Film Review:जातिवाद के खिलाफ लव स्टोरी : “धड़क 2” 

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Film Review:जातिवाद के खिलाफ लव स्टोरी : “धड़क 2” 

डॉ प्रकाश हिंदुस्तानी

धड़क 2  जातिगत भेदभाव को बिना किसी लाग-लपेट के सामने लाती है।  आरक्षण और सामाजिक अन्याय के प्रति समाज के दोहरे रवैये को बखूबी उजागर करता है। फिल्म न केवल जाति, बल्कि वर्ग, लिंग, और विशेषाधिकार जैसे मुद्दों को भी छूती है। यह दिखाती है कि प्रगतिशीलता का दावा करने वाले लोग भी, जब बात अपने हितों की आती है, तो कैसे पीछे हट जाते हैं।

जातिगत भेदभाव, सामाजिक असमानता, और प्यार की जटिलताओं को एक संवेदनशील और विचारोत्तेजक ढंग से प्रस्तुत करती है।

2018 में आई फिल्म ‘धड़क’ सुपरहिट मराठी फिल्म ‘सैराट’ की रीमेक थी।

‘धड़क 2’  हिट तमिल फिल्म ‘परीयेरुम पेरुमल’ की रीमेक है।   ‘धड़क 2’ का ‘धड़क’ से सीधे तौर पर कोई लेना देना नहीं है।  यह फिल्म आपको गुदगुदाएगी नहीं, लेकिन उद्वेलित कर सकती है.

शाजिया इकबाल के निर्देशन में बनी यह फिल्म सिद्धांत चतुर्वेदी और तृप्ति डिमरी की अभिनय क्षमता के दम पर एक प्रभावशाली अनुभव बनती है, हालांकि कुछ कमियां इसे पूर्णता से थोड़ा दूर रखती हैं।

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*धड़क 2* की कहानी नीलीश (सिद्धांत चतुर्वेदी) के इर्द-गिर्द घूमती है, एक दलित परिवार से आने वाला महत्वाकांक्षी कानून का छात्र, जो एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दाखिला लेता है। वहां उसकी मुलाकात होती है विधि (तृप्ति डिमरी) से, जो एक उच्च जाति की संपन्न परिवार की बेटी है। दोनों की दोस्ती धीरे-धीरे प्यार में बदलती है, लेकिन यह रिश्ता समाज की कठोर दीवारों से टकराता है। विधि के परिवार और कॉलेज के माहौल में नीलीश को बार-बार उसकी जाति के कारण अपमानित किया जाता है।

कहानी का मूल नीलीश के संघर्ष में है—वह न केवल अपनी शिक्षा और सपनों के लिए लड़ता है, बल्कि अपनी पहचान और आत्मसम्मान को बचाने के लिए भी। विधि का किरदार इस कहानी में एक जटिल परत जोड़ता है; वह एक ऐसी लड़की है जो शुरू में प्रगतिशील दिखती है, लेकिन जब बात अपने विशेषाधिकार और परिवार के सम्मान की आती है, तो उसकी कमजोरियां उजागर होती हैं। यह फिल्म प्यार को केवल रोमांटिक लेंस से नहीं, बल्कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी देखती है, जो इसे एक गहरी संजीदगी प्रदान करता है।

शाजिया इकबाल ने बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे को पर्दे पर उतारने का साहस किया है, लेकिन अफसोस कि स्क्रिप्ट और स्क्रीनप्ले की कमजोरी के कारण वह उसके साथ न्याय नहीं कर पाईं। वहीं फिल्म का क्लाईमैक्स भी उतना दमदार नहीं बन पड़ा है। हालांकि फिल्म की सिनेमटोग्रफी ठीकठाक है, लेकिन इसका संगीत भी इसका कमजोर पक्ष है।

सिद्धांत की एक्टिंग बढ़िया लगी।   सिद्धांत चतुर्वेदी नीलीश के किरदार में जान डाल देते हैं। उनकी आंखों में एक साथ आक्रोश, दर्द, और उम्मीद झलकती है, जो दर्शकों को उनके संघर्ष से जोड़ता है। खासकर वो दृश्य जहां नीलीश को कॉलेज में “कोटा” कहकर ताने मारे जाते हैं या जब वह अपने पिता (विपिन शर्मा) के साथ अपनी जड़ों को गले लगाता है, सिद्धांत का अभिनय आपको रुला सकता है। वह अपने किरदार की गरिमा और कमजोरियों को इतनी सहजता से पेश करते हैं कि नीलीश एक किरदार नहीं, बल्कि एक जीवंत इंसान लगता है।

तृप्ति डिमरी विधि के किरदार में ठीक-ठाक हैं, लेकिन उनकी परफॉर्मेंस में वह गहराई नहीं आ पाती, जो इस जटिल किरदार के लिए जरूरी थी। विधि एक ऐसी लड़की है, जो अपनी प्रगतिशीलता और विशेषाधिकारों के बीच उलझी है, लेकिन तृप्ति के अभिनय में यह द्वंद्व पूरी तरह उभरकर नहीं आता। फिर भी, कुछ भावनात्मक दृश्यों में वह प्रभाव छोड़ती हैं।

