गाँधी बुढ़ी…मिदनापुर की ‘झांसी की रानी’…मातंगिनी…

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गाँधी बुढ़ी…मिदनापुर की ‘झांसी की रानी’…मातंगिनी…

आजादी के लिए भारत में हर नागरिक ने कितना संघर्ष किया, इसका अंतहीन सिलसिला है। हम आज जो भी हैं, वह आजादी के लिए शहादत देने वाले हमारे पूर्वजों की वजह से ही हैं। आज हम ऐसी ही एक महिला क्रांतिकारी की चर्चा कर उन्हें नमन कर रहे हैं, जिन्होंने भारत के झंडे को तभी छोड़ा…जब उनकी देह ही उनका साथ छोड़ गई। बाएं हाथ में गोली लगी, तब झंडा दाहिने हाथ में आ गया। दाहिने हाथ में गोली लगी, तब भी उन्होंने परवाह नहीं की। पर दुष्ट अंग्रेजों ने जब माथे पर ही गोली दाग दी, तब मातंगिनी का साथ उनकी देह ने छोड़ दिया। पर मातंगिनी हमेशा के लिए अमर हो गईं। उनकी वीरता के लिए उन्हें ‘झांसी की रानी’ नाम से भी पुकारा गया, तो गांधी की अनुयायी होने केे चलते ‘गाँधी बुढ़ी’ नाम से भी उन्हें पुकारा गया। सितंबर 2024 के अंतिम रविवार 29 तारीख को हम मातंगिनी को इसलिए याद कर रहे हैं, क्योंकि इसी दिन उन्होंने देश की आजादी की खातिर हंसते-हंसते बलिदान दिया था।

 

मातंगिनी हाजरा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक प्रमुख महिला क्रांतिकारी थीं, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका जन्म 1858 में बंगाल के एक गरीब परिवार में हुआ था। मातंगिनी ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह में भाग लिया। 1857 की क्रांति के समय, उन्होंने न केवल शस्त्र उठाए, बल्कि अपने साथी क्रांतिकारियों को भी प्रेरित किया। उन्हें “झाँसी की रानी” के नाम से भी जाना जाता है। मातंगिनी हाजरा ने अपने जीवन में साहस, बलिदान और निष्ठा का उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने 1905 में बंगाल विभाजन के खिलाफ आंदोलन में भी भाग लिया, जिससे उनकी महानता और भी उजागर होती है। उनका जीवन महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत है। मातंगिनी हाजरा को ‘गाँधी बुढ़ी’ के नाम से जाना जाता था।

मातंगिनी हाजरा का जन्म पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) में मिदनापुर जिले के होगला ग्राम में एक अत्यन्त निर्धन परिवार में हुआ था। गरीबी के कारण 12 वर्ष की अवस्था में ही उनका विवाह ग्राम अलीनान के 62वर्षीय विधुर त्रिलोचन हाजरा से कर दिया गया। इस पर भी दुर्भाग्य उनके पीछे पड़ा रहा। छह वर्ष बाद वह निःसन्तान ही विधवा हो गयीं। पति की पहली पत्नी से उत्पन्न पुत्र उससे बहुत घृणा करता था। अतः मातंगिनी एक अलग झोपड़ी में रहकर मजदूरी से जीवनयापन करने लगीं। गाँव वालों के दुःख-सुख में सदा सहभागी रहने के कारण वे पूरे गाँव में माँ के समान पूज्य हो गयीं। 1932 में गान्धी जी के नेतृत्व में देश भर में स्वाधीनता आन्दोलन चला।वन्देमातरम् का घोष करते हुए जुलूस प्रतिदिन निकलते थे। जब ऐसा एक जुलूस मातंगिनी के घर के पास से निकला, तो उसने बंगाली परम्परा के अनुसार शंख ध्वनि से उसका स्वागत किया और जुलूस के साथ चल दी।तामलुक के कृष्णगंज बाजार में पहुँचकर एक सभा हुई। वहाँ मातंगिनी ने सबके साथ स्वाधीनता संग्राम में तन, मन, धन से संघर्ष करने की शपथ ली। मातंगिनी को अफीम की लत थी; पर अब इसके बदले उनके सिर पर स्वाधीनता का नशा सवार हो गया।

