Congress without PK: न तुम जीते, न हम हारे, तो क्या खोया, क्या पाया?
कांग्रेस अब चुनाव प्रंबधन गुरु प्रशांत किशोर की सेवायें नहीं लेंगी। ऐसा इसलिये कि पीके कांग्रेस का भला करने नहीं अपना कद बढ़ाने और राजनीतिक महत्वाकांक्षी की पूर्ति करने आ रहे थे, जबकि कांग्रेस और गांधी परिवार सहित उनके नजदीकी कांग्रेसी नेता यह मानकर चल रहे थे कि वे पीके की सेवायें लेकर कांग्रेस का थोड़ा-सा कद बढ़ा लेंगे।
यह ऐसा ही है कि जनता जनार्दन शाही शादी के नजारे देखने का ख्वाब संजोये थी, किंतु यहां तो बैंड, बाजा, बराती जैसा भी कुछ नहीं हुआ। दोनों ने ही जल्दबाजी की।
दोनों ही साथ आने को जितने उतावले थे, उससे कहीं अधिक बेसब्री अलग हो जाने की थी। भारतीय राजनीति में इतना तेज घटनाक्रम पहले शायद ही घटा हो।
कहने को 1985 में मप्र विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिलने के बाद दोबारा अजुर्नसिंह का मुख्यमंत्री बनना सुनिश्चित होने के बावजूद ऐन वक्त उन्हें पंजाब का राज्यपाल बनाकर रवाना कर दिया गया, जिसकी सनसनी बरसों बनी रही, लेकिन तब कांग्रेस बेचारगी के दौर में नहीं थी।
यूं कहें तो वर-वधु पक्ष ने एक-दूसरे के प्रति जबरदस्त आकर्षण के चलते ही देखा-देखी तय की थी, लेकिन वधु पक्ष के दर्जन भर फूफाओं को न साध पाने की वजह से सेहरा बांधने से प्रशांत किशोर तो चूके ही, कांग्रेस ने तो ऐसा जता दिया कि वह तो शादी जैसे पवित्र गठबंधन में ही यकीन नहीं करती। जबकि इससे पहले वह खुद ही अनेक स्वयंवर आयोजित कर चुकी है। बहरहाल।
कांग्रेस के साथ सबसे बड़ी मुश्किल ही यह है कि वह सही समय पर कठोर फैसले लेने में हिचकिचाती है। भूख लगने पर शिकार के वक्त शेर यह नहीं देखता कि मरने वाले से उसे कितने किलो गोश्त मिलेगा। जबकि कांग्रेस नीतिगत फैसलों की घड़ी में चूक करती जाती है और हर शिकस्त के बाद रांडी-रोना कर आगे बढ़ जाती है।
कांग्रेस यदि प्रशांत किशोर को साथ जोड़ लेती तो उसे फायदा होता या नहीं या कितना होता, यह तो बेहद बाद में पता चलता, किंतु इन दोनों के साथ न आने से उसे जो नुकसान हुआ है, इसका आकलन कांग्रेस या सोनिया गांधी के सिपहसालार यकीनन नहीं कर पाये।
यदि पहले मोल-तौल ही करना था तो कांग्रेस को इतना बड़ा जमावड़ा करने की जरूरत नहीं थी। हो सकता है, यह सब अतिरिक्त प्रचार पीके ने किया हो, ताकि गठबंधन कांग्रेस की मजबूरी या जरूरत बन जाये।
यह मसला अहम से जुड़ा ज्यादा नजर आता है। इसका नुकसान तो पीके को भी उठाना पड़ेगा ही। इससे कहीं अधिक फायदा विपक्ष याने भारतीय जनता पार्टी उठाना चाहेगी और उठायेगी भी।
संचार क्रांति के युग में सारी बाचतीच आमने-सामने बैठकर ही हो, जरूरी नहीं । तब दोनों पक्षों ने किस मानसिकता के साथ सीधे कांग्रेस मुख्यालय का रूख किया, समझना कठिन है।
यदि बाले-बाले बातचीत चलती रहती तो अटकलें चलती जरूर, किंतु थुक्का-फजीहत से बच जाते। राजनीतिक दल गठजोड़ के लिये मिलते रहते हैं और कभी बात बनती है तो कभी नहीं भी बनती। लेकिन प्रशांत किशोर के साथ अलग मसला है।
वे संभवत यह मानकर चल रहे थे कि कांग्रेस उनके आगे नत मस्तक हो जायेगी और यही सबसे बड़ी गलती पीके भी कर गये। वे भूल गये कि शेर बूढ़ा भी हो जाये तो घास खाना शुरू नहीं कर देता।
भले ही वह किसी दूसरे के शिकार का बचा हिस्सा खाये, लेकिन खायेगा गोश्त ही।
