की वीरता के क़िस्से शम्भा जी ने सिर्फ सुने नहीं थे बल्कि वे बचपन से उसके साक्षी रहे हैं…एक क़िस्सा मैंने कहीं पढ़ा था कि बचपन में जब वे अपने पिता जी महाराज के साथ औरंगज़ेब की कैद में थे, तो नन्हे शम्भा जी ने दरबार में आकर भी मुज्जफर मुहीउद्दीन मोहम्मद उर्फ़ औरंगजेब को झुककर सलाम नहीं किया था…उनकी वीरता को फ़िल्म में दिखाया तो क़माल है लेकिन शम्भा जी के किरदार में मुझे पूरी तरह से फिट नहीं दिखे विकी कौशल..बायोपिक का शौक उन्हें बेशक है लेकिन कहीं कहीं उनके अभिनय में अतिरंजना है..दादा Ashutosh Rana का अभिनय क़माल का था कहना सूर्य को दीपक दिखाने जैसा है, वो तो जी जाते हैं अपने रोल को…वे हम्बीर राव मोहिते की भूमिका में हैं, जो बड़े महाराज के वक्त से ही सेना के प्रमुख भी थे और बड़े महाराज के साले साहब भी थे.. क़माल का अभिनय बहुत कम सम्वाद बोलकर किया अक्षय खन्ना ने जो औरंगज़ेब की भूमिका में हैं…इसमें कोई दो राय नहीं कि औरंगज़ेब बहुत काइयां, धूर्त,कुटिल,चरम तक क्रूर और सनकी होने के अलावा बहादुर दिलेर भी था..मराठों से उसे सख्त नफ़रत थी और अपनी आयु का तकरीबन आधा हिस्सा उसने दख्खन जीतने की ज़िद में लगा दिया फिर भी अपने मरने तक जीत नहीं पाया…. फिल्म के अंत को लेकर मेरे एक मित्र की राय थी कि क्लाइमेक्स लंबा कर दिया…मैं उससे थोडा असहमत इसलिए भी हूँ कि शम्भा जी महाराज की यातना के दिन भी 12 थे उस लिहाज़ से क्लाइमेक्स लंबा स्टोरी की मांग के अनुरूप था..कुछ बातें मैं इस फिल्म को लेकर कहना चाहता हूँ…फिल्म के साथ आम दर्शक तादाम्य बना सके ऐसे कोई जतन इस फिल्म में नहीं किये गए (शुरुआत में अजय देवगन की कमेंट्री के अलावा) सवाल ये है कि ऐसे कितने सुधि दर्शक होंगे जिन्होंने शिवाजी सावंत का नॉवेल पहले पढ़ा होगा उसके बाद देखने गए होंगे..जिन्होंने नहीं पढ़ा उन्हें किरदार को समझाने के कुछ उपक्रम होने चाहिए थे…मराठों पर बनी जितनीभी फ़िल्में थीं, मसलन: पानीपत, बाजीराव मस्तानी थीं उनमें प्रवाह था..दर्शक को वो गणित के जटिल सवाल जैसा नहीं लगा..ये फिल्म वैसे पिरो कर नहीं प्रस्तुत हुई, जैसी वांछित थी..शम्भा जी के बारे में महाराष्ट्र के लोग तो जानते हैं लेकिन देश के बाकी हिस्सों के मराठी भी उनकी वीरता के एक एक गुण से शायद परिचित नहीं होंगे….मगर फिर भी इसे देखना चाहिए…देखना इसलिए भी चाहिए क्यूंकि मैं Kailash Vijayvargiya जी के बयान से सहमत हूँ कि यदि छत्रपति शिवाजी महाराज और उनका परिवार नहीं होता तो आज वे कलमुद्दीन के नाम से पहचाने जा रहे होते…मुग़ल क्रूर थे पितृ हंता थे, बुत शिकन थे और औरंगज़ेब उनमें अव्वल नंबर क्रूर और कट्टर था… उसके बारे में कहा जाता है कि वो अपनी टोपियाँ ख़ुद बुनता था..फिल्म में ये एकाध जगह दिखाने के बाद डायरेक्टर साहब फिर भूल गए…हालांकि छावा पढ़कर जो अक्श लोगों के दिमाग़ में औरंगज़ेब का उभरा होगा, उसे गज़ब तरीके से निभाया अक्षय खन्ना ने.. एक बात और मैंने कहीं पढ़ी थी कि जीनत महल मोहित थीं शिवाजी महाराज पर और पिता से एकतरफ़ा प्रेम के चलते उनके बेटे शम्भा जी को भी प्यार करती थी…वो बाद में बेशक इस्लाम के प्रचार वाली मुहिम के कारण औरंगज़ेब की प्रिय बेटी बनी ज़रूर मगर मैंने ये नहीं पढ़ा कहीं कि जीनत ने ही हुक्म दिया हो कि शम्भा जी को नाख़ून निकालने या आँख फोड़ने वाली जैसी यातना दी जाए,जो इस फिल्म में है…खैर…फिर भी मैं कहूँगा कि देखिए ज़रूर फिल्म ये हमें क्रूर मुगलों की यातनाओं से बावस्ता कराती है…मगर इसका तर्जुमा किसी ख़ास कौम के लिए नहीं होना चाहिए क्यूंकि दगाबाज़ी, बेईमानी और धोखा किसी मज़हब, किसी धर्म का मोहताज नहीं होता ये सिर्फ व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से उपजा हुआ विकार है…मराठों को तो जब जब भी पराजय मिली किसी अपनों के धोखे के कारण ही मिली…जैसे मैं कैलाश जी की बात सहमत हूँ वैसे ही असदुद्दीन ओवैसी की बात से भी सहमत हूँ कि शिवाजी महाराज आम मुस्लिमों से नफ़रत नहीं करते थे, क्रूर मुगलों से करते थे..पानीपत के तीसरे युद्ध में सदाशिव भाऊ के जो तोपची थे, वे इब्राहिम गर्दी भी मुसलमान ही थे…बहरहाल, फिल्म देखने लायक़ अभी भी है लेकिन थोड़ी और रोचक बन सकती थी..ये मेरी व्यक्तिगत राय है.
वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण दुबे की फेसबुक वाल से