42 वर्ष पूर्व 2 अप्रैल, 1980 को जब मैं आसाम आंदोलन में कार्रवाई के लिए 24 बटालियन SAF के साथ छोटी लाइन की स्पेशल ट्रेन से सुदूर गौहाटी स्टेशन पर उतरा तब कुछ निराश था। इस कठिन परिस्थिति की मुझे कोई चिंता नहीं थी परन्तु निराशा भेदभावपूर्ण ढंग से मुझे पदस्थ करके भेजे जाने की थी।फिर भी स्टेशन से निकलते ही मैं समभाव से अपने कर्तव्य में लग गया। हमारी बटालियन को शहर के दक्षिणी छोर में स्थित नव निर्मित सेंट्रल स्कूल का भवन दिया गया था।स्पेशल ट्रेन से सामान और गाड़ियाँ उतारने में बहुत समय और परिश्रम लगा।
मैं भी बटालियन के साथ स्कूल में रहने लगा। कुछ दिनों के बाद स्कूल ख़ाली कर हमें रेशम बनाने के केंद्र में भेज दिया गया जहाँ पर एक बहुत बड़ा हॉल और कुछ छोटे कमरे थे।एक छोटे कमरे में मैं तथा एक में युवा IPS डिप्टी कमांडेंट नंदन दुबे रहने लगे और शेष में कार्यालय स्थापित किया गया था। बड़े हाल में पूरी बटालियन रहती थी जहाँ से होकर मुझे निकलना पड़ता था। नंदन दुबे जी ने आसाम सरकार से नियमों का हवाला देते हुए हम दोनों के लिए रेस्ट हाउस की माँग की। हमारे लिए रेस्ट हाउस में व्यवस्था की गई लेकिन हर हफ़्ते हमें अपना रेस्ट हाउस बदलते रहना पड़ता था और सुरक्षा की व्यवस्था करनी पड़ती थी। परिवार से दूर और बिना सामाजिक जीवन के बटालियन ही हमारे लिए सब कुछ थी।एक दो बार मैं ( सुरक्षा हेतु) सादे कपड़ों में गाड़ी दूर रोक कर गौहाटी के प्रसिद्ध फ़ैंसी बाज़ार और पान बाज़ार घूमने गया।
आसाम में असम गण परिषद एवं ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन का तथाकथित बांग्लादेशियों के विरुद्ध आंदोलन चरम पर पहुँच चुका था। गुवाहाटी के बाहर बनी नारंगी ( नूनमाटी ) आइल फ़ैक्टरी से पाइपलाइन के द्वारा बिहार के बरौनी तक पेट्रोलियम क्रूड भेजा जाता था। लगभग दो हज़ार आंदोलनकारियों ने निरंतर चार महीनों से धरना देकर क्रूड भेजना रोक दिया था।तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इसे चालू करने के लिए कटिबद्ध थी। मुझे एक सिविलियन कार दी गई जिसमें गोपनीय तरीक़े से मुझे उस पूरे क्षेत्र का कई बार भ्रमण कर पूरी योजना को समझना था। योजना यह थी कि सभी आंदोलनकारियों को गिरफ़्तार कर पूरे गौहाटी में कर्फ़्यू लगाकर क्रूड चालू कर दिया जाएगा।
मेरी पूरी बटालियन का दायित्व धरने पर बैठे लोगों को सुबह तड़के गिरफ़्तार कर अस्थायी जेल तक पहुँचाने की थी। अन्य आठ बटालियनों और आसाम पुलिस को पूरे शहर में कर्फ्यू लागाने का दायित्व दिया गया था। निर्धारित दिन हमने सभी आन्दोलनकारियों को सुबह गिरफ़्तार करके बसों में बैठाकर अस्थाई जेल पहुँचा दिया। आसाम पुलिस पर्याप्त बल होने पर भी कर्फ़्यू लागू कराने में विफल रही और धीरे-धीरे लाखों की संख्या में लोग सड़क पर उतर आए।दूसरे प्रदर्शनकारी जाकर फिर नारंगी आइल फ़ैक्टरी मैं बैठ गये और केंद्र सरकार की योजना विफल हो गई।अक्टूबर में यह कार्य आर्मी को करना पड़ा। उन दिनों स्थिति यह थी कि जब तब रेलें, पोस्ट ऑफ़िस और टेलीफोन बंद हो जाते थे। हमारी सरकारी डाक महीने में दो तीन बार लेकर जावरा ले जानी पड़ती थी।शेष भारत से दूरी के साथ-साथ हम मनोवैज्ञानिक तरीक़े से भी पूरी तरह कटे हुए थे।
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कुछ दिनों के बाद नंदन दुबे जी छुट्टी पर मध्य प्रदेश गये और वहीं उनकी पदस्थापना राजगढ़ पुलिस अधीक्षक के पद पर हो गई। अब मेरे साथ व्यक्तिगत बातचीत के लिए कोई नहीं था। बटालियन के काम में काफ़ी समय देने के बाद बचे हुए समय में मैं पढ़ता रहता था। मैंने स्वाध्याय से उर्दू लिखना सीखने का निश्चय किया। उर्दू (अरबी) लिपि से हिन्दी (देवनागरी) की कुछ प्राथमिक पुस्तकें बुलायी और थोड़ा बहुत उर्दू लिखना सीख गया। प्रसिद्ध कामाख्या तांत्रिक मंदिर की पहाड़ी के शीर्ष पर बैठकर नीचे चौड़ी ब्रम्हपुत्र नदी, उत्तरी दिशा में हिमालय और दक्षिण की ओर मेघालय की पहाड़ियाँ देखता रहता था। दूरबीन से ऊँचे आसमान में मंडराने वाले पक्षियों की स्वच्छंद उड़ान देखता रहता था।
