सिनेमा और समाज हमेशा ही एक-दूसरे को राह दिखाते आए हैं। पथ प्रदर्शक की इसी परंपरा में परदे पर गाहे बनाने वह किरदार भी उभरकर सामने आ जाते है, जिन्हे देखकर दिन के उजाले में हम नाक भौंह सिकोड़ते हैं। लेकिन, इसी समाज के कुछ चेहरे छुपते छुपाते उन बदनाम गलियों में पहुंच जाते हैं जहां तवायफें रातें रोशन करती हैं। जो लोग इन गलियों में नहीं जाते, उनके लिए फिल्मकारों ने सिनेमाघरों में बैठकर कोठों का मंजर देखने और तवायफों की अदाओं पर सिक्के बरसाने का इंतजाम किया है। सैल्यूलाइड पर इस विषय कई फिल्में बनती रही, जो तवायफों और उनके जीवन को अलग-अलग अंदाज में पेश करती हैं। सिनेमा के लिए तवायफ इतना दमदार विषय है कि बड़ी से बड़ी अभिनेत्री और सिनेमा की त्रिमूर्ति भी इससे बच नहीं सकी।
दिलीप कुमार की देवदास, राजकपूर की राम तेरी गंगा मैली और देव आनंद की ‘काला पानी’ इसी कथानक पर बनी ऐसी फ़िल्में हैं, जो मील का पत्थर बन गई। गुरुदत्त ने तो तवायफों की बदहाली से परेशान होकर ‘प्यासा’ में साहिर लुधियानवी की लेखनी से पंडित नेहरू को चुनौती देते हुए कह दिया था ‘जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां है! यहाँ एक बात स्पष्ट करना होगी कि तवायफ और वैश्या दो अलग-अलग पेशे हैं, जो राजे-रजवाड़ों के दौर से समाज में आए। तवायफ यानी गाने-बजाने वाली औरत और शरीर का सौदा कर ने वाली वैश्या कहलाती है! इसमें बहुत महीन अंतर है और कई बार ये ख़त्म भी हो जाता है। कई बार दर्शक और समीक्षक फिल्म में तवायफ को भी वैश्या का किरदार समझ बैठते हैं। जबकि, बाजार में अपना जिस्म बेचना और कोठे में नाचना दोनों अलग-अलग काम हैं। कई फिल्मों में इस बारीक अंतर को गंभीरता से दिखाया गया, तो कई फिल्मों में ये कहानी उलझकर रह गया।
लेखिका रुथ वनिता ने अभी तक बनी 235 फिल्मों में तवायफों की भूमिका को लेकर ‘डांसिंग विद द नेशन : कोर्टिजंस इन बॉम्बे सिनेमा‘ किताब लिखी थी। उनका मानना है कि हिंदी फिल्मों में तवायफों को कभी पतित और अबला के तौर पर पेश नहीं किया गया। उन्हें विदुषी, अपने हुनर में काबिल, अमीर और आधुनिक औरत की तरह दिखाया गया, जो अपनी मर्जी की मालकिन हैं। तवायफ को एक अच्छी औरत साबित करने वाली फिल्मों में ‘साधना’ और ‘तवायफ’ को भी गिना जा सकता है। लेकिन, सबसे अलग थी शरतचंद्र चटर्जी की ‘देवदास’ की तवायफ चंद्रमुखी, जो निस्वार्थ भाव से देवदास का सहारा बनती है। मुज़फ्फर अली की फिल्म ‘जानिसार’ भी एक तवायफ और अवध के नवाब की प्रेम कहानी थी।
सिनेमा के परदे पर तवायफों की कहानी पर फ़िल्में बनाना काफी अरसे पहले शुरू हो गया था। लेकिन, आजादी के बाद की फिल्मों में ये चलन कुछ तेजी से बढ़ा। नामचीन तवायफों की जिंदगी को कहानी में गढ़कर परदे पर उतारा गया। अभिनेत्री वहीदा रहमान तो उस दौर में गुरुदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ (1957) में तवायफ की भूमिका की, जब दूसरी अभिनेत्रियां इससे कतराती थीं। उन्हें लगता था कि ऐसे किरदार निभाने से उनकी छवि बिगड़ेगी।
