विकल्प और प्रतिपक्ष के लिए असली मुद्दों का संकट
लोकतंत्र में जनता का दिमाग समझना भारत ही नहीं दुनिया के बड़े बड़े नेताओं और पुरानी पार्टियों के लिए मुश्किल हो जाता है | भारत में केवल हिमाचल और गुजरात ही नहीं अगले दो वर्षों में होने वाले प्रदेशों और लोक सभा के चुनाव को लेकर मतदाताओं के मन की बात और असली मुद्दों को लेकर नेताओं , पार्टियों , सर्वे और मीडिया संस्थानों के अलग अलग अनुमान हैं | खासकर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार और भाजपा का विकल्प बनने के लिए बेताब कांग्रेस तथा अन्य प्रतिपक्ष के दल के नेता दावा और आशा करते हैं कि देश की जनता मंहगाई और बेरोजगारी से बेहद परेशान है तथा आर्थिक स्थिति बदतर हो गई है | लेकिन वे शायद अन्य बड़े लोकतान्त्रिक देशों की राजनीति , चुनावों और जनता का रुख भी नहीं देख पा रहे हैं | इसी सप्ताह अमेरिका में संसद के मध्यावधि चुनाव हुए हैं , जहाँ दशकों से माना जाता है कि आर्थिक स्थिति चुनावों को प्रभावित करती हैं | इसलिए इस बार कहा जा रहा था कि अमेरिकी मतदाता महंगाई से त्रस्त है , मुद्रा स्फीति पिछले चालीस वर्षों से अधिक है | खाद्य पदार्थों और ईंधन के मूल्य दो अंकों की दर से बढ़ रहे हैं | इसलिए विपक्ष की रिपब्लिकन पार्टी को बहुमत मिल जाएगा | लेकिन उल्टा हुआ | सत्तारुढ़ डेमोक्रटिक पार्टी को अच्छा खासा जन समर्थन मिल गया | जॉन केनेडी के बाद जो बाइडन पहले राष्ट्रपति हैं , जिन्होंने विपक्ष को बहुमत लाने से रोकने में सफलता पाई | नतीजों से खुश बाइडन ने कह दिया है कि उनकी वर्तमान नीतियां जारी रहेंगी |
दूसरे बड़े देश ब्रिटेन में आर्थिक संकट ऐतिहासिक और असाधारण है | हालत इतनी ख़राब है कि इस बार भीषण सर्दी में लाखों लोगों को ऐसे सार्वजनिक शरण स्थलों में रातें बितानी पड़ सकती हैं , जहाँ ढंड से बचने और गर्म स्थिति में सोने को मिल सके , क्योंकि ईंधन ऊर्जा का संकट और मंहगाई है | बसों से चलने के टिकट , खाने पीने का सामान दुगुना महंगा हो गया है | एकमात्र स्वास्थ्य सेवा ( नेशनल हेल्थ सर्विस ) के अस्पताल चरमरा गए हैं | अस्पताल में डॉक्टर से समय दो दो हफ्ते बाद मिलना मुश्किल है | यूरोपीय समुदाय से अलग होने के बावजूद कंपनियों की स्थिति गड़बड़ाने से नौकरियां नहीं मिल रही | फिर भी दो साल पहले वित्त मंत्री की तरह बजट पेश करने वाले ऋषि सुनक न केवल सर्वाधिक लोकप्रिय हैं , बल्कि भारी उलट फेर के बाद प्रधान मंत्री भी बन गए हैं |
इसलिए भारत जोड़ो के नाम पर राजनीतिक जमीन तलाश रहे श्रीमान राहुल गाँधी और उनकी सलाहकार मंडली यह ग़लतफ़हमी पाल रहे हैं कि मंहगाई और बेरोजगारी के मुद्दों को उठाकर वे सत्ता में आ सकते हैं | इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि ये दोनों गंभीर समस्या हैं और शहरों में सर्वाधिक लोग प्रभावित तथा परेशान हैं | लेकिन कांग्रेसी और प्रतिपक्ष के अन्य नेता यह क्यों भूल जाते हैं कि भारत की जनता इन समस्याओं से निरंतर जूझती रही है | नेहरू और इंदिरा गाँधी तो प्रधान मंत्री रहते हुए अपने भाषणों में इन समस्याओं का दुःख के साथ उल्लेख करती थीं | वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी भी इन समस्याओं को समझते स्वीकारते हैं , लेकिन उससे निजात दिलाने के प्रयास करते हुए , गरीबों की अधिकाधिक न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति , पर्याप्त अनाज , छोटा मोटा घर , घरेलु गैस , छोटे किसानों को बीज खाद बिजली लायक पैसा और सड़कों का इंतजाम कर रहे हैं | अनाज उत्पादन में अब पंजाब हरियाणा से अधिक गेंहूं कभी पिछड़े कहे जाने वाले मध्य प्रदेश और चावल छत्तीसगढ़ में पैदा हो रहा है | करोड़ों लोगों को मुफ्त राशन शायद दुनिया के किसी देश में नहीं मिल रहा है | स्वास्थय सेवाओं में कमी है | लेकिन अस्पतालों के अलावा आयुर्वेद , होम्योपैथ , प्राकृतिक चिकित्सा में भी लाखों लोग विश्वास करते हैं | इसलिए लोग कोई न कोई सुविधा लेकर इलाज करा लेते हैं | आयुष्मान भारत पर यदि मोदी सरकार की मोहर है , तो ममताजी , गेहलोत या केजरीवाल अपनी मोहर लगाकर गरीबों को लाखों रुपयों के खर्च वाले आपरेशन की मुफ्त सुविधा देने का दावा कर रहे हैं | लंदन में एम्बुलेंस भी बेहद गंभीर हालत में आती है |
रोजगार की मांग सचमुच बहुत अधिक है | कोरोना महामारी ने बेरोजगारी को और बढ़ाया है | फिर भी असली संकट सरकारी नौकरियों का है | राहुल गांधी या तेजस्वी यादव सरकारी नौकरियों के वायदे कर रहे हैं | केंद्र और राज्य सरकारों में हजारों पद खाली भी हैं , लेकिन डिजिटल युग में काम के स्वरुप बदले और खजाने की भी सीमाएं हैं | हाँ , सरकारी भर्ती की परीक्षाओं के लिए लाखों की भीड़ देखकर विरोधी नेता या अन्य संस्थाएं गहरे असंतोष का अनुमान लगते हैं | लेकिन यदि कोई गहराई से अध्ययन करे तो समझ सकता है कि सरकारी भर्ती की परीक्षा या सर्वे में अपने को बेरोजगार बताने वाले लाखों लोग किसी अन्य काम धंधे से जीविका भी चला रहे हैं | जैसे शहरों में किसी कंपनी में कम वेतन पर , अपनी या दूसरों की दुकान पर काम करने वाले अथवा मेकेनिक , प्लम्बर , ड्राइवर जैसे बिना कागजी रिकार्ड पर बीस से तीस हजार रूपये महीना कमाने वाले लोग बड़ी संख्या में हैं | यही नहीं किसी भी धर्म के हों , अपने ईश्वर और भाग्य पर भरोसा करने वाले भी करोड़ों लोग हैं | इसलिए यदि वे भावनात्मक रूप से प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को बेहतर मानते हैं तो वे प्रतिपक्ष के विकल्प को नहीं स्वीकार रहे हैं | चुनाव में धार्मिक मुद्दे खुलकर उठाना संभव नहीं होता | लेकिन भाजपा तो वर्षों से मंदिर और हिंदुत्व की बात निरंतर करती रही और अब तो चुनाव प्रचार से पहले राहुल प्रियंका गांधी या केजरीवाल या नीतीश कुमार या गेहलोत मंदिर दर्शन – आशीर्वाद के फोटो वीडियो चलवाकर सफल होने की कोशिश करते हैं |
