हिंदी भाषा को लेकर हिंदी दिवस पर बहुत ज्यादा चिंता जताई जाती है। इसके बाद साल भर इस मुद्दे पर कोई बात नहीं होती। ये बरसों से होता रहा है और बरसों तक होता रहेगा! जिनकी मातृभाषा हिंदी है, वे तो इसे संरक्षित कर ही रहे हैं, पर जब तक हिंदी को ‘मित्र भाषा’ नहीं बनाया जाता, हिंदी पर खतरा मंडराता रहेगा। आज दुनियाभर में कई भाषाओं पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि आने वाले कुछ दशकों में दुनिया की आधी भाषाएं विलुप्त हो जाएंगी। इनमें हिंदी का नाम तो नहीं है, पर हिंदी को आने वाले संभावित खतरे से बचाना जरुरी है। ये तभी संभव है, जब हिंदी के साथ मित्रभाषा की तरह व्यवहार हो। हिंदी को मातृभाषा बनाई जाए और बच्चों को बचपन से हिंदी पढ़ने, सीखने, उसका साहित्य जानने एवं उसके व्याकरण का व्यावहारिक ज्ञान अर्जित करने की आवश्यकता पर विशेष बल दिया।
मातृभाषा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। जिस तरह जन्म के बाद बच्चा माँ की गोद में ही पलता और बढ़ता है। वह सबसे ज्यादा अपनी माँ के ही संपर्क में रहता है। जो भाषा मां उससे बोलती है, वही बच्चा सीखता है और वही उसकी मातृभाषा बन जाती है। यदि ये भाषा हिंदी होगी, तो बच्चा भी हिंदी ही बोलने की कोशिश करता है। इसलिए कि वह वही सुनता है इसलिए मां की बोली जाने वाली भाषा सुनकर उसे ही बोलने का प्रयास भी करता है। ऐसे में मां ही उसकी भाषा को सबसे पहले समझती भी है। मनुष्य का मां से रिश्ता मातृभाषा के साथ ही जुड़ता है। बच्चे की शुरुआती शिक्षिका और पाठशाला मां होती है। सीधा सा आशय है कि बच्चा जिस वातावरण में पलता और बढ़ता है, वही भाषा उसकी मातृभाषा बन जाती है। निजी भावों की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त, सरल, सुगम व स्वाभाविक माध्यम मातृभाषा है और यदि ये भाषा हिंदी होगी तो निश्चित रूप से आने वाली पीढ़ियों में भी यह भाषा संस्कार आएगा।
देश के राज्यों के गांवों व कस्बों में बोली जाने वाली लोकभाषा ही मातृभाषा का सबसे समृद्ध स्वरूप है। ये लोकभाषाएं ही बोलियों और उपबोलियों के रूप में परिवर्तित हो जाती है। इसलिए कहा गया है ‘कोस-कोस पर बदले वाणी चार कोस पर पानी!’ मातृभाषा में ही लोक संस्कृति यानी लोककला, लोकगायन, लोकनृत्य, लोकोचार, रीति-रिवाज, परंपराएं आदि सुरक्षित व संरक्षित रहते हैं। मातृभाषा ही भाषायी सांस्कृतिक, सामाजिक, साहित्यिक, धार्मिक आदि विविधताओं को अक्षुण्ण बनाए रखने का आधार (माध्यम) है। मातृभाषा मनुष्य के संस्कारों की संवाहिका है। मातृभाषा के बिना किसी भी देश के संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती है।
आपसी संवाद और विवाद अपनी मातृभाषा में से ही सुगमता से होता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति द्विभाषी हो, तो दोनों को एक-दूसरे की भाषा को समझने में कठिनाई होती है। हिंदी भाषी क्षेत्र के लोग जब अहिंदी भाषी क्षेत्र में जाते हैं या अहिंदी भाषा क्षेत्र के लोग जब हिंदी भाषा क्षेत्र में आते हैं तो वे भाषायी समस्या से अवगत होते हैं। भारतेंदु की यह पंक्तियां ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिम को शूल।’ भारतेन्दु ने यह पंक्तियाँ हिन्दी भाषा के अभ्युत्थान के साथ ही राष्ट्रीय विकास के लिए अनिवार्य मानते हुए लिखी थी। यह निज भाषा ही मातृभाषा है। चाहे वह मातृभाषा बंगला, पंजाबी, तमिल, तेलगु आदि कोई भी हों। भारतेन्दु जी का मन्तव्य था कि विज्ञान की पुस्तकों में हमें भले ही तकनीकी शब्दों का प्रयोग करने के लिए बाध्य होना पड़े! लेकिन, बोलचाल में बच्चों के स्कूल में पढ़ाई जाने वाली तथा पारिवारिक शिक्षा की पुस्तकों में, कचहरी के कागजों, सार्वजनिक भाषणों में ऐसी सरल और बोलचाल की भाषा का प्रयोग होना चाहिए, जो सच्चे अर्थों में हमारी मातृभाषा कही जा सके।
