सिद्धू की बगावत में छिपी गहलोत-बघेल के‍ लिए राहत की सांस…

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पंजाब में सत्तारूढ़ कांग्रेस की कलह कथा के दूसरे अध्याय का फलितार्थ फिलहाल इतना है कि नवजोतसिंह सिद्‍धू प्रकरण के बाद कांग्रेस शासित राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मुख्‍यमंत्री राहत की सांस ले सकते हैं। क्योंकि आलाकमान अब वहां असंतोष को हवा देने से शायद बाज आए।  दरअसल बड़बोले नवजोतसिंह सिद्धू को पंजाब कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष बनाना ही आला कमान (?) का अविवेकपूर्ण  और नितांत अदूरदर्शी फैसला था। सिद्धू  की राजनीतिक और स्वभावगत कुंडली सामने होने पर भी उन पर भरोसा किस आधार पर किया गया, यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है।  बेशक हटाए गए मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह लाख अलोकप्रिय और आत्मकेन्द्रित हों, लेकिन सिद्‍धू की फितरत के बारे में उन्होंने आलाकमान को बार-बार चेताया था। लेकिन जब किसी भी राजनीतिक दल में फैसले सामूहिक मशविरे और विवेक  के बजाए निजी समझ और पूर्वाग्रहों के आधार पर होने लगते हैं तो नतीजा वही होता है, जो पंजाब में हो रहा है। क्या अजब स्थिति है। जब राज्य में दूसरी पार्टियां छह महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी है, कांग्रेस में अग्नि शमन दल ही इधर से उधर दौड़ रहे हैं। एक चिंगारी बुझ भी नहीं पाती कि दूसरी तरफ आग सुलग पड़ती है। किसी को भरोसा नहीं है कि कौन किस पद पर कब तक टिका रहेगा। सबसे मजेदार बात तो यह है कि कांग्रेस में बगावत भी ‘पंजाब के हित’ को लेकर हो रही है और वफादारी भी ‘पंजाब के हित’ में जताई जा रही है।

नवजो‍त सिंह सिद्धू लाख लच्छेदार वक्ता हों, खुद को बेहद स्मार्ट और पंजाब के हितैषी बताते हों, लेकिन किसी अनुशासन में रहना उनकी फितरत नहीं रही है। कांग्रेस में भी वो पांच साल इसलिए चल गए क्योंकि अव्वल तो वहां जल्दी फैसले होते ही नहीं और होते हैं तो इतनी देर से कि उसका कोई खास मतलब नहीं रह जाता। सिद्धू की शुरू से एक ही चाहत रही है कि पंजाब का सीएम बनना। इस महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए उन्होंने किसी को भी मझधार में छोड़कर चल देने में गुरेज नहीं किया। भाजपा ने उन्हें  राज्यसभा में भेजा तो वो तीन माह बाद ही इस्तीफा देकर कांग्रेस के तंबू में जाकर बैठ गए। वहां कैप्टन के मंत्रिमंडल में मंत्री बने तो पूरे समय विवादों में रहें। आखिर में उनसे इस्तीफा लेना पड़ा। बाद में उन्होंने राहुल और प्रियंका गांधी पर न जाने क्या जादू चलाया कि पंजाब प्रदेश कांग्रेस अध्‍यक्ष बन गए।

माना गया कि सिद्धू कांग्रेस को दोबारा सत्ता में लौटा सकते हैं। उनकी ‍िचकनी-चुपड़ी और विदूषक शैली पर पंजाब के युवा रीझे जाएंगे और कांग्रेस को ही वोट करेंगे। लेकिन इस देश में अब आम मतदाता भी ‘लाफ्टर शो’ और ‘पाॅलिटिकल शो’ में फर्क करना सीख गया है। सिद्धू का असल मकसद किसी भी तिकड़म से सीएम की कुर्सी पर विराजमान होना था। लेकिन लगता है कि पार्टी में सोनिया खेमे ने उस अरमान को पूरा नहीं होने दिया और दलित कार्ड चल कर चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनवा दिया। इस खेल में मात खाने के बाद सिद्धू ने शुरू में यह संदेश देने की कोशिश की ‍कि ‘चन्नी भी उन्हीं का मोहरा’ हैं। लेकिन लगता है चन्नी ज्यादा होशियार निकले।

