
Fall of the Day: दिवस का अवसान
एन के त्रिपाठी की खास प्रस्तुति
मानस पटल पर कुछ स्मृतियाँ इसलिए अंकित हो जाती हैं क्योंकि हमारी अंतर्निहित भावना उन्हें अक्षुण्ण रखना चाहती है। मुझे बचपन से आज तक सूर्यास्त का आकाश निहारने में अभिरुचि रही है। यही कारण है कि मुझे सूर्यास्त के आकाश की लालिमा की ये कक्ष 9वीं में पढ़ी पंक्तियां आज तक स्मरण हैं:
दिवस का अवसान समीप था,
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरूशिखा पर थी अब राजती,
कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा।
इसका भावार्थ है कि दिन समाप्त होने वाला था, आकाश कुछ लालिमा लिए हुए था और वृक्षों की सबसे ऊँची डालियों पर सूरज की अन्तिम किरणें झलक रही थीं। इन पंक्तियों में एक शांत वातावरण में खुले आकाश में लंबे वृक्षों के ऊपर सूर्य की लालिमा का अद्भुत चित्र समाहित है। संध्याकाल में समय उपलब्ध होने पर मैं सूर्यास्त के लिए मुक्त आकाश ढूंढता रहता हूँ।
ये पंक्तियां अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ के प्रसिद्ध महाकाव्य प्रिय प्रवास से उद्धृत हैं। अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल के कवि थे। उनमें प्रयोग करने का अदम्य साहस था। हिंदी भाषा की खड़ी बोली में उनके द्वारा रचित प्रिय प्रवास पहला महाकाव्य था। इसके पश्चात हिंदी भाषा में कविताओं का माध्यम खड़ी बोली बन गई। इस छन्द में दिन की समाप्ति के लिए दिवस का अवसान , लालिमा के लिए लोहित तथा सूर्य के लिए कमलिनी कुल वल्लभ का प्रयोग कवि की मौलिकता है।





