कोसना हल नहीं, रोकने का जतन जरूरी है …

442
एक बड़े चेहरे ने पार्टी छोड़ी और उसके जाते ही उसको कोसने का क्रम शुरू…। पार्टी ने सांसद बनाया, मंत्री बनाया, पदाधिकारी बनाया और पार्टी के प्रति बेवफाई कर फलां-फलां दूसरी पार्टी के सदस्य बन गए या बुरे वक्त में पार्टी छोड़कर चले गए…वगैरह-वगैरह। और फिर यह कि उनके इस कदम की मैं घोर निंदा करता हूं…। जाने वाले चले जा रहे हैं और पार्टी में बचे बार-बार निंदा का वही पाठ दोहराकर अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर एक मैसेज वायरल हो रहा है, जिसके आंकड़े भयावह हैं यदि सच हैं और महसूस किए जाएं। आंकड़ों के मुताबिक परिवार और दल के युवराज के उपाध्यक्ष बनने के बाद 2014 और 2021 के बीच हुए चुनावों के दौरान 222 चुनावी उम्मीदवारों ने देश में सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाले दल को अलविदा कहा, जबकि 177 सांसदों और विधायकों ने भी पार्टी से तौबा कर लिया। इसके अलावा 2016 और 2020 के बीच दलबदल करने वाले लगभग 45 प्रतिशत विधायक विश्व के सबसे बड़े दल में शामिल हो गए।
यह मजाक नहीं है, बल्कि हिंदुस्तान में सबसे लंबे समय तक राज करने वाले दल का फिलहाल यही हाल है। बड़े-बड़े नेता दल को अलविदा कह खुद बाहर चले जा रहे हैं और दल को दलदल में धकेलते जा रहे हैं। मानो ऐसा लग रहा है, जैसे जाने वाले नेता से पार्टी में बाकी बचे नेता यह हावभाव जताते हों कि “तू चल, मैं आता हूं…”। और एक अनुकूल समय का इंतजार कर धीरे से उन्हीं आरोपों को चस्पा कर अगला नेता भी पार्टी को बाय-बाय कहकर खिसक जाता है।
ऐसे में विश्व के सबसे बड़े राजनैतिक दल का वह संकल्प स्वत: ही चरितार्थ होने के मंजिल की तरफ एक-एक कदम की दूरी तय करता जा रहा है, जिसके तहत उसने सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाले दल से भारत को मुक्त करने का सपना देख रखा है। और सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाला दल देश को जोड़ने की मुहिम चलाकर सत्ता में वापसी का सपना देखने में जुटा है। यह सोचने की जेहमत भी नहीं उठा रहा कि बड़े-बड़े चेहरे पार्टी से पल्ला झाड़ लिए, फिर पार्टी में बचेगा ही क्या…? और जब सत्ता भोगने वाले लायक चेहरे ही दल में नहीं बचे, तो फिर सत्ता मिलेगी भी कैसे…? और तब दल में बचे हुए गिने-चुने नेता आखिर किसको कोसेंगे और किसको यह अहसास कराएंगे कि पार्टी ने उनके लिए क्या-क्या किया है…और जाने वालों को अहसान फरामोश साबित कर संतुष्ट हो जाएंगे कि गालियां देकर जाने वाले से हिसाब-किताब चुकता कर लिया ? पार्टी में फिलहाल सबको यह तो अंदेशा हो जाता है कि अगला विकेट किसका गिरने वाला है, लेकिन स्व”अभिमान” ऐसा कि उसको रोकने का कोई जतन करने पर विचार करने की जेहमत कोई भी न ही उठा रहा है और न ही उठाना चाह रहा है। शायद एक ही परिवार के विचारों की धारा के सामने पार्टी की विचारधारा मात खाती नजर आ रही है।