1972 में ‘पाकीजा’ और 1981 में आई ‘उमराव जान’ ने तवायफ़ों की जिंदगी की कई परतें खोली थीं। ये दोनों फिल्में हिंदी फिल्म इतिहास की अमर कथाएं मानी जाती है। ‘पाकीजा’ में मीना कुमारी ने साहेब जान और नरगिस के मां-बेटी के दोहरे किरदार निभाए थे। ‘पाकीजा’ की खासियत थी कि इस फिल्म ने देखने वालों को तवायफ की खूबसूरती में छुपी तड़प, प्रेम और समर्पण से परिचित कराया था। निर्देशक कमाल अमरोही ने ये घृणित जीवन जीने वाली औरतों की मुसीबतों का हल ढूंढने की कोशिश भी की थी। ये फिल्म बनने में 14 साल जरूर लगे, पर मीना कुमारी ने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया। मीना कुमारी और रेखा दोनों को इन फिल्मों से जीवन की सर्वश्रेष्ठ फिल्म होने का सम्मान मिला।
1981 में लेखक मिर्ज़ा मोहम्मद हादी रुसवा के उर्दू उपन्यास ‘उमराव जान’ पर मुजफ्फर अली ने रेखा को लेकर ‘उमराव जान’ बनाई थी। फिल्म के लिए रेखा को सर्वश्रेष्ठ अभिनय का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। गीत-संगीत और अभिनय में भले ही दोनों फिल्मों ने इतिहास बनाया हो। लेकिन, दोनों फिल्मों में एक बड़ा अंतर था। कमाल अमरोही की ‘पाकीजा’ और मुजफ्फर अली की ‘उमराव जान’ में तवायफ के मन में दबा प्रेम, समर्पण और आम औरत की तरह घर बसाने की अतृप्त इच्छा का ही फिल्मांकन था। लेकिन, ‘पाकीजा’ में समाज के इस वर्ग की समस्याओं का पूर्ण विराम लग गया। उधर, ‘उमराव जान’ में पुरुषों में वफा और सच्चा प्यार तलाशती तवायफ की जिंदगी को एक सवालिया निशान लगाकर छोड़ दिया गया था।
रेखा ने ‘उमराव जान’ के अलावा 1978 में अमिताभ बच्चन के साथ ‘मुकद्दर का सिकंदर’ में भी जोहराबाई की भूमिका निभाई, जो कोठे पर नाचती है। इस फिल्म का एक गाना ‘सलाम ए इश्क मेरी जान’ लम्बे अरसे तक लोगों की जुबान पर चढ़ा रहा। 1997 में आई फिल्म ‘आस्था’ में भी रेखा ने ऐसी गृहिणी का किरदार निभाया था जो परिवार के लिए वैश्या बन जाती है। इसके अलावा प्यार की जीत, उत्सव, दीदार-ए-यार और ‘जाल’ जैसी फिल्मों में भी उन्होंने तवायफ का किरदार निभाया था। इस्माइल श्राफ की फिल्म ‘आहिस्ता आहिस्ता’ में एक बच्ची को तवायफ बनाने की आईटीआई मार्मिक प्रस्तुति की गई थी कि जिसे देखकर दर्शक अंदर तक हिल जाता है।
