Flashback: आरक्षण विरोधी आंदोलन और ग्वालियर के वो दिन!

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Flashback: आरक्षण विरोधी आंदोलन और ग्वालियर के वो दिन!

ग्वालियर का आरक्षण विरोधी आंदोलन मध्यप्रदेश का अभी तक का अभूतपूर्व आंदोलन था। उस आंदोलन के समय पुलिस अधीक्षक होने के नाते मुझे शारीरिक, मानसिक और नेतृत्व करने की पराकाष्ठा से गुज़रना पड़ा।

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15 अगस्त, 1990 को प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने ‘सामाजिक शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग’ को शासकीय सेवा एवं शिक्षण संस्थानों में 27% आरक्षण दिए जाने की घोषणा कर दी। प्रारंभ में इस घोषणा का सवर्णों द्वारा छिटपुट विरोध किया गया। 19 सितंबर को दिल्ली में देशबंधु कॉलेज के छात्र राजीव गोस्वामी ने सार्वजनिक रूप से आत्मदाह कर लिया।उस समय रंगीन टीवी का तेज़ी से प्रसार होने के कारण दिल्ली सहित उत्तर भारत के अनेक स्थानों पर आत्मदाह बार बार देखा गया। उग्र आंदोलन प्रारंभ हो गया जिसमें सवर्ण छात्रों के अतिरिक्त बेरोज़गार युवा भी सम्मिलित हो गए।

अगले दिन सुबह छह बजे के क़रीब कंट्रोल रूम ने बताया कि शहर में जगह जगह पथराव होने की ख़बर आ रही है। ग्वालियर में ऐसी प्रतिक्रिया की कल्पना हमने नहीं की थी। मैं तुरंत वर्दी पहन कर ग्वालियर कलेक्टर श्री अजयनाथ के निवास पर पहुँचा वहीं से हम दोनों ने कंट्रोल रूम तथा अनेक अधिकारियों को आवश्यक निर्देश देना शुरू कर दिया। सांप्रदायिक तथा अन्य स्थितियों में शहर के कुछ क्षेत्र विशेष में समस्या उत्पन्न होती है परंतु इस बार शहर का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं था जहाँ पथराव न हो रहा हो।

पथराव सभी प्रकार की छोटी बड़ी सरकारी इमारतों, कार्यालयों यहाँ तक कि पोस्ट ऑफिसों पर होने लगा।सभी पुलिस अधिकारी स्तब्ध थे। मैंने सभी CSP को उपलब्ध अधिकारियों तथा बल के साथ आंदोलनकारियों को खदेड़ने के निर्देश दिए जिसमें केवल आंशिक सफलता मिली। लगभग 8 बजे मैं और कलेक्टर इंदरगंज थाना स्थित ( मिनी) कंट्रोल रूम पहुँचे और लगातार निर्देश देते रहें। बीच बीच में शहर का भ्रमण करते हुए स्वयं भी सड़क पर उतरकर स्थिति संभालने का कार्य करने लगे।

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ग्वालियर IG श्री ए एस बल ने भोपाल को स्थिति बताकर PTS तिघरा और SAF का फ़ोर्स देने के लिए कहा परंतु उनके आने में काफ़ी समय था। धारा 144 और कर्फ्यू लगाने का प्रयास फ़ोर्स की कमी के कारण विफल हो गया और रात तक पथराव बंद नहीं हुआ। देर रात्रि को फ़ोर्स की स्थिति को समझ कर कुछ ही घंटो बाद आने वाली सुबह की व्यवस्था के आदेश लिखित और फ़ोन पर जारी किये।

दिन भर की गतिविधियों का कलेक्टर के साथ एक संयुक्त वायरलेस भोपाल कंट्रोल रूम और वरिष्ठ अधिकारियों को भेजा क्योंकि ऐसी स्थितियों में रिकॉर्ड बहुत आवश्यक होता है।सुबह लगभग 4 बजे 22 घंटे की ड्यूटी के बाद मैं घर पहुँचा और थोड़ा सा विश्राम कर पुन: तैयार होकर छह बजे फिर कंट्रोल रूम पहुँच गया।पथराव फिर शुरू हो गया।

पहले दिन पुलिस बिना किसी योजना के कार्रवाई कर रही थी। अगले दिन भी थकी हुई पुलिस के पास कुछ बाहरी फ़ोर्स आ जाने के बाद भी स्थिति कुछ ठीक नहीं हुई।मेरे पहेले रह चुके DIG श्री आर एल वर्मा के सुझाव पर दूसरे दिन सुबह आधे पुलिस फ़ोर्स को आराम के लिए घर भेज दिया है और उन्हें रात 8 बजे फिर रिपोर्ट करने के लिए कहा। सरकारी भवनों और वाहनों को काफ़ी क्षति हुई थी।

तीसरे दिन से लश्कर क्षेत्र में प्रभावी कर्फ्यू तथा मुरार और ग्वालियर क्षेत्र में धारा 144 का सख़्ती से पालन शुरू हो गया। मेरे निर्देश पर शहर के तीनों CSP अपने साथ बड़ा फ़ोर्स गाड़ियों में लेकर लगातार गश्त करने लगे और कर्फ्यू का उल्लंघन करने वालों दंगाइयों पर गाड़ी से उतरते ही लाठीचार्ज करने लगे। कलेक्टर अजयनाथ एक ग़ज़ब के जाबांज अधिकारी थे और जो हेलमेट पहन कर स्वयं डंडा चलाते थे।

