Flashback: बचपन की यादों में समाया बनारस

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बचपन में पिताजी की तीन वर्ष की बनारस की पदस्थापना के दौरान मुझे वहाँ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।वहाँ से मैंने आठवीं और हाई स्कूल की परीक्षा पास की। यह जीवन का वह समय था जब बचपन के सपनों के साथ-साथ संसार की वास्तविकता से भी परिचय होता है। इन तीन वर्षों की स्वर्ण स्मृतियाँ आज भी मानस पटल पर पूर्णतः अक्षुण्ण है।

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बनारस धार्मिक व सांस्कृतिक क्षेत्र में काशी के नाम से जाना जाता है। उस समय अनेक पवित्र पर्वों पर काशी के केंद्र बिंदु दशाश्वमेध घाट पर गंगा स्नान तथा काशी विश्वनाथ के दर्शन करने का सुअवसर मुझे मिला। घर में आए हुए मेहमानों को इन स्थानों पर ले जाना नियमित कार्यक्रम था।

मनोवांछित फल देने वाले संकट-मोचन मंदिर का दर्शन अनिवार्य माना जाता है। राम नगर का विख्यात दशहरा देखने तथा धनुष बाण ख़रीदने का अवसर प्राप्त हुआ। बनारस से लगा हुआ सारनाथ अत्यंत रमणीक तथा गौतमबुद्ध के प्रथम उपदेश से जुड़ा हुआ स्थान है। यहीं पर स्थित अशोक का स्तूप तथा अन्य ऐतिहासक भग्नावशेष अपना विशेष महत्व रखते हैं।विश्व प्रसिद्ध चक्र और चार शेरों वाला अशोक स्तम्भ यहीं पर है। सारनाथ से मेरा प्रगाढ़ आकर्षण था।

बनारस उत्तर भारत का एक बहुत बड़ा कला तथा संगीत का केन्द्र भी है। उस समय मुझे कई बार यहाँ पर उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ की शहनाई तथा पंडित किशन महाराज का तबला खुले कंसर्ट में सुनने का अवसर प्राप्त हुआ।अनेक अन्य शास्त्रीय गायकों को भी मैंने यहाँ सुना। बनारस की जनता शुद्ध शास्त्रीय संगीत को भोर तक तन्मय होकर सुनती थी।उस समय मैं तबला वादन भी करता था इसलिए मेरी रुचि ऐसे संगीत समारोहों में रहती थी।

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1962 के भारत चीन युद्ध की स्मृतियाँ आज भी स्पष्ट हैं। उस समय आकाशवाणी पर देश भक्ति के अनेक कार्यक्रम आते थे। स्कूल में भी देशभक्ति का वातावरण बन गया था। राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए धन एकत्रित करने के लिए नरगिस अन्य सिने कलाकारों के साथ बनारस आईं। इन सिने कलाकारों का कार्यक्रम देखने का अवसर प्राप्त हुआ। नरगिस व उनकी एक सहायक शाल फैला कर प्रथम कुछ पंक्तियों के समक्ष से निकली तब मैंने अपनी छोटी सी अंगूठी उनके शाल में डाल दी।

बनारस का साहित्य में विशेष स्थान रहा है। बनारस से लगे ग्राम लमही के महान कहानीकार मुंशी प्रेमचंद के पुत्र अमृत राय मेरे पिताजी के पास आते रहते थे और उन्होंने प्रेमचंद ज़ी का समस्त साहित्य उन्हें भेंट किया था। महान साहित्यकार जयशंकर प्रसाद के पुत्र रत्न शंकर जी ने भी उनका पूरा सहित्य मेरे पिताजी को भेंट किया।

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इन दोनों हिन्दी के महान साहित्यकारों, जो विश्व के अनेक नोबल पुरस्कार धारकों से कहीं अधिक विलक्षण थे, की समस्त पुस्तकें आद्योपांत मैंने उसी समय बहुत चाव से पढ़ डालीं।बाद में मेरठ आने पर वहाँ संभागीय इंटरमीडिएट कॉलेजों में स्वेच्छा से किसी भी विषय पर निबंध लिखने की प्रतियोगिता हुई। प्रतियोगिता में मैंने ‘जयशंकर प्रसाद का काव्य सौष्ठव’ नामक निबंध लिखा जिसे सौभाग्यवश प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ।

बनारस से पूर्वी भारत प्रारंभ होता है।मेरे पिताजी को देशाटन में काफ़ी रुचि थी। उस समय यात्राएं करने का अधिक चलन नहीं था, फिर भी मुझे उनके साथ दार्जिलिंग जाने का अच्छा अवसर मिला और पहाड़ों से मेरा प्रेम प्रारंभ हुआ। उस समय भारत के मेट्रो में कलकत्ता का स्थान सबसे अग्रणी था।वहाँ तथा जगन्नाथ पुरी जाने का मुझे बनारस से अवसर मिला।

इन स्थानों के साथ-साथ बनारस के दक्षिण में लगे हुए विंध्य क्षेत्र के जंगलों और झरनों को देखने का अच्छा अनुभव प्राप्त हुआ।

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उस काल की सबसे सुखद स्मृतियाँ अपने स्कूल से जुड़ी हैं। हमारे स्कूल का नाम जे पी मेहता इंटरमीडिएट कॉलेज, वाराणसी था जिसमें छठवीं से बारहवीं तक की लड़कों की कक्षाएं थी। हमारे शिक्षक बेहद निष्ठावान थे और मुझे याद नहीं है कि कभी भी किसी पीरियड में कोई शिक्षक अनुपस्थित हुआ हो। सभी शिक्षक बहुत परिश्रम से विषय पढ़ाते और समझाते थे।

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संस्कृत के अध्यापक तो कॉलेज के पीछे बरना नदी के किनारे पेड़ के नीचे कक्षा लेते थे तथा पाठ्यक्रम के साथ-साथ महाभारत की कहानियाँ भी विशेष शैली में सुनाते थे।आधी छुट्टी में भीगा चना खाने के लिए बंटता था। स्कूल की छुट्टी के बाद पैदल घर जाते हुए रास्ते में बेर के बग़ीचे में पत्थरों से बेर तोड़कर खाने का अपना अलग आनंद था।

मुझे अपने अन्य सहपाठियों की याद है जो इस स्कूल के बाद फिर कभी नहीं मिले। हाई स्कूल की परीक्षा देने के उपरांत मेरे पिताजी का स्थानांतरण मेरठ हो गया और हाई स्कूल परीक्षा का परिणाम मेरठ में ही पता चला।अपनी आशातीत सफलता पर मुझे आश्चर्य हुआ।

कुछ वर्षों बाद जब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था उस समय स्कूल के प्रिंसिपल साहब ने पता लगाकर विशेष रूप से मुझे बुलाकर सम्मानित किया। हाईस्कूल में मेरा परिणाम स्कूल में उस समय तक का एक रिकॉर्ड था।

40 वर्षों बाद जब मैं सपरिवार पूर्वी उत्तर प्रदेश के भ्रमण पर गयी तब बनारस के सभी महत्वपूर्ण स्थलों के साथ-साथ थोड़ा बदले-बदले हुए स्कूल में अपनी कक्षाओं को भी देखने गया।

बनारस की उन्मुक्त जीवनशैली, भोजपुरी भाषा और रंग मस्ती का गहरा प्रभाव मैं अपने अंदर आज भी अनुभव करता हूँ।