In Memory of My Father: नारियल जैसे बाबूजी

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In Memory of My Father
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In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता

जीवन में जितना पिता का महत्व है उतना शायद किसी और का नहीं है, पिता वो है जो हमारे खुशियों के लिए ना जाने कितनी ऐसी अपनी खुशी को हमारे लिए हंसते हंसते कुर्बान कर देते हैं। और उसकी भनक तक हमें लगने नहीं देते हैं। पिता वो फरिश्ता है जो हमें सिर्फ और सिर्फ देता है। पिता वो है जो हमें जिंदगी में पहला कदम रखने पर हमारी उंगली पकड़ हमें दुनिया दारी सिखाता है। पिता वो है जो कभी भी हमें दर्द में देखना नहीं चाहता है। पिता की जगह इस दुनिया में कोई नहीं ले सकता है ।जब पिता नहीं होते तब होता है पिता की  स्मृतियों में ही सही हम  कुछ सुकून खोज लेते है कई समस्याओं के हल पिता के स्मरण से ही स्वत: मिल जाते हैं । महात्मा  गांधी जिन्हें हम राष्ट्र पिता बुलाते हैं ,एक पिता जी जिम्मेदारी अपने परिवार के लिए निभाते हैं गांधीजी ने पूरे देश के लिए निभाई थी  इसीलिए उन्हें दुनिया बापू कहती है ,आज हम बापू  की इस जयंती से पिता को लेकर एक शृंखला शुरू कर रहे हैं मेरे मन मेरी स्मृतियों में मेरे पिता।

       इसकी प्रथम किश्त हम मीडियावाला के प्रधान सम्पादक श्री सुरेश तिवारी से ही शुरू कर रहे हैं उनके पिताश्री स्व. पंडित रामानंद तिवारी जी को सादर नमन करते हुए ——-

1. मेरी स्मृतियों में मेरे पिता : स्व. पंडित रामानंद तिवारी

          In Memory of My Father: नारियल जैसे बाबूजी

            सुरेश तिवारी

                                              “पिता मूर्ति:प्रजापते:”

       “पिता प्रजापति देवता का स्वरुप है,और प्रजापति वह है, जो अपनी प्रजा की रक्षा करता है,उसका             भरण पोषण करता है। “

 

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मैं गर्व से कहता हूं कि मैं पंडित रामानंद तिवारी सर का बेटा हूं। उनका पुत्र होना मेरे लिए गर्व की बात है। गर्व इसलिए है कि वह जो कुछ भी थे, स्वयं की मेहनत से बने थे और इसलिए कि वे सीधे,सच्चे और अनुशासन प्रिय इंसान थे।
जीवन की सात्विकता को सदा सर्वोपरि रखते हुए उन्होंने आडंबर नहीं ओढ़ा। मेरा मानना है कि बाल्यावस्था से ही बच्चों के लिए पिता रोल मॉडल होता है। उसके जीवन को पिता के आदर्श, नियम, सिद्धांत, कार्य प्रणाली और व्यवहार के साथ जीवन मूल्य तक बहुत कुछ प्रभावित करते हैं।

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बाबूजी ही हमारे पहले गुरु भी रहे और पालनहार भी। आर्थिक विषमताओं के बावजूद कम से कम में भी संस्कारों के साथ हमें ऐसा पाला पोसा कि ‘अर्थ’ की महत्ता या उसके चमत्कारिक स्वरूप ने, उसकी चकाचौंध ने बच्चों को कभी प्रभावित नहीं किया। जो है, जितना है, उसे ही परिवार में मिल बांट कर उपयोग करने में भी एक संतुष्टि का सहज भाव उनसे ही मिला जो सुख-दुख के वक्त सारे कुटुंब के एक साथ खड़े हो जाने पर आज भी दिखने लगता है। नहीं जानता मैं, कि बाबूजी की सामूहिक चेतना का वह कौन सा मंत्र था जो वह हम सभी भाइयों को देते रहे। घर परिवार का भविष्य पिता की आर्थिक और सामाजिक स्थितियों से निर्मित होता है।

बाबूजी का सिद्धांत ‘बंधी मुट्ठी लाख की खुल गई तो खाक की’ एक मजाक मजाक में भी दिया गया संदेश था। उस बंद मुट्ठी की ताकत रही कि परिवार का भविष्य सुनहरा बनता गया।

