Halma : आपसी सहयोग की आदिवासी परंपरा ने गांव की रंगत बदली!

1067

शॉर्ट फिल्म के डायरेक्टर अनिल तंवर की रिपोर्ट          Jhabua : माना जाता है, कि कोई किसी की मदद करने को तैयार नहीं होता। लेकिन, झाबुआ और आलीराजपुर जिलों के भील आदिवासी समाज में एक परंपरा ऐसी भी है, जिसमें आज भी ‘साथी हाथ बढ़ाना’ की तर्ज पर काम किए जाते हैं। धीरे-धीरे यह परंपरा धुंधली होती जा रही है, किंतु इस आधुनिकता की इस दौड़ में भी ऐसे कई मौके देखने में आते है, जहां ‘हलमा’ और ‘पड़जी’ के जरिए आदिवासी एक-दूसरे की मदद करते हैं। डायरेक्टर, प्रोड्यूसर अनिल तंवर ने परमार्थ की इसी आदिवासी परंपरा पर एक शार्ट फिल्म बनाई, जो आदिवासी समुदाय के सहयोग की भावना का प्रमाण है। किसी व्यक्ति या परिवार की मदद के बजाए ‘हलमा’ से पानी की समस्या का हल खोजा गया।                                                                                IMG 20220623 WA0034

झाबुआ जिला शिक्षा के मामले में पिछड़ा माना जाता है, किंतु परंपरा निभाने के मामले में आज भी आदिवासी समाज अव्वल है। समाज अपनी पुरानी सांस्कृतिक धरोहर को बचाते हुए कई ऐसी परंपराएं निभाते हैं, जो सामान्य तौर पर देखने में नहीं आती। उन्हीं परंपराओं में से एक है ‘पड़जी’ और ‘हलमा।’ एकता की मिसाल कायम रखने में ‘पड़जी’ और ‘हलमा’ को एक मजबूत संगठन के रूप में देखा जाता है। दोनों ही विषय मुख्य रूप से मदद के प्रतीक हैं।

क्या होता है ‘हलमा’ 

दरअसल, ‘हलमा’ भील समाज में मदद की एक परंपरा है। जब कोई व्यक्ति या परिवार अपने सारे प्रयासों के बाद भी संकट से उबर नहीं पाता, तो उसकी मदद के लिए सभी ग्रामीण भाई-बंधु जुटते हैं और अपने नि:स्वार्थ प्रयासों से उसे मुश्किल से बाहर निकालते हैं। यह ऐसी गहरी और उदार सामाजिक परंपरा है, जिसमें संकट में फंसे व्यक्ति की सहायता तो की जाती है पर दोनों पक्षों द्वारा किसी भी तरह का अहसान न तो जताया जाता है न माना जाता है। परस्पर सहयोग और सहारे की यह परंपरा दर्शाती है, कि समाज में एक दूसरे की मजबूती कैसे बनाई जाए। किसी को भी मझधार में अकेले नहीं छोड़ा जाता, बल्कि उसे निश्छल मदद के द्वारा समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जाता है।                                                                                  IMG 20220623 WA0033

कहानी झाबुआ और ‘हलमा’ परंपरा की

झाबुआ में जब गंभीर जल संकट की स्थिति निर्मित हुई, तो 20 लाख से ज्यादा आबादी के सामने जीने-मरने का सवाल खड़ा हो गया। इतना भी पानी नहीं था कि मानव और पशुओं के लिए पर्याप्त आपूर्ति हो सके। तब कुछ चैतन्य समाजसेवियों और झाबुआ के युवाओं ने मंथन किया और इस प्रश्न पर जाकर अटके कि कैसे इस समस्या का हल निकाला जाए! इस संकट से कोई एक व्यक्ति, कोई एक संस्था या महज सरकारी अवदान से नहीं निपटा जा सकता था। इसके लिए चाहिए था जन-जन का सहयोग, लेकिन वह कैसे मिलेगा? तब आदिवासी समाज से ही हल के सुनहरे बिंदु उभरकर सामने आए! अगर ‘हलमा’ जैसी परंपरा किसी व्यक्ति या परिवार के लिए हो सकती है, तो गांवों के लिए क्यों नहीं!

इस सुझाव में दम था, तभी कुछ युवा आगे आए। एक संकल्प लिया गया जल संकट से उबरने का, झाबुआ की जमीन पर हरियाली का ताना बाना बुनने का और झर-झर झरते पानी को सहेजने का! लक्ष्य बड़ा था, काम कठिन था पर इरादे स्पष्ट थे। उसमें उत्साह और जज्बा चरम पर था। आधुनिक तकनीक और परंपरा का संयोजन बैठाया गया। जन-जन तक उनकी ही भील परंपरा का हवाला देते हुए यह बात मानस में बैठाई गई कि कैसे एक से एक जुड़कर हम अपने गांवों की सूरत बदल सकते हैं। जब किसी व्यक्ति को संकट के दौरान हम अपनी ‘हलमा’ परंपरा से उबार सकते हैं, तो गांवों की तस्वीर बदलने की चुनौती भी इसी परंपरा के साथ उठाई जा सकती है।

राजा भगीरथ और झाबुआ की जल देवी जाह्मा माता की कथा ने प्रेरणा दी। मां गंगा को झाबुआ आमंत्रित करने का शुभ संकल्प लिया गया। सभी ने एक बड़ा काम करने का सामूहिक विश्वास व्यक्त किया और फिर आरंभ हुई यह ‘हलमा’ परंपरा। हर साल वर्ष जल संकट से जूझते झाबुआ को संकट से उबारने का।

जल संवर्धन बना जल अभियान

‘हलमा’ परंपरा के ग्रामीण सामूहिक विश्वास ने ‘शिवगंगा संगठन’ के साथ मिलकर झाबुआ की रंगत बदल दी। आज झाबुआ के 300 से अधिक गांवों में पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से तालाब, स्टॉप डेम, गली नियंत्रक, बोरी बंधान, हैंडपंप रिचार्ज, कंटूर ट्रेंचेज आदि हजारों जल संरचनाओं का निर्माण हुआ। जल संरक्षण से प्रारंभ होकर यह अभियान वन संवर्धन, गौ संवर्धन, जैविक कृषि, सामाजिक उद्यमिता तथा स्वच्छ गांव-स्वस्थ परिवार जैसे विविध आयामों को समेटे हुए नित नूतन प्रतिमान गढ़ रहा है। इसमें अक्षय ग्राम विकास का लक्ष्य भी शामिल है। झाबुआ की यह ‘हलमा’ परंपरा देश-दुनिया के लिए सशक्त समाधान बनकर उभर रही है। आज ‘हलमा’ की परिभाषा ही ‘जल के लिए एक दूसरे के साथ मिलकर सामूहिक श्रमदान करना और चमकते परिणाम प्राप्त करना’ होती जा रही है। हजारों आदिवासियों ने अनुशासित ढंग से अपने कर्म की कुदाली से, श्रम के फावड़े से और उत्साह की तगारी की मदद से बंजर गांवों में हरियाली की सुंदर जाजम तैयार कर दी है और धरा को अपने पसीने से बुना धानी परिधान पहना दिया।

9ca198c0 05ab 4579 ace6 2dd052d70063
Bhil Academy High Secondary School