साँच कहै ता ! कुछ मेरी भी सुनो..हे दिल्ली के देवो!

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देशभर का अमन चैन हरने वाली दिल्ली की नींद हराम है। वह प्रतिवर्ष ही इन दिनों धुंधकाल से गुजरने लगती है। साल-दर-साल यह धुंधकाल और गहन होता जाता है।
मैंने दिल्ली के एक पत्रकार मित्र से पूछा तो बोले- पता नहीं किनके पापों का फल भोग रहा हूँ।
फिर दार्शनिक अंदाज में बताया- जानते हो ये स्माँग गली-गली  क्यों घूमता है.. इसलिए कि वायुमंडल में झूठ, फरेब, मक्कारी, वायदाखिलाफी का आवरण ओजोन परत से भी घना बनकर छाया हुआ है। नीचे की हवा जाए तो जाए कहाँ। यहीं की यहीं मड़राती रहती है। आखिर ऊपरवाला तो सबके ऊपर है, संसद और सुप्रीम कोर्ट से भी बड़ा। मित्र की खीझ मैं क्या कोई भी समझ सकता है।
साँच कहै ता ! कुछ मेरी भी सुनो..हे दिल्ली के देवो!
धुएं का जहर इतने खतरनाक स्तर तक पहुंच गया कि बिन कोरोना के ही लाक डाउन की स्थिति है। स्कूलें बंद करने का ऐलान हो गया। वाहनों की नसबंदी की बात चल रही है। सुप्रीम कोर्ट, संसद सभी चिंतित हैं। यहाँ लाटसाहब लोग रहते हैं, उन्हें अपने बच्चों के भविष्य की चिंता है। 30 हजार मेगावॉट बिजली के लिए धुआं उगलने वाली अपनी सिंगरौली की हवा दिल्ली से भी खराब है पर यहाँ की चिंता इसलिए नहीं कि ज्यादातर मजूरों के बच्चे यहां पढ़ते हैं और उनका कोई भविष्य नहीं।
साँच कहै ता ! कुछ मेरी भी सुनो..हे दिल्ली के देवो!
प्रदूषण तो सभी पंचभूत तत्वों में जहर घोल रहा है। जल- थल- नभ सभी में जहर घुला है, किसी के हिस्से में ज्यादा तो किसी के हिस्से में सहन भर का। अभी छठ के पर्व की वो तस्वीर स्मरण में है जिसमें हमारी माता बहने यमुना के विषैले फेनिल जल में स्नान कर सूर्य भगवान को अर्ध्य देकर हमारे कुशलक्षेम की कामना कर रही हैं। यमुना के किनारे बने संगमरमरी घाटों पर सोते हुए गांधी, नेहरू, इंदिरा, अटल आदि महापुरुष पता नहीं ये महसूस भी कर रहे हैं या नहीं। यमुना सत्ता के साकेत की नाक के नीचे से हम मनुष्यों का नजला लिए हुए युगों से बह रही है, सबकुछ सह रही है। क्या यह मालूम नहीं कि यमुना मृत्यु के देवता यम की प्रिय बहन यमी भी है और कबतक सहेगी यह सब।
हमारे यहां जिसकी सबसे ज्यादा ख्याति वही सबसे ज्यादा खराब हालत में। गंगा मैय्या को ही ले लीजिए दुनिया में सबसे प्रदूषित नदी। पापियों का पाप अब जज्ब नहीं कर पा रही। पिछला कुंभ जब लगा था तो मैं कई साधुओं के डेरे गया। वहां बाहर से मंगाए गए मिनिरल वाटर के पीपे थे। वे बाहर का लाया पानी पी-पीकर गंगाजल की महिमा का बखान करते थे। और बेचारे भगत सँडाध मारते गंगाजी के पानी से आचमन करते।
 ये ढोंढकविद्या खूब चलती है अपने यहाँ। कानपुर के चमड़ा फैक्टरियों का धोवन बड़े नाले के रूप में गंगाजी से जा मिलता है। आज भी हर दिन लाखों अधजले मुरदे तिरोहित कर दिए जाते हैं। भक्ति भाव इतना बेरहम कि रोजाना टनों पन्नियाँ प्रसाद, नरियल,चढावे के साथ विसर्जित कर दी जाती हैं। मुरदे की राख जब तक गंगा मैय्या में न प्रवाहित करो उसे सरग मिलेगा ही नहीं। हमने सरग की लालसा में गंगा मैय्या को नरक में बदल दिया।
साँच कहै ता ! कुछ मेरी भी सुनो..हे दिल्ली के देवो!