खेद का विषय है कि देश की आजादी के बाद गली-मोहल्लों में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुले। हर परिवार अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाना चाहता है। माता-पिता मातृभाषा (हिंदी) को तरजीह न देकर अंग्रेजी भाषा पर ज्यादा बल देते हैं। यह भी देखने में आया कि जिन घरों में माता-पिता हिंदी या अपनी मातृभाषा बोलते हैं, वे जब बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने के लिए भेजते हैं। ऐसे बच्चों के माता-पिता जब उन्हें स्कूल में नहीं पढ़ा पाते, तो वे बच्चे के लिए व्यक्तिगत शिक्षक घर पर पढ़ाने के लिए रखते हैं।
नई शिक्षा नीति में मातृभाषा में बच्चों को शिक्षा देने की बात कही गई है। ‘शिक्षा नीति 2020’ में भी इसका प्रावधान किया गया है कि कम से कम ग्रेड पाँच और भी उचित हो तो ग्रेड 8 तक बच्चों को शिक्षा मातृभाषा, स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा में दी जाए। सार्वजनिक और निजी स्कूल दोनों इसकी अनुपालना करेंगे। इसके साथ ही ऐसा भी उल्लेख किया गया कि विज्ञान सहित सभी विषयों में उच्चतम गुणवत्ता वाली पाठ्यपुस्तक को मातृभाषा में उपलब्ध कराया जाए। सरकार की यह योजना कितनी सफलीभूत होगी, यह तो भविष्य बताएगा। किंतु आज मातृभाषा को तो छोड़िए आज अंग्रेजी भाषा से इतना अनुराग लोगों को हो गया है, कि वे हिंदी भाषा को भी अंग्रेजी की रोमन लिपि में लिख रहे हैं। ऐसे में मातृभाषा में शिक्षा की प्रक्रिया साकार रूप ले पाएगी कहना मुश्किल है।
दुनिया भर में 20 सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से छ: भारतीय भाषाएं हैं जिनमें से हिंदी तीसरे स्थान और बांग्ला सातवें स्थान पर है। विश्व में जो भाषाएं सबसे ज्यादा बोली जाती है उनमें अंग्रेजी, जैपनीज, स्पेनिश, हिंदी, बांग्ला, रूसी, पंजाबी, पुर्तगाली, अरबी भाषा सम्मिलित है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार 6900 भाषाएं हैं जो विश्वभर में बोली जाती है। इनमें से दस प्रतिशत भाषा बोलने वाले एक लाख से भी कम है। भारत में 1961 की जनगणना के अनुसार 1652 भाषाएं बोली जाती हैं। आज अंग्रेजी भाषा के दौर में मातृभाषा पिछड़ी जा रही है। वैश्वीकरण और बाजारवाद के प्रभावों ने क्षेत्रीय भाषाओं के अस्तित्व पर बड़ा प्रश्न उपस्थित हुआ है। क्षेत्रीय भाषाओं को समाप्त करने में वैश्वीकरण ने अहम् भूमिका निभाई है।