दरअसल पीके-कांग्रेस का गठबंधन न हो पाना अहम से जुड़ा मसला हो सकता है। कांग्रेस यह मानकर चल रही होगी कि पीके उसका चुनाव प्रबंधन देखेंगे और बदले में धन के साथ कोई पद भी चाहेंगे।
इतना कुछ देने में तो कांग्रेस को भी शायद ही परहेज होता। बताते हैं कि कांग्रेस उन्हें महासचिव बनाने तैयार भी थी।
लगता है पीके की अतिरेक भरी ख्वाहिशों ने एक-दूसरे का रास्ता रोका होगा। कांग्रेस के साथ दिक्कत यह है कि वह प्रयोगधर्मिता से बचती है।
खासकर, गांधी परिवार को एक तरफ रखकर सोचा गया उसे कतई मंजूर नहीं। इस बात का ज्यादा बुरा अन्य कांग्रेसियों को भी लगता है। यही हुआ भी।
पीके ने उपाध्यक्ष बनने की शर्त यह रखी कि वे कार्य समिति प्रभारी रहेंगे तो तमाम दिग्गज उखड़ गये और गांधी परिवार की भृकुटी भी तननी ही थी।
पीके ने राहुल गांधी को भी सिरे से खारिज किया था, जो नापसंद किया गया। वे संभवत कांग्रेस के मनमाने संचालन की परिकल्पना लेकर गये होंगे, वह भी भारी पड़ा होगा।
बड़ी गफलत तो यह रही होगी कि वे प्रबंधन गुरु के खोल से बाहर नहीं निकले होंगे और प्रकारांतर से यह जताना चाह रहे होंगे कि वे कांग्रेस के तारणहार साबित हो सकते हैं। तो ऐसा तो अब गांधी परिवार भी शायद ही सोचता हो।
इतनी सारी और लगातार नाकामी के बाद इतना उदार सोच तो सोनिया, राहुल, प्रियंका का भी हो गया होगा कि वे कांग्रेस को शिखर पर तो नहीं ले जा पायेंगे, ऐसा लगता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि पीके के आने से कांग्रेस के प्रति मतदाताओं का समर्थन भले न बढ़़ता, लेकिन तब तक भाजपा की धुकधुकी बनी रहती। फिर कांग्रेस को नैतिक बल भी बढ़ता।
कार्यकर्ताओं का मनोबल भी बढ़ता। फिर 2024 के आम चुनाव में अपेक्षित परिणाम न मिमने पर गांधी परिवार के सिर ठीकरा फूटने से भी बचता। प्रमुख बात तो यह कि इस सौदेबाजी से कांग्रेस कुछ लेकर ही उठती।
गांधी परिवार अपने ही पुराने साथियों के समूह जी-23 के ताने, उलाहनों से भी बच जाता। पीके ने उनसे भी गलबहिया इस उम्मीद में शुरू कर दी थी कि वे कांग्रेस के हो ही चुके हैं तो असंतुष्टों को साध लिया जाये।
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कांग्रेस को पीके के न होने से कोई बड़े नुकसान होने से आसार नहीं है। वह जितना पिछड़ना है, पिछड़ती जा रही है। ज्यादा नुकसान तो प्रशांत किशोर को है।
उनके सामने यह संकट है कि अब वे बतौर राजनीतिक व्यकि्त किसका दामन थामेंगे? या अपने पुराने अवतार में ही रहना पसंद करेंगे? याने ज्ञान देंगे और धन लेंगे।
जिसे कहते हैं कि हींग लगे न फिटकरी..। यूं यिद पीके की राजनीतिक महत्वाकांक्षा हिलोरे मारती रही तो उनका अगला पड़ाव आम आदमी पार्टी या तृण मूल कांग्रेस भी हो सकती है।
उद्धव ठाकरे भी आसान निशाना हो सकते हैं। कुल मिलाकर वे किसी भाजपा विरोधी दल के साथ जाना पसंद करेंगे।
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देश 2024 तक कांग्रेस-पीके गठबंधन की अठखेलियां देखने से वंचित रह गया। यह काफी दिलचस्प तो होता ही, कांग्रेस के निचले स्तर के कार्यकर्ता के लिये उम्मीद जगाने वाला कदम भी होता।
अभी तो भाजपा इस मसले को मखौल उड़ाने के लिये जोर-शोर से लगेगी ही। उसे बैठे ठाले एक ऐसा मुद्दा मिल गया, जिससे होना-जाना भले कुछ न हो, मजे तो लिये ही जा सकते हैं।
किसी विचार की भ्रूण हत्या के तौर पर राजनीति में पीके-कांग्रेस की विफल पहल याद रखी जायेगी।