नदियां अब वोटों की वाहक बन गई हैं। गंगा मैय्या लगभग पूरा यूपी, बिहार कवर करती हैं। सो हर चुनाव के घोषणा पत्र में गंगा मैय्या की सफाई रहती है। राजीव गांधी के जमाने में तो पं.कमलापति त्रिपाठीजी की राजनीति ही वसर्जित कर दी गई पर गंगजी साफ नहीं हुईं। इस सरकार ने गंगा मंत्रालय बना दिया। शुरूआत धूमधड़ाके से हुई, अब वही ढाँक के तीन पात। कोई बताने वाला नहीं कि इस सदी में साफ भी हो पाएंगी कि नहीं। दूसरे अब नर्मदा को पकड़ा है। आधे मध्यप्रदेश से पूरे गुजरात तक की राजनीति भी इनकी धारा के साथ बहती है। परिक्रमाएं होती रहती हैं, एक नेता के बाद दूसरे की, इस सत्ता के बाद उस सत्ता की। राजनीति की वक्रदृष्टि राहुकेतु की भाँति होती है। जिस पर एक बार भरपूर पड़ जाए तो वो गया काम से। नर्मदा माई पर भोले शंकर कृपा बनाए रखें।
दिल्ली पर ये वक्रदृष्टि मुगलों के जमाने से लगातार है। फिर अँग्रेजों की बनी रही। अब अपनी है। महाभारत के समय हस्तिनापुर रहा। फिर यहीं पड़ोस में इंद्रप्रस्थ बसाया गया। कहते हैं इंद्रप्रस्थ इंद्र की नगरी से भी बढ़िया रहा। मुगलों ने पुरानी दिल्ली आबाद किया। अँग्रजों को वह.नहीं भाया तो लुटियंस जोन बना दिया। यहां लाटसाहब लोग रहते थे। अब भी वही रहते हैं पर देसी। अँग्रजों ने यहां की सड़कों को मध्यकाल के क्रूर मुगल बादशाहों के हवाले कर दिया। अब भी जाओ तो बाबर से लेकर बहादुर शाह जफर ही नजर आँएगे।
इस दिल्ली के साथ सबने राजनीति की,सबने अपने-अपने हिसाब से भोगना चाहा। बेचारी उफ तक न कर सकी। यहां की जमीन प्लास्टिक में बदल नहीं पायी कि इनकी सुविधा के हिसाब से खिंचती जाती। जमीन वही की वही बोझा लाख गुना ज्यादा। सहनशक्ति से ज्यादा बोझा लादोगे तो निर्जीव भी टें बोल देगा।
दिल्ली अब टें बोलने लगी है। गाडियों का धुँआ आखिर कब तक अपने फेफड़े में जज्ब करे। इसे भी टीबी हो गई। इलाज करने वालों ने ही ये मर्ज दिया है तो इलाज कहां से हो। उच्च मध्यमवर्ग से शीर्ष धनाढ्यों तक गाड़ियों का काफिला स्टेटस सिम्बल बन गया। चार लोग हैं चारों के लिए अलग अलग सवारी। पब्लिक ट्रांसपोर्ट-? मासाअल्ला। यूरोप में सुनते हैं मंत्री सांसद सब पब्लिक ट्रांसपोर्ट में चलते हैं। दुनिया के सौवें नंबर के गरीब भारत में मंत्री पब्लिक ट्रांसपोर्ट में चले तो पहाड़ टूट पड़े।
वैसे दिल्ली को घेरनेवाली आरावली की पहाडि़यां टूट रही हैं पर खनन लुटेरों की तिजोरी भरने के लिए। बिल्डरों के लिए। कोई साधू बाबा कहता है कि उसे धूनी रमाना है। सरकार कहती है चले जाओ यमुना में उसी को पाट लो और टैंट गाड़ लो हम कुछ नहीं करेंगे। बस बदले में हमारी सरकार के लिए हवन कर देना और विरोधियों के लिए उच्चाटन।
 यमुना को गंदा नाला बनाया अब उसे ही हजम करने में लगे हैं। बहन की ये दुर्दशा देखकर यम कुपित न हों तो कौन हो। ये सब उछिन्न भगवान् से भी नहीं देखा जाता। अवग्या की है तो भोगना ही पड़ेगा। एनजीटी जो भी सुझाए, मेरी मोटी बुद्धि कहती है कि एक सरकार ने लोगों की जबरिया नसबंदी की थी। आप भी नसबंदी का प्लान बनाओ। लेकिन ये नसबंदी आदमियों की नहीं वाहनों की करों। आवश्कता से ज्यादा एक भी वाहन दिल्ली में न दिखे।
 हमारे मुख्यमंत्री ने वाशिंगटन से बढ़िया सड़कें बनवाई हैं। आप यूरोप से बढ़िया पब्लिक ट्रांसपोर्ट बना दो। हाँ दूसरी नसबंदी एसी सिस्टम की करो। गरमी में यह गरीबों के हिस्से की शीतलता छीन लेती है। सूखी रूखी दिल्ली नमी के मौसम को इसीलिए हर साल पकड़ के बैठ जाती है। कड़ाई के साथ ये तीन काम कर दो फिर देखो दिल्ली फिर अपनी उसी पुरानी रवानी में लौट आएगी।