मध्य प्रदेश के मुझसे बहुत वरिष्ठ कमांडेंट श्री साधूराम चौधरी के नेतृत्व में तेरहवीं बटालियन भी मध्य प्रदेश से गौहाटी आ गयी। उनके स्वागत के लिए मैं गोहाटी स्टेशन गया। कुछ दिनों बाद मेरी और तेरहवीं बटालियन ने एक साथ कामाख्या मंदिर में एक घंटा चढ़ाया और सामूहिक भोज का आयोजन किया। श्री साधुराम चौधरी का शीघ्र स्थानांतर हो जाने पर उनकी बटालियन की अनुशासनहीनता की सीमा यह हो गई कि वह उन्हें काले झंडे दिखाने के लिए खड़ी हो गई और उन्हें गुवाहाटी से आगे बोंगाईगांव जाकर ट्रेन पकड़नी पड़ी।
इसी बटालियन द्वारा रक्षाबंधन के दिन सशस्त्र बग़ावत की गई थी जिसमें मुझे अपना जीवन दांव पर लगाना पड़ा। इसका वर्णन मैं पृथक से कर चुका हूँ। एक बटालियन को एक स्थान पर एकत्रित रखना उचित नहीं है। अपनी बटालियन के जवानों का मनोबल और अनुशासन बनाए रखने के लिए शासकीय नियमों के अतिरिक्त कंपनियों के बीच वालीबाल और कबड्डी मैचों का आयोजन किया। हमारे जवान कंपनियों में अखंड रामायण आदि आयोजित करते थे।मैं सभी कार्यक्रमों में सम्मिलित होता था।आसाम पुलिस ने बाहर की बटालियनों की सांस्कृतिक प्रतियोगिता करवाई जिसमें 30 से अधिक बटालियनों ने भाग लिया। मैंने अपनी बटालियन की तरफ़ से क़व्वाली स्वयं तैयार करवा कर रिहर्सल करवाया। मेरी बटालियन को द्वितीय पुरस्कार प्राप्त हुआ।
मेरी बटालियन की कंपनियों को गुवाहाटी से बंगाल सीमा तक पूर्वी (लोवर) आसाम में नलबाड़ी, बरपेटा, बोंगाइगांव, कोकराझार, गोसाइगंज, और धुबरी में फैला दिया गया ।मैं इन कंपनियों और उनके लगे हुए प्लाटून पोस्टों का सैकड़ों किलोमीटर सघन भ्रमण करता था और उनकी समस्याओं का यथोचित निराकरण करता था।बटालियन के सभी जवान बहुत श्रद्धा की दृष्टि से मुझे देखते थे और मेरे आदेशों का तत्काल पालन करते थे। एक बार बरसात में बढ़ी हुई ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में स्थित एक बड़े द्वीप भगनामारी चार में स्थानीय असमियों और मुस्लिम बंगालियों के बीच दंगा हो गया। रात में ब्रह्मपुत्र नदी में बड़ी नाव से जाने के लिए जब कई अन्य पुलिस फ़ोर्स ने जाने से मना कर दिया तब मेरे वायरलेस आदेश पर नलबारी से हमारी प्लाटून पहुँच गई और दंगा नियंत्रित हो गया।अगले दिन गोहाटी से चलकर मैं इस द्वीप में ऊँची लहरों के बीच डॉल्फिन देखता हुआ पहुँचा और जवानों को शाबाशी दी। मेरी बटालियन की कर्तव्यनिष्ठा से आसाम पुलिस के उच्चाधिकारी भी प्रभावित थे।मध्य प्रदेश में एक वर्ष पूर्व पुलिस समस्याओं पर आंदोलन करने वाली यह बटालियन अब पूर्णतः अनुशासित और सुदक्ष हो गई थी।
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मध्य प्रदेश SAF के IG श्री आर पी मिश्रा आसाम में मध्य प्रदेश की तीन बटालियनों का निरीक्षण करने आए।सर्वप्रथम उन्होंने मेरी बटालियन का निरीक्षण किया। फिर अन्य बटालियनों का निरीक्षण करने के लिए मुझे अपने साथ ले लिया। उन्होंने बताया कि वे मेरे बाबा से रायबरेली, उत्तर प्रदेश में मिल चुके हैं।कार यात्राओं में वे मुझे अद्भुत किस्से सुनाते थे।उनके साथ मैं अट्ठारहवीं बटालियन के मुख्यालय तेज़पुर सहित आसाम के अनेक भीतरी क्षेत्रों में भी गया। उनके कुल साथ नौ दिन के आसाम भ्रमण में मैं उनके साथ रहा।
ठीक एक वर्ष के इस आसाम कार्यकाल के बाद बटालियन के जावरा वापस होने के आदेश हो गये। 4 अप्रैल, 1981 को मैं बटालियन के साथ स्पेशल ट्रेन से दस दिवसीय वापसी यात्रा पर जावरा रवाना हो गया। गौहाटी से चलते समय मैंने सात सौ रूपये का बेंत का बना सोफ़ा सेट ख़रीदा जो चार दशक बाद आज भी स्मृति चिन्ह के रूप में सेवारत है।