तवायफों की जिंदगी को कुरेदना संजय लीला भंसाली का प्रिय विषय है। ‘देवदास’ के बाद उन्होंने 2015 में ‘बाजीराव मस्तानी’ बनाई थी जिसमें दीपिका पादुकोण ने मस्तानी की भूमिका की। भंसाली ने अब ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ बनाई, जिसमें आलिया भट्ट ने तवायफ का किरदार निभाया। ये फिल्म एक तवायफ के माफिया क्वीन बनने की कहानी है। भंसाली की यह फिल्म मशहूर लेखक एस हुसैन जैदी की किताब ‘माफिया क्वीन्स ऑफ मुंबई’ पर आधारित है। तवायफ की भूमिका वाली यादगार फिल्मों में 2002 में आई संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘देवदास’ है, जिसमें माधुरी दीक्षित ने चंद्रमुखी का किरदार निभाया था। चंद्रमुखी को देवदास से प्यार हो जाता है, लेकिन ये प्रेम कहानी पूरी नहीं हो पाती।
इससे पहले ‘खलनायक’ (1993) में तवायफ बनकर माधुरी ने ‘चोली के पीछे’ पर डांस किया था। उन्होंने ‘कलंक’ में भी तवायफ की भूमिका की। यह बंटवारे से पहले 1945 की पृष्ठभूमि पर बनी थी। फिल्म में वे एक मुस्लिम तवायफ बहार बेगम बनी है, जो पहली सेकुलर नायिका के तौर पर सामने आती है। वे राम की जीत के गीत गाती और कोठे पर नटराज की मूर्ति नजर आती है।
फिल्म ‘बेगम जान’ में विद्या बालन का अभिनय भी दर्शकों को बेहद पसंद आया था। बांग्ला फिल्म ‘राजकहिनी’ की रीमेक ‘बेगम जान’ कई मायनों में एक अहम फिल्म है। इसमें विभाजन की त्रासदी में तवायफों के दर्द को बयां किया गया। फिल्म के केंद्र में बेगम जान है जो उन्मुक्त पर सख्त औरत है जो कोठा चलाती है। ऐसा ही अंदाज श्याम बेनेगल ने ‘मंडी’ में शबाना आजमी का दिखाया था। शर्मिला टैगोर जैसी अभिनेत्री ने भी दो बार ऐसी भूमिका की। लेकिन, दोनों किरदार अलग-अलग थे। राजेश खन्ना के साथ ‘अमर प्रेम’ में वे शांत और अंतर्मुखी तवायफ बनी, जिसे राजेश खन्ना को प्यार हो जाता है। इसके बाद वे संजीव कुमार के साथ गुलजार की फिल्म ‘मौसम’ में तवायफ का किरदार किया जो बेहद तर्रार होती है। वो शराब भी पीती है और उसके हाथ में सिगरेट भी दिखाई देती है।
मधुर भंडारकर की फिल्म ‘चांदनी बार’ (2001) में तब्बू ने इतना जीवंत अभिनय किया कि उसे नेशनल अवॉर्ड मिला था। फिल्म में अंडरवर्ल्ड की कहानी के साथ तवायफों के दर्द को भी दिखाया गया था। फिल्म के लिए तब्बू को बेस्ट एक्ट्रेस का नेशनल अवॉर्ड मिला था। ऐश्वर्या राय भी ऐसा किरदार निभाने के मोह से बची नहीं!
2006 में उन्होंने जेपी दत्ता की ‘उमराव जान’ के रीमेक में अभिषेक बच्चन के काम किया था। ये एक ऐसी तवायफ की कहानी थी, जो ये बदनाम काम छोड़कर आम जिंदगी जीना चाहती थीं, पर ऐसा हो नहीं पाता! करीना कपूर भी दो बार फिल्मों में इस तरह के किरदार में नजर आईं। 2004 में आई ‘चमेली’ में करीना ने तवायफ की भूमिका निभाई थी, इसमें करीना के साथ राहुल बोस थे।
2012 में आई फिल्म ‘तलाश’ में भी करीना ने इसी तरह का किरदार निभाया था। कंगना रनौत ने ‘रज्जो’ में इसी तरह का किरदार निभाया था। कंगना पहली बार ऐसी किसी भूमिका में नजर आई थीं। उन्होंने इस काम के लिए काफी मेहनत भी की, पर फिल्म कामयाब नहीं हो पाई थी!