17 जनवरी, 1933 को ‘करबन्दी आन्दोलन’ को दबाने के लिए बंगाल के तत्कालीन गर्वनर एण्डरसन तामलुक आये, तो उनके विरोध में प्रदर्शन हुआ। वीरांगना मातंगिनी हाजरा सबसे आगे काला झण्डा लिये डटी थीं। वह ब्रिटिश शासन के विरोध में नारे लगाते हुई दरबार तक पहुँच गयीं। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और छह माह का सश्रम कारावास देकर मुर्शिदाबाद जेल में बन्द कर दिया। 1935 में तामलुक क्षेत्र भीषण बाढ़ के कारण हैजा और चेचक की चपेट में आ गया। मातंगिनी अपनी जान की चिन्ता किये बिना राहत कार्य में जुट गयीं। 1942 में जब ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ ने जोर पकड़ा, तो मातंगिनी उसमें कूद पड़ीं। आठ सितम्बर को तामलुक में हुए एक प्रदर्शन में पुलिस की गोली से तीन स्वाधीनता सेनानी मारे गये। लोगों ने इसके विरोध में 29 सितम्बर को और भी बड़ी रैली निकालने का निश्चय किया। इसके लिये मातंगिनी ने गाँव-गाँव में घूमकर रैली के लिए 5,000 लोगों को तैयार किया। सब दोपहर में सरकारी डाक बंगले पर पहुँच गये। तभी पुलिस की बन्दूकें गरज उठीं। मातंगिनी एक चबूतरे पर खड़ी होकर नारे लगवा रही थीं। एक गोली उनके बायें हाथ में लगी। उन्होंने तिरंगे झण्डे को गिरने से पहले ही दूसरे हाथ में ले लिया। तभी दूसरी गोली उनके दाहिने हाथ में और तीसरी उनके माथे पर लगी। मातंगिनी की मृत देह वहीं लुढ़क गयी।

इस बलिदान से पूरे क्षेत्र में इतना जोश उमड़ा कि दस दिन के अन्दर ही लोगों ने अंग्रेजों को खदेड़कर वहाँ स्वाधीन सरकार स्थापित कर दी, जिसने 21 महीने तक काम किया। दिसम्बर, 1974 में भारत की प्रधानमन्त्री इन्दिरा गान्धी ने अपने प्रवास के समय तामलुक में मांतगिनी हाजरा की मूर्ति का अनावरण कर उन्हें अपने श्रद्धासुमन अर्पित किये। भारत ने 1947 में स्वतंत्रता हासिल की और कोलकाता में हाजरा रोड के लंबे विस्तार सहित कई स्कूलों, कॉलोनियों और सड़कों का नाम हाजरा के नाम पर रखा गया। स्वतंत्र भारत में कोलकाता में स्थापित महिला की पहली मूर्ति 1977 में हाजरा की थी। तामलुक में जहां उनकी हत्या हुई थी, उस स्थान पर अब एक मूर्ति खड़ी है। वर्ष 2002 में, भारत छोड़ो आंदोलन के साठ साल और तमलुक राष्ट्रीय सरकार के गठन की स्मृति में डाक टिकटों की एक श्रृंखला के हिस्से के रूप में, भारतीय डाक विभाग ने मातंगिनी हाजरा के चित्र के साथ पांच रुपये का डाक टिकट जारी किया। बर्ष 2015 में, इस प्रसिद्ध क्रांतिकारी शख्सियत के नाम पर तामलुक, पूर्वी मेदिनीपुर में शहीद मातंगिनी हाजरा गवर्नमेंट कॉलेज फॉर वुमेन की स्थापना की गई थी।

28 सितंबर 1929 को इंदौर में जन्मीं स्वर कोकिला नाम से मशहूर हुईं लता मंगेशकर के गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी’। लता जी ने यह गीत सीमा पर शहीद हुए भारतीयों की याद में गाया था। पर मातंगिनी जैसे शहीदों ने शहरों और गांवों में भी सीमा पर तैनात सैनिक की तरह ही कुर्बानी दी थी। आज लता जी भी हमारे बीच नहीं हैं। ऐसे में शहीद महिला क्रांतिकारी मातंगिनी हाजरा और लता मंगेशकर दोनों ही महान विभूतियों को शत-शत नमन…।