राज-काज: केंद्र के बाद राज्य मंत्रिमंडल में फेरबदल पर निगाहें….!
– लोकसभा चुनाव में भाजपा द्वारा प्रदेश की सभी 29 लोकसभा सीटें जीतने से मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव का कद बढ़ गया है। प्रदेश में भाजपा ने यह इतिहास पहली बार रचा है। इससे पार्टी दिग्गजों को दरकिनार कर डॉ यादव को मुख्यमंत्री बनाने का केंद्र का निर्णय सही साबित हुआ है। अलबत्ता, डॉ यादव उप्र और बिहार में उतना कामयाब नहीं हो पाए, जितनी नेतृत्व को उम्मीद थी। वहां यादव समाज ने क्रमश: अखिलेश यादव और तेजस्वी को ही अपना नेता माना। प्रदेश में भाजपा को जैसी सफलता मिली है, इसके श्रेय पूरी पार्टी और सरकार को है। अब खबर है कि केंद्र सरकार बनने के बाद प्रदेश मंत्रिमंडल में फेरबदल हो सकता है। जिन मंत्रियों के क्षेत्रों में पहले कम मतदान हुआ और बाद में जिनके क्षेत्रों में लीड घटी, उनके स्थान पर नए चेहरों को मौका दिया जा सकता है। खासकर उन विधायकों को जिनके क्षेत्रों में मतदान ज्यादा हुआ और लीड भी अच्छी मिली। चुनाव के दौरान कांग्रेस छोड़कर आए विधायकों राम निवास रावत, कमलेश शाह और निर्मला सप्र के लिए भी मंत्रिमंडल में जगह बनाई जा सकती है। कुछ वरिष्ठ और सक्षम विधायकों को भी फेरबदल में एडजस्ट किया जा सकता है। मुख्यमंत्री की कोशिश होगी कि नेतृत्व को भरोसे में लेकर अब वे अपनी पसंद का मंत्रिमंडल बनाएं।
*0 इन पांच नेताओं ने मनवाया अपने कौशल का लोहा….*
– सभी 29 लोकसभा सीटें जीतने के कारण प्रदेश में एक बार फिर भाजपा के संगठन की मजबूती सिद्ध हुई है। चुनाव में पार्टी के 5 नेताओं ने अपने कौशल और प्रबंधन क्षमता का खास लोहा मनवाया है। ये हैं मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव, प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा, पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर और प्रदेश के नगरीय प्रशासन मंत्री कैलाश विजयवर्गीय। मोहन यादव और वीडी शर्मा का जीत में ज्यादा श्रेय इसलिए है क्योंकि इन्होंने प्रदेश में सबसे ज्यादा दौरे किए हैं। पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं, यह उनके जीत के अंतर को देखकर लग जाता है। वे रिकार्ड 8 लाख 20 हजार से ज्यादा वोटों के अंतर से जीते हैं। कुछ अन्य सीटों की जीत में भी उन्होंने भूमिका निभाई है। नरेंद्र सिंह तोमर लगभग हार रही सीटों मुरैना और ग्वालियर में जीत के शिल्पकार बने। इन दोनों सीटों पर उनकी सिफारिश पर ही टिकट दिए गए थे। मुरैना में स्थिति सबसे कमजोर थी लेकिन कांग्रेस के एक वरिष्ठ विधायक और एक महापौर को पार्टी में शामिल कराकर उन्होंने बाजी पलट दी। कैलाश विजयवर्गीय ने सबसे बड़ा कमाल किया। इन्हें कमलनाथ के गढ़ छिंदवाड़ा को फतह करने की जवाबदारी सौंपी गई थी। पहले उन्होंने कमलनाथ के खास नेताओं को तोड़ा और फिर छिंदवाड़ा जीत करिश्मा कर दिया।
*0 कमलनाथ के राजनीतिक भविष्य पर प्रश्नचिन्ह….!*
– राजनीतिक हल्कों में सबसे बड़ा सवाल। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलनाथ अब क्या करेंगे? क्या होगा उनका राजनीतिक भविष्य? ऐसी चर्चाओं के बीच उन्होंने दिल्ली जाकर सोनिया गांधी से मुलाकात की। दोनों के बीच क्या चर्चा हुई, कोई नहीं जानता। सच यह है कि चुनाव से पहले भाजपा में जाने की खबरोंं के कारण वे गांधी परिवार का भरोसा खो चुके हैं। वे भाजपा के दरवाजे तक पहुंच चुके थे। बात नहीं बनी तब वापस लौटे। इधर छिंदवाड़ा का उनका किला ढह गया। चालीस साल की मेहनत से उन्होंने इसे अभेद्य बनाया था। बेटे नकुलनाथ को भाजपा के एक साधारण कार्यकर्ता विवेक बंटी साहू ने एक लाख से भी ज्यादा वोटों