Discussion in Indore Press Club: आखिरकार नईदुनिया बिका क्यों ?

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Discussion in Indore Press Club: आखिरकार नईदुनिया बिका क्यों ?

रमण रावल

इस अत्यंत लोकप्रिय,प्रामाणिक व चर्चित रहे हिंदी अखबार की बिक्री के 23 साल बाद भी इस पर चिंता प्रकट की जा रही है, चर्चा की जा रही है तो आप समझ सकते हैं कि हिंदी पत्रकारिता जगत में इस अखबार की कितनी ऊंचाई रही होगी, कितनी प्रतिष्ठा होगी और किस स्तर का लगाव रहा होगा। एक बार फिर राख में दबी चिंगारी को फूंक मारकर सुलगाने का संयोग बना इंदौर प्रेस क्लब के 63 वें स्थापना दिवस पर आयोजित व्याख्यान के दौरान। इस मसले को प्रस्तुत किया माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलगुरु विजय मनोहर तिवारी ने अपने उद्बोधन में। वे स्वयं करीब 10 वर्ष तक नईदुनिया में सेवा दे चुके हैं।

इस प्रतिष्ठा प्रसंग के पहले दिन के पहले सत्र में पत्रकारिता का इंदौर घराना विषय पर विद्वानों के व्याख्यान रखे गये थे। उसमें नईदुनिया में बतौर पत्रकार काम कर चुके राजेश बादल,यशवंत व्यास,जयदीप कर्णिक व विजय मनोहर तिवारी को बोलना था। संचालन प्रकाश हिंदुस्तानी कर रहे थे और वे भी नईदुनिया में रहे थे। कमोबेश सभी ने जहां नईदुनिया के तेवर,तिलस्म,प्रभाव और सत्ता के गलियारों तक पर उसकी मजबूत पकड़ की बातें कहीं,उदाहरण प्रस्तुत किये। इस संस्थान से निकले महान संपादक राजेंद्र माथुर के जिक्र के बिना कभी-भी नईदुनिया की कहानी अधूरी ही नहीं उबाऊ भी रहे।

Discussion in Indore Press Club: आखिरकार नईदुनिया बिका क्यों ?
Discussion in Indore Press Club: आखिरकार नईदुनिया बिका क्यों ?

इस सिलसिले की अंतिम कड़ी में जब विजय तिवारी ने बोलना प्रारंभ किया तो अनायास वेदना भरे स्वर में उन्होंने नईदुनिया की बिक्री के प्रसंग को छेड़कर समूचे माहौल को अलग ही रंग दे दिया। वे इसे हिंदी पत्रकारिता के लिये पीड़ादायक घटना के तौर पर याद करते हैं और सवाल भी उठाया कि क्या ऐसा कोई विकल्प नहीं हो सकता था, जब नईदुनिया से निकले लोग,इससे लाभान्वित हुए लोग,इसके प्रबंधन से आत्मीय स्तर पर जुड़े लोग, शहर के तमाम मसलों से सार्थक,सतत और सकारात्मक सरोकार रखने वाले लोग इस अखबार की इतनी मदद नहीं कर सकते थे कि वह बिकता नहीं । गैर इंदौरी के हाथ में नहीं जाता । उनके दिल में तो वे नाम भी थे, जो अपनी जेब उल्टी करते तो उतने रुपये उसमें से निकल आते, जिससे अखबार फिर चल निकलता।

दरअसल, इंदौर की पत्रकारिता से सरोकार रखने वाले इंदौरी और बाहरी तमाम लोगों के बीच अब भी यदाकदा यह सवाल तैरता रहता है कि ऐसी कौन सी मुसीबत आन पड़ी थी कि नईदुनिया बिक गया? इसमें कभी संदेह और दो राय नहीं हो सकती कि नईदुनिया इंदौर ही नहीं हिंदी पत्रकारिता की मालवा-निमाड़ की,मध्यप्रदेश के सामाजिक,राजनीतिक जीवन की धड़कन समान था। उसकी इतनी प्रतिष्ठा थी कि संचार माध्यम की लचर अवस्था वाले दौर में जिस दिन सुबह नईदनिया में यह छप जाता कि आज अवकाश है तो जिलाधीश बिना तस्दीक किये घोषणा कर देते। विद्यालय,शासकीय कार्यालयों में छुट्‌टी हो जाया करती थी।

