पूर्व में मैंने बताया था कि किस प्रकार DIG उज्जैन के पद पर जिन अधिकारी से मैंने प्रभार लिया था उन्हीं को 2 महीने बाद फिर से अकारण प्रभार देना पड़ा।मैंने यह भी बताया था कि किस प्रकार तत्कालीन प्रमुख सचिव गृह श्री के एस शर्मा के सर्किट हाउस में हुई असुविधा के कारण मुझसे बहुत नाराज़ हो गए थे। संयोग देखिए कि मेरा स्थानांतरण उज्जैन से अपर सचिव, गृह विभाग हो गया जहाँ पर श्री शर्मा ही सीधे मेरे बॉस थे।मेरे ही बैच के IAS व घनिष्ठ मित्र ख़ुशीराम जी ने मुझे बताया कि वे श्री शर्मा के अधीन कार्य कर चुके हैं और वे ब्यूरोक्रेसी की भाषा में हार्ड टास्क मास्टर हैं।श्री ख़ुशीराम जी का अनुभव अच्छा नहीं रहा था।वास्तव में श्री शर्मा एक ईमानदार, परिश्रमी और नियमानुसार कार्य करने वाले प्रतिष्ठित अधिकारी थे।
स्थानांतर होते ही मैं तुरंत उज्जैन से अपना सामान लेकर भोपाल पहुँच गया और 1 फ़रवरी, 1992 को सचिवालय में उदास मन से अपना नया प्रभार ले लिया।बटालियन के गोडाउन में अपना सामान रखकर पुलिस मैस में सपरिवार रहने लगा। अपनी दोनों बच्चियों का एक ही सत्र में तीसरे केंद्रीय स्कूल में एडमिशन करवाना पड़ा। प्रारंभ में मैं सचिवालय ठीक 10 बजे पहुँच जाता था और पाँच बजे पूरा काम निपटाकर वापस आ जाता था।पुलिस मुख्यालय में चार वर्ष तक ऑफिस का कार्य करने के कारण मुझे सचिवालय में कोई कठिनाई नहीं हुई।
सचिवालय के मेरे पूर्ववर्ती IPS अधिकारी ने चार इमली स्थित बंगला D4/12 ख़ाली कर दिया था। मकानों का आवंटन गृह विभाग से ही होता था। मैंन श्री शर्मा जी से वह घर मुझे आवंटित करने के लिए निवेदन किया। इस पर उन्होंने सख़्त अंदाज़ में कहा कि कौन सा घर किसको देना है ये आप का काम नहीं है। एक माह मेस में रहने के बाद मुझे चार इमली में E टाइप मकान आवंटित किया गया जिसकी लोकेशन भी ठीक नहीं थी। फिर भी मैं अपना सामान लेकर उस घर में चला गया।
वल्लभ भवन में मेरे अधीन B4 सेक्शन था जो IPS छोड़कर समस्त पुलिस की स्थापना का कार्य देखता था। प्रारंभ में मुझे सचिवालयीन सेवा से पदोन्नत अपने उप सचिव बी एल शर्मा का अच्छा सहयोग मिला।मुझे दो पीए मिले थे जिसमें से एक कर्मचारी नेता होने के कारण कोई काम नहीं करते थे। परन्तु दूसरे पीए आर डी सोलंकी बहुत परिश्रमी और अपने कार्य में दक्ष थे। वे हिंदी डिक्टेशन बहुत अच्छा लेते थे और बहुत सही टाइप करके देते थे। फाइलों पर इंग्लिश में टीप मैं अपने हाथ से लिखता था और बड़ी टीप होने पर हिंदी में डिक्टेशन देता था। मैं सभी फाइलें बहुत सतर्कता से देखकर ही श्री के एस शर्मा को आदेशार्थ अग्रेषित करता था।
श्री शर्मा प्रत्येक शुक्रवार को अपने अधीन सभी अधिकारियों की एक बैठक लेते थे जिसमें गृह विभाग में प्राप्त पेंडिंग काग़ज़ों की संख्या के बारे में विशेष रूप से चर्चा होती थी।मेरे अधीन सेक्शन में 2000 से अधिक काग़ज़ पेंडिंग थे। ये वो कागज़ थे जो मेरे सेक्शन में प्राप्त हुए थे परंतु उन्हें पढ़ कर उस पर कोई भी कार्रवाई तक नहीं की गयी थी। श्री शर्मा ने मुझे सख़्त निर्देश दिए कि इन सभी प्रकरणों का शीघ् निपटारा किया जाए। मैंने उप सचिव के साथ इनके निपटारे के लिए स्ट्रैटजी बनायी। सबसे पहले उन काग़ज़ों का निराकरण किया गया जिन्हें पढ़ कर केवल मेरे स्तर पर समाप्त ( नस्तीबद्ध) किया जाना था।