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बाबूजी बाहर से कठोर दिखते थे,पर भीतर से संवेदना की नदी उनमें हमेशा बहती रहती थी। स्वाति ठीक ही कहती है ‘नारियल जैसे बाबूजी’। जिस भाव से वे पेश आते थे उसमें कठोरता जरूर दिखाई देती थी लेकिन अंदर से भाव कोमल हृदय और उदारता का रहता था। आज जब समझने लगे तब लगता है उनकी वह कठोरता केवल बाहरी अवरोधों से टकराने के लिए होती थी। उनके वे पत्र जो सालों साल पहले हम भाइयों को लिखे गए थे,वह आज भी कई कई बार पढ़ता हूं तो उनकी बाह्य कठोरता गायब हो जाती है। उनके मार्गदर्शन,जीवन दर्शन और स्व आध्यात्म का नया स्वरूप मुझे दिखाई देता है। जीवन की ऊबड खाबड़ जमीन पर खुद चलते हुए बच्चों को समतल मार्ग दिखाने वाले बाबूजी का रौबदार चेहरा और उस पर बुलंद आवाज, अभी स्मृति पटल पर ज्यों की त्यों अंकित है।

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 मैंने बाबूजी के बाद उस कर्मठता को अपने बड़े भैया आदरणीय बी.एल तिवारी में स्वयम में और लगभग सभी भाइयों में अनुभव किया। मेरा मानना है कि पिता की कर्मठता संतानों में स्वत: हस्तांतरित हुई है। मैं भी अपने कर्म में उसी बाबूजी के विश्वास को महसूस करता हूँ और मेरी इस यात्रा में मैंने जो भी सफलता हासिल की वह भाग्य से कहीं ज्यादा कर्म पर आधारित थी। कहते है कि संस्कार बच्चों को अलग से नहीं देने पड़ते वे तो परिवेश से रोटी के निवाले के साथ ही हमारे मनोबल को पोषित करते हैं। बाबूजी का अनुशासन और दृढ़ता मुझे जीवन भर प्रेरित करती रही।

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बाबूजी कहते थे कि व्यक्ति को महत्वाकांक्षी होना चाहिए पर एक सीमा तक। अति किसी भी बात की बुरी होती है ,महत्वाकांक्षा हमें आगे बढ़ाती है और संस्कार हमारी महत्वाकांक्षा को प्रबंधित करते हैं। बाबूजी के ही कर्म और संस्कार थे कि हम सभी 6 भाई अपने अपने जीवन में आपस में बंधे भी रहे हैं और सदा साथ खड़े भी रहे। अनुशासन का यह पाठ परिवार को बांधे रखने का यह सूत्र कच्चे घर की पक्की छत देने वाले लकड़ी के खम्बे पर बाबूजी का चाक से लिखा वह वाक्य ही था जो कहता था  “लकड़ी के गठ्ठर की तरह बंधे रहोगे तो मजबूत रहोगे और बिखर गए तो टूट जाओगे.” हम तागा तिवारी गोत्र के सदस्य परिवार के लगभग 80 सदस्य एक कुटुंब हैं अपने बाबूजी का कुटुंब और बरगद जैसे बाबूजी की  शाखाएं हैं हम।

बाबूजी का परिवार
बाबूजी का परिवार

वेअक्सर कहा करते थे एकाग्रता से काम करो। मनुष्य जब एकाग्रता से अपनी शक्ति को किसी एक दिशा में लगाता है तो वह उस दिशा में शिखर पर होता है। भाग्य से ज्यादा और समय से पहले किसी को नहीं मिलता है। अगर यह समझ रखोगे तो किसी वस्तु के न मिलने पर दुख नहीं होगा। यह और ऐसी जाने कितनी बातें जो हर विषम परिस्थिति में आज भी याद आ जाती है। मुझे लगता है बाबूजी हर वक्त मेरे साथ है।

कहीं पढ़ी थी कवि आलोक श्रीवास्तव के ग़ज़ल संग्रह ‘आमीन’ की इन पंक्तियों में मुझे अपने बाबूजी दिखाई देते हैं-

 

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घर की बुनियादें,दीवारें, बामो- दर थे बाबूजी,
सबको बांधे रखने वाला खास हुनर थे बाबूजी,
तीन मोहल्ले में उन जैसी कद काठी का कोई नहीं था,
अच्छे खासे ऊंचे पूरे कद्दावर थे बाबूजी।

अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है,
बई की सारी सज धज, सब जेवर थे बाबूजी,
भीतर से खालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ पिता,
अलग, अनूठा, अनबूझा- सा एक तेवर थे बाबूजी,
कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे, कभी हथेली की सूजन,
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी।

उनका सदैव मेरे सर पर हाथ है। सादर प्रणाम करता हूं, उन स्मृतियों को, जिनका कलश लबालब भरा हुआ है।

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    सुरेश तिवारी

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