यह वही नईदुनिया अखबार था, जो मप्र का मंत्रिमंडल तय करता था, जिलों में कलेक्टर,एसपी के तबादले तय करता था । 5 जून 1947 को कृष्णकांत व्यास,कृष्णचंद्र मद्गल,बाबू लाभचंद छजलानी व बसंतीलाल सेठिया ने इसे प्रारंभ किया था और कुछ समय के बाद केवल छजलानीजी व सेठियाजी के हाथ में इसका प्रबंधन आ गया, जिसमें बाद में नरेंद्र तिवारी भी जुड़ गये। इसके पहले विधिवत संपादक राहुल बारपुते बने,उसके बाद राजेंद्र माथुर। इन दोनों ने हिंदी पत्रकारिता में कैलाश पर्वत समान कीर्तिमान कायम किये। नित-नई परिभाषायें गढ़ी। भाषा का ऐसा शिल्प कौशल तैयार किया, जो आज तक प्रचलन में है । यही कारण है कि संगीत घरानों की तरह हिंदी पत्रकारिता में इंदौर को घराने का गौरव मिला।

पचास के दशक से लगाकर तो 2 अप्रैल 2012 को नईदुनिया के बिकने तक पूरे देश की पत्रकारिता में नईदुनिया के दीक्षित-प्रशिक्षित होकर निकले पत्रकार,संपादक छाये रहे । अन्य संस्थानों में उनका चयन केवल इसलिये हो जाया करता था कि वे नईदुनिया में हैं या रहे हैं। जब नईदुनिया का हिमालयीन आकार था, तब इसके प्रबंधकों से लगाकर प्रशंसकों,पाठकों,लेखकों व अन्य हिंदी अखबारों के मालिकों तक के सपने में भी ये बात नहीं आ सकती थी कि कभी इसका पराभव होगा और बिकने तक की नौबत आ जायेगी।

संभवत यही वजह रही कि इस भ्रम या धारणा या अति आत्म विश्वास के चलते नईदुनिया के प्रबंधकों ने समय के साथ इस विधा में आये बदलाव को समझा ही नहीं,उसके अनुसार अपने को किंचित भी परिवर्तित नहीं किया और दुराग्रह की सीमा तक जाकर पारंपरिक आग्रहों से चिपके रहे। इस बीच 5 मार्च 1983 को इंदौर से दैनिक भास्कर प्रारंभ हुआ, जो भोपाल और झांसी के बाद एक और संस्करण था। उसने् नईदुनिया की कमजोर कड़ियों को तलाशा और उन पर वज्र प्रहार करना प्रारंभ किया। जो नईदुनिया से उपेक्षित थे,उन्हें सहलाया,अपना बनाया। तकनीकी और प्रबंधकीय बदलावों को अपनाया और कछुये की गति वाला भ्रम पैदा कर कब हिंदी पत्रकारिता के अंतरिक्ष में विकास का राकेट प्रक्षेपित कर दिया, इसका पता चला,तब तक काफी देर हो चुकी थी।

नईदुनिया के आधार स्तंभ माने जाने वाले राजेंद्र माथुर नवभारत टाइम्स दिल्ली के संपादक होकर चले गये और उसके बाद जैसे नईदुनिया के सारे तटबंध ढह गये और उसने जो तबाही मचाई, वह 2 अप्रैल 2012 को इसकी बिक्री के रूप में सामने आई। विजय मनोहर तिवारी ने अपने उद्बोधन में बेहद भावुक होकर यह आव्हान किया कि इसकी बिक्री के वास्तविक कारणों को और उस दुर्योग को टाले जा सकने वाली स्थिति पर अध्ययन किया जाना चाहिये। साथ ही यह भी कहा कि इस पर कोई गंभीर प्रयास होता है तो विश्वविद्यालय इसमें यथा संभव सहयोग भी करेगा। कहना मुश्किल है कि कोई इस चुनौती को स्वीकार कर पायेगा ।