साँच कहै ता! चुनावी लोकतंत्र में भ्रष्टाचार की सीढ़ी पंचायत से शुरू होती है!

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बात शुरू करते हैं अपने इलाके(रीवा) के सांसदसे, जिन्हें सच बोलने की बीमारी है। इसके चलते वे अक्सर मुसीबत मोल लेते रहते हैं। आरक्षण के पेंच उलझने से पहले जब पंचायत की सुगबुगाहट शुरू हुई थी तब उनका एक वीडियो बयान सामने आया था कि- ‘कोई सरपंच पंद्रह लाख रु. तक की हेराफेरी करे तो वह भ्रष्टाचार की परिधि में नहीं आता। …मैं इसे गुनाह मानता ही नहीं, इससे ऊपर का भ्रष्टाचार हो तो बताएं, कार्रवाई के लिए लिखेंगे।

 सांसदजी ने फिर पूरी मासूमियत से बताया कि – एक सरपंच कम से कम सात लाख रुपए चुनाव लड़ने में खर्च करता है तो इतना कमा लेना उसका नैसर्गिक अधिकार बनता है। सात लाख रुपए वह अगले चुनाव के लिए बचाकर रखता है। वे कहते हैं- ‘वोटर चुनाव के समय दारू-मुर्गा और नगद का मोह छोड़ दे तो ये सात दूनी चौदह लाख उसके गांव के बरक्कत में लग जाए।’ यह तो आप भी मानेंगे कि सांसदजी की बातों में दम तो है।

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 मध्यप्रदेश में पंचायत के चुनाव आरक्षण की भंवर में फंसे और अब उससे निकलकर फिर प्रक्रिया में आ गए। पिछली बार चू्ंकि अधबीच में ही प्रक्रिया स्थगित हो गई थी, सो इस बार छांछ भी फूंक-फूंक कर पी रहे हैं।

  पिछली बार एक हफ्ते तक की प्रक्रिया के बीच ही सरपंच के अदने से प्रत्याशी को वोटगोटी सेट करने में ही लाखों का फटका लग गया था। पूरे प्रदेश की जोड़ें तो अल्प समय के प्रचार में प्रवाहित की गई रकम अरबों में न सही करोड़ों में बैठेगी। उस बार कुछ दिलचस्प खबरें भी हाथ लगी थीं । मसलन कुछ पंचायतें नीलाम हो गईं। पचास से साठ लाख तक बोली पहुंची। कुछ का निपटारा बजरंगबली के मंदिर में हो गया। यहां चढ़ावे की रकम से तय हो गया कि गाँव का सरपंच कौन होगा। गांव वालों ने नीति-नियंताओं को अच्छे से बता दिया- अपने चुनावी लोकतंत्र को फाइल में बांधे रखिए.. यहां अब उसकी जरूरत नहीं रही।

 उत्तरप्रदेश में पिछले साल कोरोना के बीच ही पंचायत के चुनाव संपन्न हो गए। क्रॉनिक कोरोना काल में बहुत से वोटर वोट देने के बाद कोरोना-कलवित हो गए। लाशें गंगाजी में बहती या किनारे रेती में गड़ी विदेशी सेटेलाइटों द्वारा देखी और कैप्चर की गईं। मरघट की लपटों के बीच अपनी बारी का इंतजार करती लाशों की तस्वीरें करोड़ों में नीलाम हुईं। ये अपने चुनावी लोकतंत्र की महिमा है, जियो तो चांदी काटो, मरो तो समझो गिद्ध-कौवों की चोंच मेंं सोना ही सोना।

 सो उत्तरप्रदेश में जिस तरह पंचायत चुनाव निपटे उसकी महिमा बताते हैं। हमारे एक रिश्तेदार के घर में सात वोटर थे जो पंची के लिए सत्तर हजार और सरपंची के लिए एक लाख बीस हजार में बिके। उन्होंने खुली बोली लगा रखी थी। अंतिम बोली इतने में ही लॉक हुई। मैंने पूछा- फूफाजी आप ने तो लोकतंत्र की बनाके तेरही कर दी..? वे बोले- और उनके बारे में तुम्हारा क्या विचार है जिन्होंने इस लोकतंत्र का गला चपाया, तिलांजलि दी, दशगात्र और करम किया..?

  फूफाजी सुलझे आदमी थे। उनका मत था कि हम वोट न भी बेचते तो जीतने वाला जीतता ही। और वह पांच साल में हारेदांव पचास लाख तो कमा ही लेता। सो ‘हरिचंदी’ से बेहतर ‘मनीचंदी’ है। फिर बोले- दादू, दवा नहीं देखती कि रुपया ईमानदारी का है कि बेइमानी का, मरीज को दवा चाहिए..। फिर खेत-पात की खसरा- खतौनी- ऋणपुस्तिका बनाने वाले, पीएम आवास योजना..ये सब फोकट में थोड़े ही न मिलता है।

फूफाजी की बातें सुनकर लगा कि हमारे इलाके के सांसद सोलह आने सच्ची बात करते हैं, लेकिन उन्हें अभी और अपडेट होने की जरूरत है। अपने एमपी में वोट का रेट कम है, फिर भी सामान्य से रसूख वाली पंचायत में एक वोट बराबर एक हजार रुपए। यानी कि सौ वोट एक लाख और दो सौ वोट दो लाख। यह बहुत ही मामूली रकम है। दो सौ खरीदे हुए वोट जिसकी जेब में हों, फिर भला उसे कौन हरा सकता है।