उन्होंने सिद्धू का कंधे पर रखा हाथ झटक कर कई महत्वपूर्ण पदों पर अपने आदमी बिठा दिए। सरकार में सिद्धू की वफादार पीठ नहीं बनने दी। यकीनन इसमें हाइ कमान की सहमति भी रही होगी। बहरहाल चरणजीत सिंह ने वही किया जो, किसी भी मुख्यमंत्री को करना चाहिए। वो सिद्धू का साया बनकर रहते तो कहीं के नहीं रहते। अतिमहत्वाकांक्षी और अधीरता के मारे सिद्धू को चन्नी का इस तरह अपना अलग रूआब कायम करना नागवार गुजरा। इसलिए भी क्योंकि अगर खुदा न खास्ता कांग्रेस पंजाब में फिर सत्ता में लौटी तो जीत का सेहरा चन्नी के सर बंधेगा और हारी तो हार का ठीकरा चन्नी के साथ सिद्धू के सिर भी फूटता।

कुल मिलाकर सिद्धू की हालत ‘माया मिली न राम’ वाली हो गई थी। चन्नी की ताजपोशी ने महिना भर पीसीसी अध्यक्ष बनने के बाद दहाड़ते और बड़बोले सिद्धू की बोलती ही बंद कर दी। ऐसे में उनके सामने आखिर हथियार आला कमान को ब्लैकमेल करने का बचा था। सो उन्होंने प्रदेशाध्यक्ष पद से यह कहकर इस्तीफा दे दिया कि मैं अपने उसूलों से कभी समझौता नहीं करूंगा।

यहां सवाल है कि आखिर सिद्‍धू टाइप नेताअों के उसूल हैं क्या? उनकी क्या प्रतिबद्धता और क्या निष्ठा है? बेशक हर नेता राजनीति सत्ता के लिए करता है, लेकिन सत्ता मिली तो ही साथ दूंगा और नहीं मिली तो नहीं लतिया दूंगा, यह राजनीतिक दर्शन केवल अवसरवादियों का हो सकता है। सिद्धू इस पंथ के सरगना हैं।

अगला प्रश्न यह है कि अब आगे क्या होगा?  सिद्‍धू प्रकरण ने कांग्रेस को अर्श से फर्श तक हिला दिया है। इसके बाद भी वो कोई सबक सीखेगी, इसकी संभावना कम ही है। सबसे हैरानी की बात तो यह है कि जो पार्टी रात दिन देश में लोकतंत्र बचाने की बात करती है, उसमें फैसले किस अधिनायकवादी तरीके से लिए जा रहे हैं, यह सिद्धू प्रकरण से साफ है।

आलम यह है कि पार्टी जनों को मांग करनी पड़ रही है कि कम से कम संगठन में तो लोकतंत्र लौटाया जाए। सिद्धू पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करना आलाकमान की राजनीतिक अपरिपक्वता का सबूत है। यह अलग से बताने की जरूरत नहीं है। इस पूरे सियासी प्रहसन में राहत की बात कांग्रेस शासित दो राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मुख्‍यमंत्रियो अशोक गहलोत और भूपेन्द्र बघेल के लिए यह हो सकती है कि वो कुछ समय के लिए राहत की सांस ले सकते हैं। देखना यह है कि कांग्रेस आला कमान इन राज्यों में भी नए सिद्‍धू पैदा करने का जोखिम उठाता है या नहीं?

इसी स्तम्भ में पिछले दिनो मैंने सवाल उठाया था कि चन्नी को पंजाब का सीएम बनाना कांग्रेस के लिए मास्टर स्ट्रोक होगा या राजनीतिक ब्लंडर होगी? सिद्धू का इस तरह जाना ब्लंडर की शुरूआत ज्यादा है। क्योंकि इससे पार्टी का भीतरी घमासान थमने की बजाए और बढ़ने वाला है। लिहाजा चन्नी सुकून से राज कर पाएं, इसकी संभावना कम ही है। इसका आरंभ जी-23 के नेताअोंकपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद की पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को लिखी चिटठी से शुरू हो गया है।