कुछ लोग मातृभाषा को हिंदी भाषा से सम्पृक्त करते हैं, किंतु हिंदी पूरे राष्ट्र की राजभाषा है और हिंदी भाषी प्रदेशों की मातृभाषा है जिसकी अनेक उपभाषाएँ, बोलियाँ एवं विभाषा है। भारत के हर प्रदेशों की मातृभाषा अलग-अलग है जैसे गुजरात की गुजराती, महाराष्ट्र की मराठी, कर्नाटक की कन्नड़, केरल की मलयालम, आंध्रप्रदेश की तेलुगु, मद्रास की तमिल, असम की असमिया, बंगाल की बंगला, पंजाब की पंजाबी आदि। शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा को स्थान देने से अन्य भाषाओं को आसानी से सीख व समझ सकते हैं। मनुष्य जितनी भी भाषा पढ़े व सीखे लेकिन अपनी मातृभाषा को कभी न बिसराये (न विस्मृत करें)। हमारी मातृभाषा में ही हमारे पूर्वजों का ज्ञान धरोहर के रूप में सुरक्षित है। भाषा के प्रति हम सचेत रहें और विलुप्त होती भाषाओं को बचाने का प्रयास करें जिससे मातृभाषाओं की समृद्ध श्रृंखला सुरक्षित (अक्षुण्ण) रहे। मातृभाषा को बचाना वस्तुतः देश की लोकसंस्कृति व संस्कारों को बचाने का याज्ञिक अनुष्ठान है। इस अनुष्ठान में सतत् समिधा डालने की आवश्यकता है तभी मातृभाषा अशेष रहेगी।
लोक भाषाएं (मातृ भाषाएं) राष्ट्र की धरोहर है। यदि हम इनके प्रति स्वाभिमान का भाव पैदा नहीं कर सकें तो फिर राष्ट्र के प्रति भी स्वाभिमान का भाव कैसे रख सकते हैं! मातृभाषा हमें राष्ट्रीयता से जोड़ती है और देशप्रेम की भावना को उत्प्रेरित करती है। आजादी की लड़ाई में जन सामान्य को जागरित करने के लिए अनेक आजादी के गीत विभिन्न प्रदेशों में मातृभाषा में लिखे गए हैं। महात्मा गांधी ने भी कहा था कि मेरी मातृभाषा में कितनी खामियाँ क्यों न हो, मैं इससे इसी तरह चिपका रहूँगा जिस तरह बच्चा अपनी माँ की छाती से। यही मुझे जीवनदायिनी दूध दे सकती है। अगर अंग्रेजी उस जगह को हड़पना चाहती है, जिसकी वह हकदार नहीं है तो मैं उससे सख्त नफरत करूँगा। वह कुछ लोगों के सीखने की वस्तु हो सकती है, लाखों करोड़ों की नहीं।’ महात्मा गांधी जी ने वर्धा शिक्षा योजना 1937 में शिक्षा में मातृभाषा की अनिवार्यता पर बात कही थी। लेकिन, उनके विचार केवल विचार ही रह गए।
मातृभाषा के प्रति अनुराग और उसकी महत्ता को बांग्लादेश में घटित हुआ आंदोलन चरितार्थ करता है। मातृभाषा के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए 21 फरवरी, 1952 में ढाका विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने तत्कालीन पाकिस्तान सरकार की भाषायी नीति का विरोध किया। उनका प्रदर्शन अपनी मातृभाषा के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए था। प्रदर्शनकारियों की माँग बांग्ला भाषा को आधिकारिक स्थान देने की थी। पाकिस्तान की पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोलियाँ बरसाई लेकिन विरोध नहीं रुका और सरकार को बांग्ला भाषा को अधिकारिक स्थान देना पड़ा।
इस आंदोलन में शहीद हुए युवाओं की स्मृति में ही यूनेस्को ने पहली बार वर्ष 1999 में 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस के रूप में आयोजित करने की घोषणा की। तभी से 21 फरवरी को हर वर्ष अंतर्राष्ट्रीय या विश्व मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। पूरे विश्व में मातृभाषाओं के प्रति लोगों में जागरूकता प्रस्तुत करने के लिए यह दिवस मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य विश्वभर में भाषायी और सांस्कृतिक विविधता में बहुभाषिता का प्रसार करना और दुनिया में विभिन्न मातृभाषाओं के प्रति जागरूकता लाना है। वर्ष 2000 में पहली बार इनको ‘अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा’ के रूप में मनाया गया। जो देश अपनी भाषा को भुला देता है वह अपना मौलिक चिंतन खो देता है। इसलिए मातृभाषा को बचाना और बढ़ाना भी जरुरी है।