अब तो यह भी समझ में नहीं आ रहा कि पार्टी अल्पसंख्यकों की है, बहुसंख्यकों की है, सवर्णों की है, दलितों की है या आदिवासियों की है…। क्योंकि सभी वर्ग के नेता पार्टी के युवराज की सोच और फैसलों पर तरस खाकर पूरे दिल से बरस-बरस कर पूरा गुबार निकालकर ही बाहर चले जा रहे हैं। खास बात यह है कि जब युवराज को पद से नफरत है तो फिर हुकुम देने की आदत से समझौता करने में लाज क्यों आती है? और खुद का नहीं, पार्टी का नहीं तो कम से कम अपनी बुजुर्ग मां की सेहत का ख्याल तो रखने का बनता है भाई। लगता तो यह भी है कि नेताओं के पार्टी छोड़ने का सिलसिला यूं ही चलता रहा तो हो सकता है कि कुछ समय बाद देश की केंद्रीय जांच एजेंसियों ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स वगैरह-वगैरह के दफ्तरों पर ही ताला लटकाना पड़े। अगर यही हाल रहा तो हो सकता है कि सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाले दल के गिने-चुने सदस्यों को भारी भरकम सुरक्षा देकर ही विश्व के सबसे बड़े दल की सरकार उन्हें भी सरेंडर करने को मजबूर कर दे।
बस यहीं पर आकर देश का लोकतंत्र निराशा और हताशा के सागर में डूब जाता है और उसके टूटकर बिखरने की नौबत आती दिखती है। आखिर ऐसी क्या बात है कि जिस राजनैतिक दल की अगुवाई करने वाले नेताओं ने विदेशी हुकूमत को भी घुटनों पर लाकर देश से बाहर जाने पर मजबूर कर दिया, आजादी के पचहत्तर साल बाद उसी दल के उत्तराधिकार में नेतृत्व पाने वाले चेहरे इतने नाकारा साबित होंगे कि वफादारों को बेवफाई करने को मजबूर होना पड़े। और तब भी पार्टी नेतृत्व सेहत पर कोई फर्क न पड़ने का इंप्रेशन देते हुए चेहरे पर मुस्कान कायम रखने का संदेश देता रहे। यह बात भी तब, जब दल छोड़ने वाले कोई मामूली चेहरे नहीं, बल्कि यह दावा किया जा सकता है कि उनके खून में ही पार्टी विचारधारा रक्त बहकर बहती रही है।
सरकार में मौजूद विश्व के सबसे बड़े दल ने भी कभी लोकतांत्रिक चेहरों के रूप में किसी से खौफ खाया होगा तो उन्हीं चेहरों से। वह चेहरे जो जीवन मेंं कभी विपक्ष के सामने न झुके और न ही कोई समझौता किया। ऐसे हीरे जिन्होंने अपनी पूरी जवानी और जिंदगानी अपने दल की विचारधारा के लिए खपा दी। ऐसे में कोसने वालों को यह नजर क्यों नहीं आता कि जाने वालों को पार्टी में रहते हुए पद उपहार में नहीं मिले, बल्कि पूरी जवानी और पूरी जिंदगानी न्यौछावर करने के बदले दिन-रात पसीना बहाने पर ही हासिल हुए हैं। ऐसे में आखिर वह दल छोड़ने के लिए इतना मजबूर कैसे हो रहे हैं कि अपनी जवानी और जिंदगानी जिस घर में बिताई है, उसे ही तड़पते देख भी उसका दिल दल से मुंह मोड़ने का जालिम फैसला लेते वक्त भी पसीजने की हामी भरने को तैयार नहीं है। खामी दल छोड़ने वालों में है या खामी दल का नेतृत्व करने वालों में…दल के लिए अब यह विचार करने का शायद अब अवसर आ गया है। अवसर तो वैसे सालों पहले ही आ गया था, यदि सही समय पर महसूस किया गया होता!
और अगर अब भी नहीं चेते तो शायद दल इससे बुरे वक्त का भी दिल खोलकर इंतजार करने को आतुर है। वैसे इतिहास गवाह है कि परिवारों के विचारों को ढोने वाले यानि एक किस्म से राजतंत्री विचारधारा में उत्तराधिकारियों की सत्ता की समय-सीमा निश्चित होती है। ऐसे में यदि लोकतंत्र की लाज बचाना है तो देश में सबसे ज्यादा राज करने वाले दल के शुभचिंतक नेताओं को परिवार के नेतृत्व और विचारों से पल्ला झाड़कर दल के संविधान और विचारधारा की कसौटी पर खरा उतरने का विचार करने की जरूरत है। देश को जोड़ने की जगह अपने दल के नेताओं को सहेजने और दल से जोड़े रखने के जतन की जरूरत है। यदि स्व”अभिमान” आड़े न आए तो ही समाधान की दिशा में कदम बढ़ाकर देश में सबसे ज्यादा राज करने वाले दल के चेहरे परिवार की सोच से उबरकर पार्टी विचारधारा पर अमल कर लोकतंत्र में अपने दल का सम्मान बरकरार रखने में सफल हो सकते हैं…!