मैं और कलेक्टर PTS के रिक्रूट साथ लेकर पूरे शहर में घूमते थे और कर्फ्यू का उल्लंघन करने वालों से बहुत सख़्ती से निपटते थे। रिक्रूट अंदर की गलियों में भी दौड़कर दंगाइयों को पकड़ लाते थे। पुलिस का मनोबल वापस लौट आया। लेकिन पूरे उत्तर भारत सहित ग्वालियर का आंदोलन समाप्त होने के कोई लक्षण नहीं दिख रहे थे।

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आंदोलन के सातवें दिन ग्वालियर के हृदयस्थल बाड़े में एक नौजवान अखिलेश पांडे ने आत्मदाह कर लिया। प्रतिक्रिया में आन्दोलनकारियों ने पूरे दम से अब पुलिस पर हमला करना शुरू कर दिया। राष्ट्रीय और स्थानीय प्रेस की रिपोर्टिंग इस प्रकार की थी कि जिससे छात्रों को और संबल मिलता था। संगठित पथराव और संघर्ष से तो पुलिस लगातार निपट रही थी पर छापामारी जैसी कार्रवाइयाँ शुरू हो गईं।

दर्पण कॉलोनी के एक सरकारी कार्यालय में उसी कार्यालय के वरिष्ठ अधिकारियों के बच्चों ने रात में चुपचाप आग लगा दी। कुछ दिनों बाद दूर दराज़ के अनन्तपेठ रेलवे स्टेशन पर तोड़फोड़ की गई। रेलवे कॉलोनी के लड़कों ने लोकों में खड़े रेलवे इंजन में आग लगा दी जो गंभीर घटना थी। इस तरीक़े की घटनाओं को मीडिया में पुलिस की भारी विफलता बताया जाता था जो उस समय अथक परिश्रम करने वाली पुलिस के लिए आलोचना सहने की भी परीक्षा थी।

आंदोलन में बीच बीच में कुल मिलाकर नौ आत्मदाह हुए जो आंदोलन को बार बार नई ऊर्जा देते रहते थे।कुछ जले हुए लोगों को BSF के हवाई जहाज़ से दिल्ली इलाज के लिए भेजा जाता था। मेडिकल कॉलेज के छात्र आग से जले हुए दूसरे लोगों को भी आंदोलन से जोड़ने का प्रयास करते रहते थे।इस आंदोलन में यह भी देखा गया कि ग़ैर सवर्ण पुलिस अधिकारियों की कार्रवाई से आंदोलनकारी और भड़क जाते थे।इतनी बड़ी पुलिस कार्रवाई में कुछ अन्य समस्याएं भी आ खड़ी होती है।

ऐसे ही एक घटना में कर्फ्यू पास दिखाने पर भी किसी पत्रकार के साथ पुलिस के दुर्व्यवहार की शिकायत थी। राकेश अचल के नेतृत्व में युवा पत्रकार राकेश पाठक, प्रफुल्ल नायक, साबिर अली आदि इंदरगंज कंट्रोल रूम के सामने एकत्र हो गए और अपने कर्फ्यू पास फेंक कर धरने पर बैठ गए।इन्हें मैंने काफ़ी समझा बुझाकर उठाया। दशहरे के जुलूस के आयोजकों से लंबी बात कर रात के स्थान पर दिन में जलूस निकलवाया।

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कर्फ्यू और धारा 144 और गिरफ्तारियों के साथ-साथ पथराव, आगज़नी और लाठीचार्ज का सिलसिला लगातार जारी रहा। कांशीराम की सभा को छात्रीबाग में अनुमति दी गई, परंतु उस समारोह के कारण अत्यधिक उत्तेजित और ख़तरनाक बड़ी भीड़ को तितर बितर करने के लिए तत्कालीन ADM आखिलेंदु अरजरिया और CSP रवींद्र सिंह चौहान को अत्यंत वीरता का प्रदर्शन करना पड़ा।

मेरा और कलेक्टर अजयनाथ का काफ़ी समय इंदरगंज कंट्रोल रूम में बीतता था जहाँ भोजन और थोड़ा बहुत विश्राम हो जाता था। कर्फ्यू में शहर का राउंड लगा कर कभी-कभी जीवाजी क्लब खुलवा कर हम लोग बिलियर्ड्स भी खेल लेते थे। शहर में गाड़ी या पैदल घूम कर कर्फ्यू का उल्लंघन करने वालों पर डंडे से कार्रवाई करते थे। लगातार लाठी चार्ज के कारण कभी भी गोली चालन की नौबत नहीं आयी।

एक देर रात फूलबाग़ चौराहे पर रूक कर पिकेट पर लगे एक सिपाही से मैंने उसका हाल चाल पूछा तो उसने बताया कि मैं रिटायर हो जा रहा हूँ परन्तु मैंने कभी ऐसी ड्यूटी नहीं देखी।रिटायरमेंट के पहले मेरी छुट्टी भी मंज़ूर थी और मैं घर जा सकता था। मैंने उससे पूछा कि वह घर क्यों नहीं गया तो उसने भावुक होकर कहा कि जब मैंने आपको दिन रात सड़कों पर ड्यूटी करते देखा तो घर जाने का मन नहीं हुआ और इस बुढ़ापे में भी ईमानदारी से ड्यूटी कर रहा हूँ।

लगभग दो माह बाद 10 नवम्बर, 1990 को विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अल्पमत में आ जाने के कारण इस्तीफ़ा दे दिया और बाहर से कांग्रेस समर्थित चंद्रशेखर ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। इसी के साथ आंदोलन समाप्त हो गया।