 

सहायक कलाकारों में विपिन शर्मा नीलीश के पिता के रूप में दिल जीत लेते हैं। उनका किरदार, जो एक लोकनर्तक है और अपनी सामाजिक सीमाओं को स्वीकार करते हुए भी गर्व से जीता है, फिल्म को एक भावनात्मक आधार देता है। बाकी सहायक कलाकार, जैसे साद बिलग्रामी और मंजिरी पुपाला, अपने किरदारों को विश्वसनीय बनाते हैं।

 

संजीदा, पर थोड़ा संयमित शाजिया इकबाल का निर्देशन *धड़क 2* की सबसे बड़ी ताकत है। उन्होंने एक संवेदनशील विषय को न तो अतिनाटकीय बनाया, न ही उसे हल्का किया। फिल्म का सिनेमैटोग्राफी (मुख्य रूप से भोपाल और सिहोर में शूट) और प्रोडक्शन डिज़ाइन नीलीश की दुनिया को जीवंत करता है—चाहे वह उसका स्लम वाला घर हो या कॉलेज का अभिजात्य माहौल। शाजिया ने *परियेरम पेरुमल* के मूल सार को बरकरार रखते हुए इसे हिंदी सिनेमा के दर्शकों के लिए प्रासंगिक बनाया, जो एक मुश्किल काम था।

 

हालांकि, लेखन में कुछ कमियां हैं। फिल्म की 146 मिनट की अवधि कुछ हिस्सों में खिंचती हुई लगती है, खासकर क्लाइमेक्स से पहले के दृश्य, जो अनावश्यक रूप से भारी हो जाते हैं। अंत भी थोड़ा संयमित और कम प्रभावशाली लगता है, जैसे कि फिल्म अपनी पूरी ताकत से वह आखिरी पंच मारने से चूक गई। कुछ समीक्षकों ने इसे “बोल्डनेस की कमी” कहा है, और यह आलोचना कुछ हद तक सही भी लगती है।

 

### संगीत: दिल को छूता, पर यादगार नहीं रोचक कोहली, तनिष्क बगची, जावेद-मोहसिन, हेशम अब्दुल वहाब, और श्रेयस पुराणिक जैसे संगीतकारों की टोली ने फिल्म का संगीत तैयार किया है, लेकिन यह वह प्रभाव नहीं छोड़ पाता, जो एक धर्मा प्रोडक्शन की फिल्म से उम्मीद की जाती है। “बस एक धड़क”, “प्रीत रे”, और “दुनिया अलग” जैसे गाने लिरिक्स के मामले में मजबूत हैं, लेकिन melodi में वह जादू नहीं जो आपको सिनेमाघर से बाहर निकलने के बाद भी गुनगुनाने पर मजबूर करे। बैकग्राउंड स्कोर कहानी के भावनात्मक उतार-चढ़ाव को अच्छे से संभालता है, लेकिन यह भी बहुत यादगार नहीं है।

 

फिल्म यह भी पूछती है कि क्या प्यार सामाजिक बंधनों को तोड़ सकता है, और इसका जवाब जितना रोमांटिक है, उतना ही वास्तविक भी। नीलीश और विधि का रिश्ता केवल एक प्रेम कहानी नहीं, बल्कि समाज की गहरी खामियों का आईना है।

 

 

कमियां: कहां चूक गई फिल्म? – **लंबाई**: फिल्म की अवधि कुछ दृश्यों को अनावश्यक रूप से लंबा खींचती है, जिससे गति प्रभावित होती है।[]- **क्लाइमेक्स**: अंत में फिल्म थोड़ा सुरक्षित रास्ता चुनती है, जो इसके साहसी टोन से मेल नहीं खाता।

 

**तृप्ति का अभिनय**: विधि के किरदार की जटिलता को तृप्ति पूरी तरह नहीं पकड़ पातीं, जिससे कहानी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा कमजोर पड़ता है।[

 

– **संगीत**: एक धर्मा फिल्म से उम्मीद की जाती है कि संगीत चार्टबस्टर हो, लेकिन यहां वह कमी खलती है।[]

 

*धड़क 2* एक ऐसी फिल्म है जो अपने इरादों में सच्ची और प्रभावशाली है। यह समाज के उन घावों को उजागर करती है, जिन्हें हम अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं, और सिद्धांत चतुर्वेदी के शानदार अभिनय के दम पर यह दर्शकों के दिल तक पहुंचती है। हालांकि, कुछ कमियां—

—इसे उस उत्कृष्टता से थोड़ा दूर रखती हैं, जो यह हासिल कर सकती थी। फिर भी, यह एक ऐसी फिल्म है जो आपको सोचने पर मजबूर करेगी, और शायद कुछ असहज सवालों का सामना करने के लिए प्रेरित भी। अगर आप एक ऐसी फिल्म देखना चाहते हैं जो मनोरंजन के साथ-साथ समाज की सच्चाई से रूबरू कराए, तो *धड़क 2* आपके लिए है। लेकिन तैयार रहिए—यह आपका

दिल धड़काएगी, और शायद थोड़ा तोड़ेगी भी।[