  इस बार कितने ही सरपंच प्रत्याशियों को आप जानते होंगे, जिन्होंने चुनावी इंतजामात के लिए पचास लाख से ज्यादा रुपए नगद अपने अंटे में बांध करके रखा था। हर जिले में ऐसे प्रत्याशी तो सौ-सौ होना ही चाहिए।इस पचास लाख के खर्च करने और सूद समेत वापस पाने की अर्थगणित कोई भी बता सकता है। सरपंच बन गए तो रकम लौटने में बस यूँ..यूँ का वक्त।

 एक अनुभवी सरपंच मित्र ने मुझे अपनी गणित से अपडेट किया। उनके अनुसार जीते सरपंच का रसूख तो होता ही है, सो विधानसभा चुनाव में दोनों पक्षों के प्रत्याशियों से मोलतोल के बाद पच्चीस लाख तो मिल ही जाते हैं। फिर इतने का ही जुगाड़ लोकसभा चुनाव में। रुपया वापस हिसाब बराबर।

  अब पांच साल में एक पंचायत को औसतन दो से पाँच करोड़ तक का बजट मिलता है। यहाँ अपने-अपने सावकाश पर निर्भर होता है कि कौन कितना हजम कर ले। अब जैसे हमारे जिले में एक महिला सरपंच पर हाल ही मुकदमा दर्ज हुआ। वह पंचायत का पूरा फंड बेटे के खाते में ट्रांसफर कर देती थीं। बेटा उसी पंचायत के कामों का ठेकेदार और सप्लायर भी था..इस तरह प्रथम दृष्टया ही पता चल गया कि उसने बीस लाख रुपए कैसे ठिकाने लगा दिए। अब जब  ‘अबला’ सरपंच  ‘वीरपराक्रमी’ सरपंच कितना कुछ करने का सामर्थ्य रखते हैं अंदाजा लगा लीजिए।

 मैं जब अखबार में रूटीन का काम करता था तब फरवरी-मार्च में हर साल एक रिपोर्ट तैयार करवाता था। रिपोर्ट यह कि जिले में इस वर्ष किस विभाग द्वारा कितना खर्च हुआ, कितने की राशि सरेंडर हुई, कितने का गबन दर्ज हुआ, कितने की कुर्की वसूली जारी हुई। यह बड़ी दिलचस्प रिपोर्ट होती थी..। इस रिपोर्ट में पांच-सात साल पूर्व तक यह तथ्य उभरकर आता था कि जिले भर की पंचायतों से 100 करोड़ रुपए के आसपास की वसूली की जाना है..।

  इस साल के सही आँकड़े आरटीआई लगाकर आप दुरुस्त कर सकते हैं कि पूरे प्रदेश भर में पंच परमेश्वरों से कितना वसूला जाना है, कितने का गबन हुआ, कितने मुकदमे दर्ज हैं।

( डिस्क्लेमर – ‘काली भेंड़ों की जमात में कुछ सफेद मेमने भी हो सकते हैं जो इस छलछंद से दूर हों और अपनी पंचायत को विकास के मामले में स्वर्ग की दहलीज तक पहुंचा दिए हों।’)

 यदि ऐसे एक भी मामले आपकी नजर में आएं तो मुझे जरूर बताएं, मैं वहाँ पहुंचकर विस्मृत हो चुकी विकासशील पत्रकारिता को जागृत करना चाहूंगा।

 पंचायतें लोकतांत्रिक व्यवस्था की वो छोटी सी इकाई हैं जहाँ बकौल राजीव गांधी एक रूपये का दस पैसे पहुंचता है। क्या यह व्यवस्था बदली है ..? पंचायत सचिवों, जनपदों- जिला पंचायतों के सीईओ, इंजीनियरों, और भी बड़े अफसरों के घरों में यदाकदा पड़ने वाले लोकायुक्त के छापे बताते हैं..नहीं!

 कुछ महीने पहले ही टेक्नोक्रेट से सांसद बने मालवा क्षेत्र एक महाशय के खिलाफ अदालत में 600 करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार का मामला दर्ज हुआ तो ‘न खाएंगे न खाने देंगे’ का जुमला उल्टी की तरह मिचलाता हुआ हम जैसे कइयों के मुँह पर आ गया।

 हम यह नहीं पूछते कि नोटबंदी से कालेधन के खात्मे का ऐलान करने वाले यह बताएं कि उस इत्रवाले के यहां ढाई सौ करोड़ की नगदी कैसे आई। समिति सेवक/प्रबंधक जैसे छोटे कर्मचारी के यहाँ छापों मेंं करोड़ों की नगदी कहां से प्रकट हो जाती है? पंचायतों में सरपंची की बोली पचास लाख तक कैसे पहुंच जाती है? सरपंच दूसरे साल ही स्कार्पियो और विधायक फार्च्यूनर से कैसे घूमने लगते हैं? सांसदजी के कुलदीपक लैंडक्रूजर लेकर नशे में फुटपाथों को रौंदते कैसे तफरी पर निकल जाते है? मंत्रालय से रिटायर होते ही साहब बहादुरों के शहर या हिल स्टेशन से सटे पचासों एकड़ के फार्महाउस किस तिलस्मी दुनिया से प्रकट हो जाते हैं?

 एक प्रबंधन गुरू ने कहा है- सफल लोग कुछ अलग नहीं करते बल्कि उसी बात को अलग तरीके से प्रस्तुत करते हैं..। सही कहा..लेकिन हमारे नेता रामानंद सिंह ने वर्षों पहले अपने संसदीय जीवन का निचोड़ ही रख दिया था कि- बरमबाबा का चौरा नहीं बदलता, चौरे पर बैठकर अभुआने का ढंग भी नहीं बदलता, बदलते रहते हैं तो सिर्फ पंडे।