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रानी मुखर्जी ने भी ‘लागा चुनरी में दाग’ और ‘मंगल पांडे’ में तवायफ का किरदार अदा किया, जो उनके सभी किरदारों से अलग था। ये फिल्म परदे पर तो कमाल नहीं कर सकी, लेकिन रानी के किरदार को सराहा गया। श्रुति हासन ने भी निखिल आडवाणी की फिल्म ‘डी डे’ में वैश्या की भूमिका निभाई थी। इसमें उन्होंने अर्जुन रामपाल के साथ कई बोल्ड सीन भी दिए थे।
बीआर चोपड़ा की फिल्म ‘चेतना’ में भी रेहाना सुल्तान ने अपनी अदाकारी से वैश्या के किरदार को जीवंत किया था। ‘चिंगारी’ में सुष्मिता सेन ने भी वैश्या के किरदारों को दमदार तरीके से निभाने की कोशिश की। मधुर भंडारकर की गिनती ऐसे निर्देशकों में हैं, जो विषय को जीवंतता के साथ पर्दे पर पेश करते हैं। उनकी फिल्म ‘ट्रैफिक सिग्नल’ पूरी तरह से इसी विषय पर केंद्रित थी जिसमें कोंकणा सेन ने जोरदार था। युक्ता मुखी ने भी ‘मेमसाहब’ में इसी तरह का किरदार किया।
फिल्मों के शुरूआती दौर में जाएं तो 1941 में होमी वाडिया प्रोडक्शन की इंग्लिश फिल्म ‘कोर्ट डांसर’ आई थी। इसमें पृथ्वीराज कपूर ने प्रिंस चन्द्रकीर्ति और साधना बोस ने राज नर्तकी की भूमिका निभाई थी। तवायफों के काल्पनिक किरदारों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुई, सलीम और अनारकली की प्रेम कहानी। 1928 में आरएस चौधुरी ने ‘अनारकली बनाई जिसमें दिनशा बिल्मोरिया और रूबी मायर ने काम किया था।
1935 में चौधुरी ने इन्हीं दोनों कलाकारों को लेकर दूसरी बार फिर ‘अनारकली’ बनाई! फिल्मिस्तान ने 1953 में नंदलाल जसवंत लाल के निर्देशन में प्रदीप कुमार, बीना राय को लेकर फिर ‘अनारकली’ बना डाली। लेकिन, 1961 में के आसिफ ने ‘मुग़ले आज़म’ बनाकर इस कथानक को अमर कर दिया।
अकबर बने पृथ्वीराज कपूर के साथ दिलीप कुमार और मधुबाला ने सलीम और अनारकली के पात्रों को जिस तरह जीवंत किया, वो कोई और नहीं कर सका। जबकि, 1955 में तमिल और तेलुगु में वेदांतम राघवैया के निर्देशन में में भी सलीम-अनारकली की कथा को फिल्माया जा चुका है। शशि कपूर ने शूद्रक के संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिकम’ पर ‘उत्सव’ फिल्म बनाई थी। इसमें रेखा ने वसंत सेना का किरदार निभाया था, जो राज दरबार में नर्तकी होती है।
आचार्य चतुरसेन ने अपने उपन्यास ‘वैशाली की नगर वधु’ में आम्रपाली नाम की तवायफ को गढ़ा था। इस पर भी अब तक दो बार ‘आम्रपाली’ नाम से ही हिंदी फ़िल्में बनी है। पहली बार 1945 में नंदलाल जसवंतलाल के निर्देशन में बनी ‘आम्रपाली’ में मुख्य किरदार सबिता देवी ने किया था। दूसरी बार ‘आम्रपाली’ 1966 में बनी जिसे लेख टंडन ने निर्देशित किया था। इसमें आम्रपाली का किरदार वैजयंती माला ने निभाया था और सुनील दत्त मगध सम्राट अजातशत्रु थे।
भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ की नायिका चित्रलेखा जो बाल विधवा है और मौर्य सम्राट की राज नर्तकी भी। इस कहानी पर निर्देशक केदार शर्मा ने दो बार फ़िल्म बनाई। 1941 में बनी पहली ‘चित्रलेखा’ में मेहताब और नंदरेकर ने काम किया था। ये फिल्म अभिनेत्री मेहताब के स्नान दृश्य के कारण चर्चित हुई थी। 1964 में दूसरी बार बनी ‘चित्रलेखा’ में मीना कुमारी, प्रदीप कुमार और अशोक कुमार थे। लेकिन, अब सिनेमा से ये विषय धीरे-धीरे हाशिए पर चला गया। क्योंकि, दर्शकों की नई पौध की ऐसे कथानकों में कोई रूचि नहीं है।