
Hospice-कैंसर धर्मशाला : खुशी खुशी विदाई…मुझे घर जाना है!
डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी
mumbai ;Hospice मेरे लिए नया शब्द था. पत्रकार मित्र विमल मिश्र ने पिछले दिनों इसके बारे में तब बताया था, जब हम मुंबई, बांद्रा के माउंट मेरी चर्च के सामने बने इस आश्रम के सामने खड़े थे.
यहां Hospice का हिन्दी भावार्थ बहुत ही क्रूर/कटु/वीभत्स लगा : कैंसर धर्मशाला!
जब कैंसर से जूझ रहे व्यक्ति को डॉक्टर जवाब दे जाता है और उसका अपना कोई नहीं होता/अक्षम होता है तब वह इस Hospice में आकर रुक सकता है. यहां उसकी 24 घंटे केयर होगी और वह भी निशुल्क. ईसाई मिशनरी द्वारा चलाए जाने वाला यह सब यह सदन सभी धर्म के लोगों के लिए खुला है.
विमल जी ने बताया कि मुसाफिर तो हम सभी हैं जो इस दुनिया रूपी धर्मशाला में आए हैं लेकिन यह धर्मशाला उन लोगों के लिए है जो जल्दी में है! एक बार वे यहां नवभारत टाइम्स में एक रिपोर्ट के संदर्भ में आए थे.
यहां का सूत्रवाक्य है -हम आपकी ज़िंदगी दिन नहीं जोड़ सकते, लेकिन आपके दिन में ज़िंदगी जोड़ सकते हैं!
कैंसर है, कष्ट है, पीड़ा है और कष्टदायक तथा एकाकी इंतज़ार के अलावा कोई विकल्प नहीं है तो आनंद फिल्म के हीरो जैसी जिंदादिल जिंदगी का विकल्प यहां खुला है.

मित्रा ने बताया कि मैंने यहां एक छोटे बच्चों को बागवानी करते देखा. वह फूलों के पौधे को पानी दे रहा था. मैंने उससे कहा कि वाह, इसमें तो जल्दी ही फूल खिलने लगेंगे. वह बच्चा मुस्कुराया और बोला ~हां, लेकिन तब तक मैं नहीं रहूंगा!
शांति अवेदना आश्रम कई मार्मिक और हृदयस्पर्शी किस्सों का घर है, जहाँ जीवन के अंत में मानवता, प्रेम और गरिमा की जीत होती है. ये किस्से दर्शाते हैं कि सिस्टर्स और स्टाफ के लिए यह केवल सेवा नहीं, बल्कि Act of Love है.
प्रेम की जीत
एक स्वयंसेवक ने बताया था कि जब वह एक अत्यंत बीमार मरीज़ के पास गया, तो दुर्गंध के कारण वह थोड़ा पीछे हट गया. वहाँ मौजूद एक सिस्टर ने यह देखा। सिस्टर तुरंत उस मरीज़ के पास गईं और बड़े प्यार से उसे सहारा देकर बिठाया.
जब स्वयंसेवक ने सिस्टर से पूछा कि क्या उन्हें दुर्गंध महसूस नहीं हुई, तो उन्होंने मुस्कुराकर कहा, “भैया, महसूस तो हो रही है, पर क्या हुआ? हमारी तरह एक इंसान हैं , रिश्तेदार नहीं हैं, तो क्या हुआ? क्या होता है स्मेल से?”
आश्रम में मरीज़ को केवल एक मरीज़ नहीं, बल्कि संपूर्ण सम्मान के साथ एक इंसान माना जाता है.

“अब मुझे घर जाना है”
एक गंभीर रूप से बीमार मरीज़ को उनके परिवार ने इस उम्मीद से आश्रम में भर्ती कराया था कि वह अपना अंतिम समय शांति से गुजार सकें। कुछ हफ़्तों की देखभाल और सही दर्द निवारक दवाइयों के कारण उनकी सेहत में सुधार आया।
एक दिन उन्होंने सिस्टर से कहा, “मैं ठीक हो गया हूँ, अब मुझे घर जाना है।”
यह आश्रम की सबसे बड़ी सफलता है। कई बार मरीज़ इतने ठीक हो जाते हैं कि वे अपनी अंतिम इच्छाएँ पूरी करने या कुछ समय परिवार के साथ बिताने के लिए घर लौट जाते हैं, हालाँकि वे जानते हैं कि कैंसर वापस आएगा।

फेयरवेल पार्टी.
एक युवा मरीज़ एशले ने अपने अंतिम दिनों में पार्टी करने की इच्छा व्यक्त की. आश्रम की टीम ने तुरंत डॉक्टर की अनुमति लेकर एक छोटी सी पार्टी का आयोजन किया.
पार्टी में सजावट, गाना, केक और कराओके सब कुछ था। एशले ने अपनी अंतिम साँस लेने से पहले अपने दोस्तों और परिवार को हँसाया, मज़ाक किया और कहा कि “दुखी गाने मुझे कैंसर से पहले मार डालेंगे।” उस रात वह ख़ुशी-ख़ुशी सोया और अगली सुबह शांति से गुज़र गया।
यह आश्रम केवल मृत्यु का इंतज़ार करने की जगह नहीं है, बल्कि अंतिम समय को प्रेम, शांति और गरिमा से जीने का एक पवित्र स्थान है।
मदद कर सकते हैं-
यहां मदद कर सकते हैं, प्रचार या फोटोबाजी नहीं. आप दुनिया में कहीं भी हों आश्रम की साइट पर जाकर ऑनलाइन मदद कर सकते है. मदद को आयकर से छूट मिलेगी.




