Flashback: वो भी क्या बचपन था
ग़ाज़ीपुर का समय मेरे बचपन की यादों के लिए जीवन का सर्वाधिक सुनहरा चित्र है। यह अतीत मेरे साथ- साथ हम सब बहन और भाइयों के लिए भी ऐसा ही है और माता पिता के लिए भी ऐसा ही था। बचपन में चौथी से लेकर सातवीं कक्षा तक की शिक्षा मैने ग़ाज़ीपुर (UP) में पाई जहां उस समय मेरे पिताजी मजिस्ट्रेट के पद पर पदस्थ थे। ग़ाज़ीपुर एक क़स्बे नुमा छोटा शहर था। यहाँ हम लोगों का घर मुख्य शहर से दूर था। पुराने बंगले नुमा इस घर में बिजली नहीं थी और हम लोग लालटेन से ही काम चलाते थे। विशेष अवसरों पर गैस लैंप जलाया जाता था। मेरे बड़े भाई और बहन एक पुराने बहुत बड़े बैटरी के रेडियो से रेडियो सिलोन सुना करते थे। गर्मियों में मुख्य कमरे में हाथ से झुलाने वाला बड़ा पंखा लटका हुआ था। मेरे दो बड़े भाई एवं सबसे बड़ी बहन अलग- अलग स्कूलों में पढ़ते थे। मेरी बहन जिन्हें हम सब जिज्जी कहते हैं वे ग़ाज़ीपुर डिग्री कॉलेज में BA में आ गईं थीं। जिज्जी से छोटे तथा हम भाइयों में सबसे बड़े भाई जिन्हें हम लोग दद्दा कहते हैं वे लखनऊ में नाना के पास पढ़ने के लिए गए थे।
मेरा लूदर्स कान्वेंट स्कूल मिशन द्वारा संचालित था तथा वहाँ बहुत साफ़ सुथरा वातावरण रहता था। वहाँ की मिशनरी शिक्षिकाएँ बहुत ही स्नेह से हमें पढ़ती थी। उनके चेहरे आज भी मस्तिष्क में हैं। हमारे क्लास में 15 से अधिक छात्र छात्राएँ नहीं होते थे। मुझे अपने स्कूल से बेहद लगाव था। वहाँ मैं प्रत्येक कक्षा में प्रथम आता था। स्कूल में आधी छुट्टी होने पर हम बच्चे निकलकर तेज़ी से झूलों की ओर दौड़ते थे। हस्तकला में मिट्टी के खिलौने बनाने के लिए स्कूल बाउंड्री के अंदर ही छोटे तालाब पर जाकर वहाँ चिकनी मिट्टी से पहले खिलौने बनाते थे और फिर उन्हें सुखाकर कक्षा में रखते थे और उस पर पेंट करते थे। मैं और मुझसे बड़े भाई क्यारी बनाकर स्वयं टमाटर लगाकर प्रतिदिन उसकी प्रगति को निहारते थे। थोड़ा बड़े होने पर मैं अपने घर के सामने एक बहुत बड़े मैदान मे शाम को हाकी खेलने जाता था जहाँ मोहल्ले के बच्चे और युवा हॉकी खेलने के लिए एकत्र होते थे। क्रिकेट के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं थी।
मनोरंजन के लिए हम लोग कभी-कभी शहर में फ़िल्म देखने जाया करते थे। प्रत्येक वर्ष जाड़ों में सर्कस आता था जिसे हम लोग बहुत चाव से देखने जाते थे। सर्कस के कुछ करतबों को घर पर करने का भी मैं प्रयास करता था। हमारे घर के सामने थोड़ी दूर पर ही गंगा नदी अपने प्राकृतिक रूप में बहती थी। गंगा के किनारे बने ग़ाज़ीपुर के क्लब में कई बार गंगा के बीच बालू के टापू में रात को डिनर पार्टी होती थी जिसमें मैं अपने माता पिता के साथ जाया करता था। पूर्वी उत्तर प्रदेश में लोकप्रिय विख्यात पहलवानों के दंगल भी हुआ करते थे। इनमें मेरी काफ़ी रुचि थी और इन दंगलों से मुझे कसरत करने की प्रेरणा मिली थी। हमारे घर से कुछ दूर शहर के बाहर खुले में बने हुए लार्ड कार्नवालिस के शानदार स्मारक को देखने जाना भी मुझे बहुत अच्छा लगता था।
आज से साठ वर्ष से कुछ अधिक पुराने वो क्षण अब एक रहस्य से प्रतीत होते हैं।