के अंतर से हरा दिया। भाजपा के दरवाजे दस्तक देने से पहले कमलनाथ की गांधी परिवार में ऐसी धाक थी कि उनका नाम कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद तक के लिए चला था। यह भरोसा बना रहता तो उन्हें सोनिया से मिलकर कोई निवेदन करने की जरूरत नहीं पड़ती। उन्हें बुलाकर महत्वपूर्ण जवाबदारी सौंपी जाती। अब ऐसा कुछ होगा, इसकी उम्मीद कम है। छिंदवाड़ा जिले की अमरवाड़ा विधानसभा सीट पर उपचुनाव तय है। यहां कमलनाथ फिर प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ेंगे। कांग्रेस की मजबूरी यह है कि यहां वह कमलनाथ के भरोसे ही रहेगी। सीट जीत कर कमलनाथ वापसी की शुरुआत कर सकते हैं।
*0 जीतू न एक भी सीट जीत पाए, न राहुल का दिल….*
– आखिर, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी लोकसभा चुनाव में न एक भी सीट जीत पाए और न ही राहुल गांधी का दिल। विधानसभा चुनाव में शिकस्त के बाद राहुल ने बिना किसी नेता की सलाह लिए जीतू को कमलनाथ के स्थान पर प्रदेश अध्यक्ष की जवाबदारी सौंपी थी। जीतू को दायित्व संभालते ही संगठन की सर्जरी करना थी, ताकि जड़ता समाप्त हो और नई टीम स्फूर्ति से काम कर सके। लोकसभा चुनाव में नुकसान के डर से वे यह हिम्मत नहीं जुटा पाए। लोकसभा चुनाव में उनसे कुछ सीटें जिताने की उम्मीद थी लेकिन एक मात्र छिंदवाड़ा भी हाथ से निकल गई। अधिकांश प्रत्याशियों का कहना था कि संगठन की ओर से उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया था। चुनाव के दौरान कांग्रेस में जैसी भगदड़ मची, उसे देखकर साफ हो गया था कि संगठन को संभालना, मजबूत करना और पार्टी कार्यकर्ताओं में जान फूंकना जीतू के बस की बात नहीं। नतीजों से यह सिद्ध भी हो गया। भाजपा ने सभी 29 सीटें जीत कर क्लीन स्वीप कर दिया। अब कांग्रेस में सिर फुटौव्वल है। जीतू कह रहे हैं कि हार की जवाबदारी मेरी है। कांग्रेस में कमलनाथ-दिग्विजय सिंह जैसे वरिष्ठतम और जीतू-उमंग सिंघार जैसे युवा नेता असफल हो चुके हैं। प्रदेश में कांग्रेस की मजबूती के लिए पार्टी नेतृत्व क्या करे, इसके लिए गहन चिंतन-मंथन के बाद निर्णय लेने की जरूरत है।
*0 दिग्विजय का दाे टूक संदेश, नहीं डालेंगे हथियार….*
– कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे। उनका कहना था कि राज्यसभा का उनका कार्यकाल अभी बकाया है, इसलिए उन्हें चुनाव लड़ने की जरूरत नहीं। नेतृत्व के निर्देश पर उन्हें मैदान में उतरना पड़ा। दिग्विजय ने क्षेत्र में लोगों से यह कह कर वोट मांगे कि यह मेरा आखिरी चुनाव है। फिर भी वे अपने गृह क्षेत्र राजगढ़ में एक लाख से भी ज्यादा वोटों के अंतर से हार गए। उन्हें अपनी गृह विधानसभा सीट राघौगढ़ से मात्र 11 हजार वोटों की लीड मिली। हार के बावजूद दिग्विजय का राजनीति से सन्यास लेने का कोई इरादा नहीं है। एक्स पर शिवमंगल सिंह सुमन की कविता के कुछ अंश लिखकर उन्होंने इसके संकेत दिए हैं। उनके कहने का तात्पर्य है कि वे संघर्ष करते रहेंगे, झुकेंगे नहीं। दिग्विजय राज्यसभा सदस्य के साथ कांग्रेस की सबसे ताकतवर संस्था सीडब्ल्यूसी के सदस्य भी हैं। उन्होंने वोट भले यह कह कर मांगे हों कि ये उनका आखरी चुनाव है लेकिन 77 के होने के बावजूद वे पूरी तरह फिट हैं। उन्हें अपने बेटे जयवर्धन को अभी अच्छी तरह स्थापित करना है। जयवर्धन इस बार राघौगढ़ विधानसभा सीट से महज साढ़े 4 हजार वोटों के अंतर से चुनाव जीत सके थे। भाजपा की आंधी राघौगढ़ से उन्हें उसी तरह उड़ाने पर आमादा है, जैसे छिंदवाड़ा में कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ को उड़ा ली गई।
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