इन कागज़ों को पढ़ने में भी काफ़ी समय लगाना पड़ता था और मंत्रालय में देर तक बैठना पड़ता था, परंतु पेंडिंग काग़ज़ों की संख्या क़रीब 1000 रह गई। इसके बाद ऐसे पत्रों को लेना शुरू किया जिसमें फाइलें प्रमुख सचिव श्री शर्मा को प्रेषित की जानी थी तथा कोई उपयुक्त कार्रवाई की जानी थी या पुलिस मुख्यालय को निर्देश दिए जाने थे। अंत में ऐसे प्रकरण लिए जिनमें पत्रों को बहुत गंभीरता पढ़ कर नियमों के परिप्रेक्ष्य में परीक्षण कर डिक्टेशन दिए जाने थे। ऐसे पत्र पुलिस अधिकारियों द्वारा उनकी गोपनीय चरित्रावली में दी गई विपरीत टिप्पणी के विरुद्ध अभ्यावेदन, सीनियरिटी फिक्स करने अथवा अन्य सेवा संबंधी उलझे हुए अभ्यावेदन थे।
इनमें से कुछ प्रकरण तो 5 वर्ष से लंबित थे और संबंधितों को न्याय नहीं मिल रही था। ऐसे प्रकरणों में सभी पक्षों के तर्कों तथा संबंधित नियमों का अध्ययन करने के लिए फ़ाइलें घर लाकर पढ़ता था।अगले दिन कार्यालय में विस्तृत डिक्टेशन सोलंकी जी को देता था।यह कार्य हम दोनों के लिए बहुत श्रम साध्य था। इतने पुराने प्रकरणों पर मेरी विस्तृत टीप पर श्री शर्मा के भी स्पष्ट आदेश आते थे। इन प्रकरणों के निराकरण से जिन अधिकारियों को न्याय मिलता था वे धन्यवाद देने के लिए मेरे पास आते थे।अन्य ऐसे अधिकारी भी आने लगे जिनके प्रकरण अभी भी पेंडिंग थे।पेंडिंग काग़ज़ों की संख्या 100 से भी कम हो गई। दो महीने में पूरे सेक्शन में केवल नये आने वाले प्रकरण ही निराकरण के लिए रह गए। यह एक दुर्लभ एवं सुखद स्थिति थी।
उसी समय एक दिन श्री शर्मा ने मुझे अपने कक्ष में बुलाया और कहा कि मैंने आपको D4/12 मकान ( जो अभी तक ख़ाली पड़ा था) आवंटित कर दिया है। इसके कुछ ही दिनों के बाद उन्होंने मुझे B3 सेक्शन भी दें दिया जिसमें पुलिस बजट के अतिरिक्त पुलिस हाउसिंग कार्पोरेशन, फ़ायर बिग्रेड तथा मेडिकोलीगल इंस्टीट्यूट इत्यादि भी आते थे। स्पष्ट था कि श्री शर्मा मेरे कार्य से अब प्रसन्न हो गये थे।
कुछ महीनों के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री सुंदरलाल पटवा ने मुख्य सचिव श्रीमती निर्मला बुच को तब के अविभाजित मध्य प्रदेश के कुछ बड़े ज़िलों को विभक्त कर 16 नए पुलिस ज़िले बनाने का निर्देश दिया। इसमें शर्त यह थी कि कोई अतिरिक्त पुलिस बल स्वीकृत नहीं किया जाएगा और नए प्रस्तावित ज़िलों के मुख्यालय और पुलिस लाइन इत्यादि का प्रबंध भी वर्तमान व्यवस्था से ही करना होगा। मुझे क़रीब 11 बजे प्रमुख सचिव श्री शर्मा ने अपने कक्ष में बुलाया और इन 16 ज़िलों के प्रस्ताव अगले दिन उनके समक्ष प्रस्तुत करने के लिए कहा।
उन्होंने मुझसे कहा कि वे जानते हैं कि इतने कम समय में बिना पुलिस मुख्यालय से प्रस्ताव बुलाए व्यावहारिक प्रस्ताव बनाना लगभग असंभव है, परन्तु आप प्रयास करें।मैं अपने कक्ष में आया और संबंधित ज़िलों के आंकड़ों को विभिन्न स्रोतों से एकत्र करना शुरू किया तथा पुलिस मुख्यालय की स्थापना तथा प्रबंध शाखाओं से आवश्यक जानकारी प्राप्त करता रहा। इस प्रस्ताव की रूपरेखा जितनी बन सकती थी उतना डिक्टेशन भी देना शुरू किया।फिर भी जब प्रस्ताव देर शाम तक कोई रूप में नहीं ले सका तो मैं अपनी फ़ाइलें लेकर पुलिस मुख्यालय की स्थापना शाखा में चला गया और वहीं अपने पुराने स्टाफ़ की मदद से कार्य करने लगा।
रात लगभग 3 बजे प्रस्ताव का स्पष्ट चित्र सामने आ गया। सुबह जल्दी वल्लभ भवन पहुंचकर मैंने बचे हुए मुख्य भाग का डिटेक्शन पूरा किया तथा 12 बजे प्रस्ताव की फ़ाइल लेकर श्री शर्मा के कक्ष में गया।उन्होंने प्रस्ताव को देखा और प्रसन्न होकर मुझसे कहा कि मेरे साथ मुख्य सचिव श्रीमती बुच के कक्ष में चलिए। उन्होंने प्रस्ताव मुख्य सचिव को दिया और उसका पूरा श्रेय मुझे देकर मेरी प्रशंसा भी की।यह उनकी उदारता थी।
इसके कुछ ही दिनों बाद जब श्री शर्मा को यह पता चला कि उज्जैन में हुई उनकी असुविधा के लिए मैं ज़िम्मेदार नहीं था तो उसके बाद से उनका और भी अधिक अपार स्नेह मुझे मिलता रहा है।