नर्मदा तट से बापू के आश्रम तक 

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नर्मदा तट से बापू के आश्रम तक 

बात 2003 की है .भारत सरकार का समग्र स्वच्छता अभियान नरसिंहपुर ज़िले में धरातल पर ठीक से नहीं उतर पा रहा था .भारत सरकार से पैसा आ रहा था किंतु आम ग्रामीण शौचालय के बंधन की बजाय दिशा मैदान के सुख को बेहतर समझते थे .हमारी टीम ने तय किया कि पूरी टीम साबरमती के आश्रम में प्रशिक्षण प्राप्त करे।

स्वास्थ्य , पीएचई,शिक्षा ,राजस्व ,महिला बाल विकास ,जनजाति विभाग के अधिकारियों और मैदानी कर्मचारियों की टीम राजकोट एक्सप्रेस की एक वातानुकूलित बोगी में नरसिंहपुर से चढ़ी .मुझे लगा खिलखिलाते प्रसन्न भाव से चली यह शंकर जी की बारात यात्रा का पूर्ण आनंद लेगी .कुछ स्टेशन निकलने के बाद जब मैं मैदानी कर्मचारियों का हाल चाल जानने उनके पास गया तो वे कुछ परेशान लगे .मैंने पूछा क्या बात है ? एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता ने विनम्रतापूर्वक कहा -सर यहाँ गुटखा कहाँ थूके?बीड़ी पियें तो धुँआ कहाँ जाये ? एक और सज्जन ने जोड़ा -साब जा डब्बा में दम घुट रओ.तीसरे ने समर्थन किया -सर इतें कोउ मूँफ़री बेचवें बी नई आ रओ का करें ? मैंने उन सबको वादा किया लौटते समय स्लीपर में आयेंगे जिसकी खिड़कियों के काँच खोले जा सकते है अब तो ख़ुश ?यस सर का सामूहिक जयकारा बोगी में गूँज रहा था .

हमने स्वच्छता गीत गाये .ईश्वर भाई पटेल के मशहूर सफ़ाई विद्यालय में प्रशिक्षण लिया .साबरमती आश्रम में बिताये उन सात दिनों का असर वापसी यात्रा में दिखा जब हर कहीं थूकने की इच्छा में कमी आई ,बीड़ी गुटखे की खपत घट गई और इस टीम ने नरसिंहपुर के स्वच्छता कार्यक्रम को नई ऊँचाइयों पर पंहुचा दिया।