मामाजी की 27वीं पुण्यतिथि पर लगा आस्था का मेला, हजारों अनुयायी पहुंचे भील आश्रम!

मामाजी को भारत रत्न दिए जाने की पुनः उठी मांग!

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मामाजी की 27वीं पुण्यतिथि पर लगा आस्था का मेला, हजारों अनुयायी पहुंचे भील आश्रम!

Ratlam : ख्यातनाम समाजवादी चिंतक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वर्गीय मामा बालेश्वर दयाल की 27वीं पुण्यतिथि बामनिया स्थित भील आश्रम में 26 दिसम्बर गुरुवार को मनाई गई। जहां प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी मामाजी के हजारों अनुयायियों का आस्था का मेला लगा। बता दें कि प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी 26 दिसम्बर को मामाजी की पुण्यतिथि अवसर पर मध्यप्रदेश, गुजरात एवं खासकर राजस्थान के दूरस्थ इलाकों से मामाजी के हजारों अनुयायी पैदल एवं वाहनों से यहां पहुंचे हैं और मामाजी की समाधि पर मस्तक नवाते हुए आशीर्वाद लिया। मामाजी के प्रति अगाध श्रद्धा रखने वाले भक्तों का यहां आगमन का सिलसिला 24 दिसम्बर से ही आरंभ हो गया था। 25 दिसम्बर को भी राजस्थान के सुदूर इलाकों से भक्तगण कई किमी दूर से पैदल यात्रा करते हुए यहां पहुंचे और भजन कीर्तन करते हुए भगवान के मंदिर में शीश नवाया।

 

*पूरी रात लगा मेला-*

मामाजी के हजारों अनुयायियों का आगमन 25 दिसम्बर से ही आरंभ हो गया। ये सिलसिला 26 दिसम्बर की दोपहर तक जारी रहा। जहां मामाजी के अनुयायियों ने पूरी रात रतजगा कर अपने आराध्य देव का स्मरण किया।

 

अमरगढ रोड स्थित भील आश्रम क्षेत्र में हार फूल, अगरबत्ती, नारियल, चाय-नाश्ता, फोटोग्राफी और विभिन्न प्रकार की सामग्री की दुकानें 24 दिसम्बर की शाम से ही लगना शुरू हो गई थी! गले में मामाजी का लॉकेट, हाथ में हार फूल और मामाजी अमर रहें के नारे लगाते महिला पुरूष व बच्चे मामाजी के आश्रम पहुंचे। जिसे जहां जगह मिली आश्रम में ठहर जाते हैं।पुण्यतिथि पर श्रद्वा-सुमन अर्पित कर वापिस अपने घरों को लौटते हैं। इन्हें यहां आने का कोई निमंत्रण नहीं देता है अपने आराध्य को शीश नवाने के लिए स्वंय दौडे चले आते है। श्रद्धा और आस्था की यह अनूठी परम्परा वर्ष दर वर्ष चली आ रही हैं।

 

*मामाजी को मानते हैं भगवान!*

बांसवाड़ा जिले से अपने साथियों के साथ 2 दिन की पदयात्रा करके यहां पहुंचे बदिया भगत ने बताया कि में पिछले 30 वर्ष से मामाजी के धाम पर आ रहा हुं। मेरे परिवार की नई पीढ़ी भी हमारे साथ आती है। मामाजी हमारे लिए भगवान हैं, कैसा भी दुख दर्द हो, खेती-बाड़ी, घर-परिवार हर जगह मामाजी का नाम लेते हैं और सब काम अच्छे से हो जाते हैं।

 

रामजी भगत बताते है यहां आश्रम में शासन-प्रशासन को मामाजी के इस धाम पर सुविधाएं करना चाहिए। इस समय हजारों की संख्या में भगत लोग आते हैं यहां बड़े भवन बन जाये तो ठहरने में सुविधा मिलने लगेगी!

 

अनुयायी कहलाने में गर्व महसूस करते है!

मामाजी से जुडे लोग बताते हैं कि जीवन में शायद ही किसी व्यक्ति ने उनकी जेब या हाथ में रूपए देखे होगें। उनके समर्थक अपने आपको उनका अनुयायी कहलाने में गर्व महसूस करते है। यह अनुयायी वर्ग ही उनके जूते-चप्पल, वस्त्र और खाने-पीने की व्यवस्था करने में गौरव अनुभव करते हैं। मामाजी एक लुंगी और बंडी में बामनिया के बाजारों और रेल्वे स्टेशन पर नंगे पांव घुमने में गुरेज नहीं करते थे। जब यह जीवन की शांत वेला में रूग्ण रहने लगे तब प्रदेश शासन ने उनके स्वास्थ्य की चिंता करते हुए जिला अस्पताल के एक चिकित्सक की डयूटी लगाई। कई बार ऐसा भी हुआ कि जब चिकित्सक उनके जांच के लिए पहुंचे और मामाजी उन्हें आश्रम की बजाय बाजार में मिलें। चिकित्सक जब उन्हें आश्रम पर चलने को कहते तो वे यह कह देते थे कि यहां भी वहीं बालेश्वर दयाल हैं जो आश्रम पर होगा। वे किसी भी बाखडे या टेबल पर लेटकर अपना चेकअप करवा लिया करते थे। मामाजी ने कभी भी शासन से मिली सुविधाओं को नहीं भोगा। वे तो हमेशा उनसे बचते रहते थे।

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*आजादी के दिनों में निकाला गोबर नामक अखबार!*

मामाजी आजादी के आंदोलन को बढावा देने के लिए बामनिया जैसे छोटे व साधनहीन गांव से अपने स्वंय का अखबार निकालते थे। उनकी स्वंय की प्रेस यानि छापाखाना था। जहां अमेरिका की एक पैडल से चलने वाली मैन्युअल प्रिंटिग प्रेस थी। जिसे छापने वाला व्यक्ति अपने पैर से चलाता था। इस मशीन से बामनिया भील आश्रम से काम की बात, गोबर जैसे साप्ताहिक अखबार भीली भाषा में प्रकाशित होते थे। यह अखबार राजस्थान के डूंगरपुर बांसवाडा, सागवाड़ा, रतलाम, सैलाना बाजना, झाबुआ, दाहोद, पंचमहल आदि क्षेत्रों में वितरित होते थे। जहां मामाजी के अनुयायी एकत्रित होकर एक-दूसरे को खबरे पढ़कर सुनाया करते थे। मामाजी ने अपनी आत्मकथा, संघर्षो की कहानी लिखी हैं। वहीं अपने अनुयायियों के प्रति अपना आध्यात्मिक फर्ज निभाते हुए भीली बोली में महाभारत व रामायण भी लिखी।

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अपने बहुआयामी कृतित्व के कारण मामाजी आज भी अपने अनुयायियों में भगवान की तरह पूजे जा रहें हैं। उनके अवसान के बावजूद भील आश्रम में अब भी ऐसा आकर्षण है कि उनकी पुण्यतिथि पर सैकडो किमी दूर से हजारों अनुयायी नंगे पैर समाधि स्थल पर आते हैं।