सिर्फ इस्लाम से घृणा क्यों ?

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संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा ने सर्वसम्मति से यह तय किया है कि हर साल 15 मार्च को सारी दुनिया में ‘‘इस्लामघृणा-विरोधी दिवस’ मनाया जाए याने इस्लामोफोबिया का विरोध किया जाए। दुनिया के कई देशों में इस्लाम के प्रति घृणा का भाव है। उनके मुसलमानों के साथ सिर्फ भेदभाव ही नहीं होता है बल्कि वे तरह-तरह के जुल्मों के शिकार भी होते हैं। चीन में लाखों उइगर मुसलमान यातना शिविरों में बंद हैं। अब से लगभग 20 साल पहले जब मैं शिनच्यांग की राजधानी उरुमची में गया था तो वहां के मुसलमानों की दुर्दशा देखकर दंग रह गया। यही हाल सोवियत संघ के ज़माने में मध्य एशिया के गणराज्यों में रहनेवाले मुसलमानों का था। मैं जब इन गणराज्यों में जाया करता था तो इनके मुसलमान मुझे रूसी और फारसी भाषाओं में अपना दर्द खुलकर बयान कर देते थे, क्योंकि मुझे रूसी अनुवादक की जरुरत नहीं होती थी। व्लादिमीर पूतिन ने चेचन्या के मुसलमानों का हाल यूक्रेनियों से भी बुरा कर दिया था। फ्रांस, हालैंड और जापान आदि देशों में भी मुसलमानों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगे हुए हैं। इसीलिए इस्लाम घृणा का विरोध जरुरी तो है लेकिन यह घृणा सिर्फ इस्लाम के खिलाफ ही नहीं, कई धर्मों, रंगों और जातियों के खिलाफ भी सारी दुनिया में देखी जाती है। इस्लामी देशों में तो इसका उग्रतम रुप देखा जाता है। सुन्नी देशों में शियाओं, हिंदुओं, ईसाइयों, यहूदियों और सिखों के साथ जो बर्ताव वहां की सरकारें और जनता करती है, यदि उसे आप देख लें तो आप दंग रह जाएंगे। मैं पिछले 50-55 साल में दर्जनों इस्लामी राष्ट्रों में रहा हूं, वहां मैंने इस्लाम के उत्कृष्ट मानवीय तत्वों को भी देखा है और विधर्मी अल्पसंख्यकों के साथ उनके अमानवीय व्यवहार को भी देखा है। ऐसा नहीं है कि यह प्रकृति सिर्फ इस्लामी देशों में ही है। मैंने कई बौद्ध, इसाई और यहूदी राष्ट्रों में भी देखा है कि वे अपने मुसलमान अल्पसंख्यकों के साथ ही नहीं, समस्त विद्यर्मियों के साथ बहुत सख्ती से पेश आते हैं। संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव को मैं अधूरा इसीलिए मानता हूं कि यह सिर्फ इस्लाम से घृणा के खिलाफ है। क्या सिर्फ इस्लाम से ही लोग घृणा करते हैं? यह सभी धर्मों से घृणा के खिलाफ होना चाहिए। भारत तो सर्वधर्म समभाव का देश है। सहिष्णुता ही इसकी विशेषता है। ऐसा नहीं है कि यहां विधर्मियों के साथ सदा न्याय ही होता है। कई लोग मनमानी भी करते हैं लेकिन भारत की कोई भी सरकार किसी एक धर्म की रक्षा करे और बाकी के साथ अन्याय करे, यह नहीं हो सकता। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रतिनिधि ने स्पष्ट शब्दों में इस प्रस्ताव के अधूरेपन को उजागर किया है। उसने विरोध नहीं किया, यह ठीक है लेकिन मैं तो कहता हूं कि पाकिस्तान द्वारा लाए गए इस प्रस्ताव पर संयुक्तराष्ट्र पुनर्विचार करे और इसे रचनात्मक रूप में पारित करे ताकि दुनिया का कोई भी व्यक्ति धार्मिक, सांप्रदायिक, जातीय, वर्ण आदि की घृणा का शिकार न हो। यदि इस्लामी राष्ट्र ही इसकी पहल करें तो इस्लामी-जगत की छवि में चार चांद लग जाएंगे।