पार्टी में पूर्ण कालिक अध्यक्ष की मांग को दोहराते हुए इन नेताअों के यक्ष प्रश्न किया है कि जब दल में कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष ही नहीं है तो आखिर फैसले ले कौन रहा है और किस ‍अधिकार से ले रहा है? यहां तक कांग्रेस की सर्वोच्च कांग्रेस कार्यसमिति की बैठकें भी नहीं हो रही हैं। तो महत्वपूर्ण निर्णय किस को विश्वास में लेकर और किन तर्कों के आधार पर हो रहे हैं? फैसले भी ऐसे कि जिन्हें पार्टी में ही बार बार चुनौती मिल रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो क्या पार्टी आॅटो मोड पर चल रही है? और अगर कोई पायलट तो सामने क्यों नहीं आना चाहता?

हो सकता है कि कुछ लोग जी-23 के नेताअों को चुका हुआ मानकर खारिज करें। लेकिन उनकी विवेकबुद्धि, राजनीतिक समझ और अनुभव को कैसे खारिज करेंगे? मुमकिन है कि सिद्धू प्रकरण से मिले सबक के बाद आलाकमान उन्हें और घास न डाले। उनकी जगह किसी और को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बना दे।

फिर भी जो राजनीतिक नुकसान होना था, वो तो हो ही चुका है। उधर कैप्टन अमरिंदर‍ सिंह ने भी अभी हथियार नहीं डाले हैं। विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद वो कोई ऐसी राजनीतिक चाल सकते हैं जिससे कांग्रेस की मुश्किलें और बढ़ सकती हैं।

उधर चन्नी सरकार के लोकलुभावन फैसले पार्टी की अंतर्कलह पर तात्कालिक मरहम लगा सकते हैं, लेकिन कांग्रेस की इस कलह कथा के अंतहीन नाटक को जनता भी तो देख रही है।

अभी यह किसी सर्वे में सामने नहीं आया है कि इतने घमासान के बाद पंजाब का मतदाता कांग्रेस को किस नजर से देख रहा है  और राज्य में अगली सरकार की ताजपोशी के लिए उसके मन में क्या मंथन चल रहा है? कहीं ऐसा न हो कि वो इस कौरव कलह कथा से ऊब कर किन्हीं अचर्चित पांडवो के हाथ ही सत्ता सौंप दे।

Author profile
अजय बोकिल

जन्म तिथि : 17/07/1958, इंदौर

शिक्षा : एमएस्सी (वनस्पतिशास्त्र), एम.ए. (हिंदी साहित्य)

पता : ई 18/ 45 बंगले,  नार्थ टी टी नगर भोपाल

अनुभव :

पत्रकारिता का 33 वर्ष का अनुभव। शुरूआत प्रभात किरण’ इंदौर में सह संपादक से। इसके बाद नईदुनिया/नवदुनिया में सह संपादक से एसोसिएट संपादक तक। फिर संपादक प्रदेश टुडे पत्रिका। सम्प्रति : वरिष्ठ संपादक ‘सुबह सवेरे।‘

लेखन : 

लोकप्रिय स्तम्भ लेखन, यथा हस्तक्षेप ( सा. राज्य  की नईदुनिया) बतोलेबाज व टेस्ट काॅर्नर ( नवदुनिया) राइट क्लिक सुबह सवेरे।

शोध कार्य : 

पं. माखनलाल  चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विवि में श्री अरविंद पीठ पर शोध अध्येता के  रूप में कार्य। शोध ग्रंथ ‘श्री अरविंद की संचार अवधारणा’ प्रकाशित।

प्रकाशन : 

कहानी संग्रह ‘पास पडोस’ प्रकाशित। कई रिपोर्ताज व आलेख प्रकाशित। मातृ भाषा मराठी में भी लेखन। दूरदर्शन आकाशवाणी तथा विधानसभा के लिए समीक्षा लेखन।

पुरस्कार : 

स्व: जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी उत्कृष्ट युवा पुरस्कार, मप्र मराठी साहित्य संघ द्वारा जीवन गौरव पुरस्कार, मप्र मराठी अकादमी द्वारा मराठी प्रतिभा सम्मान व कई और सम्मान।

विदेश यात्रा : 

समकाालीन हिंदी साहित्य सम्मेलन कोलंबो (श्रीलंका)  में सहभागिता। नेपाल व भूटान का भ्रमण।