देहदान यानि एक समूचा जीवन दर्शन …मिसाल बन गए रामसुंदर…

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देहदान, कहने-सुनने में बस चार अक्षर…लेकिन करने में चारों युगों पर भारी। यह चारों युग जो सनातन धर्म के प्रतीक हैं। यह चारों युग उस दर्शन के प्रतीक हैं, जिसमें सनातन काल से अब तक इंसान की सोच सिमटी हुई है। यह चार युग जो यह बताते हैं कि मोक्ष पाने के लिए इंसान को जीते हुए किस तरह कर्म करना चाहिए और मरने के बाद किन-किन कर्मकांड के साथ उसका अंतिम संस्कार होना चाहिए और किस तरह अस्थि विसर्जन हो, किस तरह से विधि-विधान के साथ धर्मों के मुताबिक अलग-अलग समयसीमा में उसकी आत्मा की शांति हेतु प्रक्रिया संपन्न हो, भोज कराया जाए। वरना आत्मा का भटकाव होना तय है।
इस सोच में बदलाव के लिए बहुत बड़ा जिगर चाहिए, जो गीता के उस मंत्र से खुद को एकाकार कर सके कि “नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।” यानि कि आत्मा का वह संपूर्ण ज्ञान जो श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था। इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते हैं और अग्नि इसे जला नहीं सकती है। जल इसे गीला नहीं कर सकता है और वायु इसे सुखा नहीं सकती है। गीता के इस दूसरे अध्याय में, जिसे सांख्य योग कहा गया है…कृष्ण ने पार्थ को जो ज्ञान दिया है, उसका सार यही है कि आत्मा मोक्ष के लिए किसी भी तरह के कर्मकांड की गुलाम नहीं है। और शरीर नाशवान है, जिसका मोक्ष से कोई लेना-देना नहीं है।
हालांकि इस गीता सार को सीधी-सीधी टक्कर देते हैं दर्शन के दूसरे स्रोत। सर्वाधिक महत्वपूर्ण है गरुण पुराण, जिसे सनातन धर्म में व्यक्ति की मृत्यु के बाद त्रयोदशी से पहले सुनना मोक्ष कर्म ज्ञान का पर्याय माना जाता है। ऐसी परिस्थितियों में ‘देहदान’ जैसा शब्द आम इंसान के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन जाता है। कि देहदान कहीं अपने मोक्ष की राह का दुश्मन तो नहीं है? और इस चुनौती से पार पाकर ‘देहदान’ करने वाला बिरला मानव वास्तव में ‘महान’ और ‘अनुकरणीय’ होता है।
और जिंदा रहते हुए ‘देहदान’ का संकल्प जताकर एम्स में औपचारिकता पूरी करने वाले डॉ.रामसुंदर श्रीवास्तव ऐसे ही बिरले और महान सोच वाले इंसान थे। 27 अप्रैल 2022 को उनकी ‘देहदान’ की प्रक्रिया का साक्षी मैं भी बना। और तब मुझे यह आभास हुआ कि देहदान क्यों महादान है? मरने के बाद नाशवान शरीर भी डॉक्टरी की पढ़ाई करने वाले उन हजारों बच्चों के काम आ जाए, जिससे कुछ सीखकर वह मानव जाति की सेवा के वाहक बन सकें। या ‘देह’ न मिलने पर वह परिस्थितियां पैदा न हों, जिससे डॉक्टर बनकर भी वह अधूरा सा रहे।
और जिनके मन से यह भय जीते जी ही दूर हो जाए कि मोक्ष में बाधक कुछ नहीं होता। ‘आत्मा’ को कोई मोक्ष जैसा शब्द अपना बंधक नहीं बना सकता। और कर्मकांड से मोक्ष का कोई नाता नहीं है। आत्मा मुक्त तो फिर चाहे शरीर को जलाओ, दफनाओ या फिर चील-कौओं, मछलियों-बाजों को खिलाओ…कोई फर्क नहीं पड़ता। आत्मा तो एक शरीर से विदा होगी और दूसरे शरीर का वरण करेगी…और कृष्ण कह गए हैं कि आत्मा का आना-जाना उसी तरह है कि रंगमंच पर कलाकार अपना अभिनय करता है और अभिनय खत्म होने पर फिर परदे से गायब हो जाता है। और मोक्ष को सीधी चुनौती तो सदियों पहले संत कबीर दे ही चुके हैं। बात कुछ इस तरह है कि वाराणसी प्राचीन काल से ही जहां मोक्षदायिनी नगरी के रूप में जानी जाती थी, तो मगहर को लोग मानते थे कि यहां मरने से व्यक्ति अगले जन्म में गधा होता है या फिर नरक में जाता है।
सोलहवीं सदी के महान संत कबीरदास वाराणसी में पैदा हुए और लगभग पूरा जीवन उन्होंने वाराणसी यानी काशी में ही बिताया लेकिन जीवन के आख़िरी समय वो मगहर चले आए और अब से पांच सौ चार साल पहले वर्ष 1518 में यहीं उन्होंने देह त्यागी। कबीर स्वेच्छा से मगहर आए थे और इसी किंवदंती या अंधविश्वास को तोड़ना चाहते थे कि काशी में मोक्ष मिलता है और मगहर में नरक। कबीर का यही मानना था कि यदि काशी में मरने से मोक्ष मिले, तो ऐसा मोक्ष उन्हें कतई कबूल नहीं। और शायद संदेश यही था कि यह मोक्ष वगैरह कुछ नहीं है। आत्मा का आना-जाना किसी तरह के मोक्ष के मायाजाल को नहीं जानता। और यही संदेश देता है कि मरने के बाद भी यदि किसी के काम आता है नाशवान शरीर, तो शायद शरीर का मोक्ष भी हो जाए।
और इसीलिए यह माना जा सकता है कि आत्मा का मोक्ष से कोई मतलब नहीं, तो शरीर को मोक्ष जरूर मिल जाता है ‘देहदान’ के जरिए। बहुत पुराने गीत के बोल हैं कि “जीना तो है उसी का जिसने ये राज़ जाना है, काम आदमी का औरों के काम आना। तो एक दूसरे गीत के बोल हैं कि “खुदगर्ज़ दुनिया में ये इन्सान की पहचान है, जो पराई आग में जल जाए वो इन्सान है। अपने लिये जिये तो क्या जिये, तू जी ऐ दिल ज़माने के लिये…। बीस साल पहले आदिम जाति कल्याण विभाग से अपर संचालक पद से सेवानिवृत्त हुए डॉ. रामसुंदर श्रीवास्तव को कोटि-कोटि प्रणाम, जो यह राज समझकर ‘देहदान’ जैसा महान कार्य कर मिसाल बन गए। वास्तव में ‘देहदान’ एक समूचा दर्शन है, जो सारे दर्शन को कोसों पीछे छोड़ देता है। और यह जानने के बाद व्यक्ति राम जैसा सुंदर ही बन जाता है।