दूसरी तरफ भारत सरकार ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संगठन , विशेषज्ञ , बैंक , औद्योगिक व्यापारिक संगठन , बहुराष्ट्रीय कंपनियां यह स्वीकार रही हैं कि भारत की वर्तमान आर्थिक स्थिति और गति अन्य सम्पन्न देशों से बेहतर है | ब्रिटेन , जर्मनी , जापान से आगे होते जा रहा है | तीन अरब डॉलर की अर्थ व्यवस्था आने वाले पांच वर्षों में सात अरब डालर तक हो जाएगी | देशी विदेशी कम्पनियाँ निरंतर पूंजी निवेश कर रही हैं | हरियाणा , गुजरात , महाराष्ट्र , कर्नाटक ही नहीं मध्य प्रदेश तक में नए उद्योग धंधे विकसित हो गए हैं और बिजली पानी जमीन पर्याप्त होने से काम मिल रहा है | हजारों नए शैक्षणिक संस्थान खुलने से उसी प्रदेश में रोजगार की संभावनाएं बन रही हैं | हाँ बिहार और उत्तर प्रदेश को अभी लम्बी दूरी तय करना है | सरकार किसीकी भी हो , नेताओं और पार्टियों को सरकारी नौकरियों से लोगों को लोभ और भ्रम में डालने के पुराने फार्मूले को थोड़ा कम करना चाहिए | प्रतिपक्ष को विकल्प बनने के लिए जहाँ अपनी सरकारें हैं , उन्हें अधिक सफल बनाकर देश में नई उम्मीदों वाले रास्ते दिखाने होंगें | नकारात्मक राजनीति से जनता को मोहित करना अब कठिन है |
( लेखक आई टी वी नेटवर्क इंडिया न्यूज़ और दैनिक आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं )
आलोक मेहता
आलोक मेहता एक भारतीय पत्रकार, टीवी प्रसारक और लेखक हैं। 2009 में, उन्हें भारत सरकार से पद्म श्री का नागरिक सम्मान मिला। मेहताजी के काम ने हमेशा सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है।
7 सितम्बर 1952 को मध्यप्रदेश के उज्जैन में जन्में आलोक मेहता का पत्रकारिता में सक्रिय रहने का यह पांचवां दशक है। नई दूनिया, हिंदुस्तान समाचार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान में राजनितिक संवाददाता के रूप में कार्य करने के बाद वौइस् ऑफ़ जर्मनी, कोलोन में रहे। भारत लौटकर नवभारत टाइम्स, , दैनिक भास्कर, दैनिक हिंदुस्तान, आउटलुक साप्ताहिक व नै दुनिया में संपादक रहे ।
भारत सरकार के राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य, एडिटर गिल्ड ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष व महासचिव, रेडियो तथा टीवी चैनलों पर नियमित कार्यक्रमों का प्रसारण किया। लगभग 40 देशों की यात्रायें, अनेक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्राध्यक्षों व नेताओं से भेंटवार्ताएं की ।
प्रमुख पुस्तकों में"Naman Narmada- Obeisance to Narmada [2], Social Reforms In India , कलम के सेनापति [3], "पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा" (2000), [4] Indian Journalism Keeping it clean [5], सफर सुहाना दुनिया का [6], चिड़िया फिर नहीं चहकी (कहानी संग्रह), Bird did not Sing Yet Again (छोटी कहानियों का संग्रह), भारत के राष्ट्रपति (राजेंद्र प्रसाद से प्रतिभा पाटिल तक), नामी चेहरे यादगार मुलाकातें ( Interviews of Prominent personalities), तब और अब, [7] स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ (TRAVELOGUES OF INDIA AND EUROPE), [8]चरित्र और चेहरे, आस्था का आँगन, सिंहासन का न्याय, आधुनिक भारत : परम्परा और भविष्य इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं | उनके पुरस्कारों में पदम श्री, विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, पत्रकारिता भूषण पुरस्कार, हल्दीघाटी सम्मान, राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार आदि शामिल हैं ।