Flashback : मजदूर आंदोलन का वो दौर और हिंसा का सामना

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Flashback : मजदूर आंदोलन का वो दौर और हिंसा का सामना

कल्याण मिल की जिस हिंसक घटना का मैंने सामना किया था, वह उस दौर की थी जब 21 मार्च, 1977 को इमरजेंसी हटने के बाद देश में सभी प्रकार की अराजकता छा गई थी। प्रेशर कुकर से निकली भाप के समान के सभी क्षेत्रों में विरोध की लहर आ गई थी।

श्रमिक क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं था। कानपुर की श्रमिक अशांति में लाल इमली फ़ैक्ट्री के गेट पर एक DSP की हत्या कर दी गई थी।इंदौर में भी मालवा मिल, हुकुमचंद मिल, भंडारी मिल, कल्याण मिल और राजकुमार मिल में अपनी अपनी माँगो को लेकर घेराव, गेट मीटिंग और जुलूसों का लंबा सिलसिला चल पड़ा था।अन्य श्रमिक संगठनों की तुलना में कम्युनिस्ट पार्टी से संबद्ध AITUC बहुत आक्रामक था।

श्रमिकों के आक्रामक जुलूस अक्सर निकला करते थे। जुलूस में उनके नारे “चाहे जो मज़बूरी हो, माँग हमारी पूरी हो”, “8 33 का बोनस दो”, “हल्ला बोल” और “लाल सलाम” आदि थे। इंदौर का समस्त श्रमिक क्षेत्र मेरे CSP अधिकार क्षेत्र में आता था और इसलिए बार- बार पुलिस बल के साथ मुझे मिलों में जाना पड़ता था।श्रमिकों की समस्याएँ, ट्रेड यूनियन तथा मैनेजमेंट की बारीकियाँ मुझे समझ में आने लगी।

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1978 के गणेश विसर्जन से कुछ दिन पहले कल्याण मिल में AITUC ने एक मज़दूर के चार सांचों ( लूम) से कम पर काम करने तथा वेतन बढ़ाने की माँग को लेकर हड़ताल की घोषणा कर दी। फ़ैक्ट्री के मैनेजमेंट ने अपने पक्ष के तथा कुछ बाहर से लाए गए श्रमिकों के द्वारा कारख़ाना चालू रखने का प्रयास किया।

कल्याण मिल के गेट पर AITUC के कामरेड कपूर 11 बजे दिन को इस हड़ताल को सफल बनाने के लिए अपने भाषण से श्रमिकों को भड़का रहे थे।उत्तेजित श्रमिकों ने फ़ैक्ट्री के अंदर जाकर मैनेजमेंट के पक्ष के मज़दूरों का काम जबरन बन्द करवा दिया और मैनेजर पंड्या तथा मैनेजर ख़ान की बेरहमी से पिटाई कर दी। घबराए मैनेजमेंट के लोगों ने अपने को आफ़िस बिल्डिंग में बंद कर लिया और पुलिस कंट्रोल रूम से सहायता की माँग की।

पुलिस कंट्रोल रूम में पुलिस अधीक्षक श्री आर एल एस यादव द्वारा शहर के सभी पुलिस अधिकारियों की मीटिंग ली जा रही थी।इस मीटिंग से निकल कर मैं कल्याण मिल पहुँचा।वहाँ पर परदेशीपुरा थाने के TI नृपाल सिंह, जो एक बहुत दबंग और साहसी पुलिस अधिकारी थे, गेट पर कुछ चंद सिपाहियों के साथ पहुँच चुके थे।

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उन्हें लेकर मैं फ़ैक्ट्री के कैम्पस के अंदर आफिस ब्लॉक पहुँचा तथा एकत्र भीड़ को शांत रहने के लिए कहा। मैनेजमेंट को ऑफ़िस का दरवाज़ा खोलने के लिए कहा। इसी बीच में भीड़ के पीछे से पत्थर आना शुरू हो गए और भीड़ के सामने अनेक श्रमिक लोहे की रॉड लेकर आ गये।

ऐसी स्थिति में मैनेजमेंट से किसी तरह दरवाज़ा खुलवा कर मैं और नृपाल सिंह आफिस के अंदर गए और दरवाज़ा बंद कर लिया। वायरलेस से मैंने कंट्रोल रूम को पूरी स्थिति बतायी और समस्त उपलब्ध पुलिस फ़ोर्स भेजने के लिए कहा। कुछ उत्तेजित श्रमिक अपनी सब्बल से ऑफ़िस के मज़बूत दरवाज़े पर प्रहार करने लगे।

खिड़की के अंदर से हम श्रमिकों को समझा कर और डाँट कर उन्हें उलझाये रखने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन ऑफ़िस पर पथराव बढ़ता गया। स्थिति बेहद तनावपूर्ण थी और दरवाज़ा टूट जाने पर कुछ भी हो सकता था।

सौभाग्यवश थोड़ी ही देर में स्वयं प्रतिभाशाली पुलिस अधीक्षक श्री यादव मीटिंग से उठकर शहर के सभी CSP और TI के साथ गेट पर आ गए और कुछ ही देर में पर्याप्त पुलिस बल भी बाहर गेट पर पहुँच गया।भीड़ के नहीं मानने पर स्वयं SP साहब के नेतृत्व में एक ज़ोरदार लाठीचार्ज गेट से कैम्पस की तरफ़ प्रारंभ हुआ।

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मैं और नृपाल सिंह बाहर निकल आए और मैंने SP साहब को पीछे जाने का निवेदन किया और मैंने लाठीचार्ज का आगे से नेतृत्व ले लिया। भीड़ के धक्के से मैं ज़मीन पर गिर भी गया था लेकिन संभलकर पुन: कार्यरत हो गया। थोड़ी ही देर में भीड़ बिखर कर सड़क पर दोनों दिशाओं में भाग कर वहाँ से पथराव करने लगी।

पुलिस बल बीच में रह गया। एक दिशा में स्वयं SP साहब ने भीड़ को भगा दिया और दूसरी तरफ़ की भीड़ को मैंने खदेड़ दिया गया। SP साहब के नेतृत्व में पुलिस बल का शीघ्र आना और उनके द्वारा तुरंत कार्रवाई करने से स्थिति नियंत्रण में आ गई।

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जो लोग पुलिस के घेरे में आ गये उनकी गिरफ्तारियां शुरू कर दी गई। कुल मिलाकर 47 लोगों को गिरफ़्तार किया गया जिसमें कॉमरेड नेता प्रीतम चौकसे, अर्जुन सिंह हाड़ा और कपूर भी थे।गिरफ़्तार लोगों में मनोहर लिंबोदिया भी थे जो आगे चलकर एक सफल पत्रकार और मेरे शुभचिंतक बन गए।गिरफ़्तार लोगों को पहले पलासिया और सदर बाज़ार थाने भेजा गया और वहाँ से उन्हें जेल भेज दिया गया।

दंगाइयों के विरुद्ध बलबे के अतिरिक्त हत्या के प्रयास का प्रकरण भी क़ायम किया गया और न्यायालय में ज़ोरदार पैरवी के कारण 43 दिनों तक इन लोगों को जेल में रहना पड़ा।
इस कार्रवाई से मेरे शेष कार्यकाल में श्रमिक गतिविधियाँ तो चलती रहीं, परंतु कोई गंभीर क़ानून व्यवस्था की स्थिति निर्मित नहीं हुई।