दानव मस्त, देव मानव त्रस्त, सेनाएं तैयार, बस राम जन्म का इंतजार…

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दानव मस्त, देव मानव त्रस्त, सेनाएं तैयार, बस राम जन्म का इंतजार…

त्रेतायुग में वह समय आ गया था, जब चारों तरफ दानवों के अत्याचारों से हाहाकार मचा था। धरती कराह उठी थी। देवताओं पर दानवों का कहर बरप रहा था। ऋषि-मुनि त्राहि-त्राहि कर रहे थे। मानव जाति पर गहरा संकट‌ छाया था। और सब मिलकर ब्रह्मा और शिव सहित नारायण की शरण में गए। और आकाशवाणी हुई कि प्रभु अवतार लेने वाले हैं। इन सभी स्थितियों का बालकांड में गोस्वामी तुलसीदास जी ने मर्मस्पर्शी वर्णन किया है।
दृश्य-1
रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण का जन्म हुआ। रावण और कुम्भकर्ण राक्षस थे तो सौतेला भाई विभीषण रामभक्त था। तीनों ने घोर तपस्या की और ब्रह्मा-शिव से वरदान पाए। रावण, मेघनाद और दानवों का वंश फल फूल रहा था और राक्षस मस्त थे। धरती इन राक्षसों के अत्याचार के बोझ से दब गई थी।
‘उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप। तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥’ यानि यद्यपि वे (रावण, कुम्भकर्ण) पुलस्त्य ऋषि के पवित्र, निर्मल और अनुपम कुल में उत्पन्न हुए, तथापि ब्राह्मणों के शाप के कारण वे सब पाप रूप हुए।
रावण ने भुजाओं के बल से सारे विश्व को वश में कर लिया, किसी को स्वतंत्र नहीं रहने दिया। (इस प्रकार) मंडलीक राजाओं का शिरोमणि (सार्वभौम सम्राट) रावण अपनी इच्छानुसार राज्य करने लगा। उनके डर से कहीं भी शुभ आचरण (ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, श्राद्ध आदि) नहीं होते थे। देवता, ब्राह्मण और गुरु को कोई नहीं मानता था। न हरिभक्ति थी, न यज्ञ, तप और ज्ञान था। वेद और पुराण तो स्वप्न में भी सुनने को नहीं मिलते थे। राक्षस लोग जो घोर अत्याचार करते थे, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। हिंसा पर ही जिनकी प्रीति है, उनके पापों का क्या ठिकाना।
दृश्य-2
पृथ्वी पर अत्याचार बढ़ गया है। धरती त्राहिमाम त्राहिमाम कर रही है। देव और मानव सब घोर संकट में हैं और त्रस्त होकर नारायण की शरण में गए हैं।
‘बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥ मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥’ यानि पराए धन और पराई स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और साधुओं (की सेवा करना तो दूर रहा, उल्टे उन) से सेवा करवाते थे। श्री शिवजी कहते हैं कि हे भवानी! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना। इस प्रकार धर्म के प्रति (लोगों की) अतिशय ग्लानि (अरुचि, अनास्था) देखकर पृथ्वी अत्यन्त भयभीत एवं व्याकुल हो गई। धरती सोचने लगी कि पर्वतों, नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं जान पड़ता, जितना भारी मुझे एक परद्रोही (दूसरों का अनिष्ट करने वाला) लगता है। पृथ्वी सारे धर्मों को विपरीत देख रही है, पर रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं सकती। ब्रह्मा, शिव,देवता और धरती सब मिलकर नारायण से विनती कर रहे हैं, जिन्होंने बिना किसी दूसरे संगी अथवा सहायक के अकेले ही स्वयं अपने को त्रिगुणरूप- ब्रह्मा, विष्णु, शिवरूप बनाकर तीन प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, वे पापों का नाश करने वाले भगवान हमारी सुधि लें। हम न भक्ति जानते हैं, न पूजा, जो संसार के जन्म-मृत्यु के भय का नाश करने वाले, मुनियों के मन को आनंद देने वाले और विपत्तियों के समूह को नष्ट करने वाले हैं। हम सब देवताओं के समूह, मन, वचन और कर्म से चतुराई करने की बान छोड़कर उन भगवान की शरण आए हैं।
दृश्य -3
देवों की करुण पुकार सुनकर नारायण द्रवित हो गए। और आकाशवाणी हुई कि नारायण अवतार लेंगे और सबके दु:ख हर लेंगे।
‘जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह। गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥’ यानि देवताओं और पृथ्वी को भयभीत जानकर और उनके स्नेहयुक्त वचन सुनकर शोक और संदेह को हरने वाली गंभीर आकाशवाणी हुई। हे मुनि, सिद्ध और देवताओं के स्वामियों! डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण करूँगा और उदार (पवित्र) सूर्यवंश में अंशों सहित मनुष्य का अवतार लूँगा। तब ब्रह्माजी ने पृथ्वी को समझाया। वह भी निर्भय हुई और उसके जी में भरोसा (ढाढस) आ गया। और फिर देवताओं को यही सिखाकर कि वानरों का शरीर धर-धरकर तुम लोग पृथ्वी पर जाकर भगवान के चरणों की सेवा करो, ब्रह्माजी अपने लोक को चले गए। सब देवता अपने-अपने लोक को गए। पृथ्वी सहित सबके मन को शांति मिली। ब्रह्माजी ने जो कुछ आज्ञा दी, उससे देवता बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने (वैसा करने में) देर नहीं की। पृथ्वी पर उन्होंने वानरदेह धारण की। उनमें अपार बल और प्रताप था। सभी शूरवीर थे, पर्वत, वृक्ष और नख ही उनके शस्त्र थे। वे धीर बुद्धि वाले (वानर रूप देवता) भगवान के आने की राह देखने लगे।
दृश्य -4
इधर अयोध्या नरेश संतान न होने से दु:खी हो गुरु वशिष्ठ के पास जाकर अपनी वेदना सुनाते हैं। और गुरु वशिष्ठ समाधान करते हैं।
‘एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥ गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥’ यानि एक बार राजा दशरथ के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरु के घर गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत विनय की। वशिष्ठजी ने श्रृंगी ऋषि को बुलवाया और उनसे शुभ पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया। मुनि के भक्ति सहित आहुतियाँ देने पर अग्निदेव हाथ में चरु (हविष्यान्न खीर) लिए प्रकट हुए। इस प्रकार सब महारानी गर्भवती हुईं। वे हृदय में बहुत हर्षित हुईं। उन्हें बड़ा सुख मिला। जिस दिन से श्री हरि (लीला से ही) गर्भ में आए, सब लोकों में सुख और सम्पत्ति छा गई। शोभा, शील और तेज की खान (बनी हुई) सब रानियाँ महल में सुशोभित हुईं। इस प्रकार कुछ समय सुखपूर्वक बीता और वह अवसर आ गया, जिसमें प्रभु को प्रकट होना था।
और अब राम के अवतार का समय आ गया था। अयोध्या में शुभ संकेत मिल रहे थे। हर्ष का वातावरण था। देवताओं ने पहले ही वानर रूप में जन्म ले वानर सेनाएं तैयार कर ली थीं। दानव सेनाएं पहले से तैयार थीं। बस अब राम अवतार का समय आ गया था…।