डॉ सीमा शाहजी के प्रथम काव्य संग्रह “ताकि मैं लिख सकूं” का लोकार्पण

525

डॉ सीमा शाहजी के प्रथम काव्य संग्रह “ताकि मैं लिख सकूं” का लोकार्पण

कार्तिक पूर्णिमा और गुरुनानक जयंती के पावन पर्व पर लेखिका डॉ सीमा शाहजी के प्रथम काव्य संग्रह का इंदौर लेखिका संघ के द्वारा श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति इंदौर में लोकार्पण हुआ ।इस काव्य संग्रह में ऐसी 61 कविताएं है, जो किसी गहरे अंतर्द्वंद से बाहर आने की कोशिश कर रही है। इस संघर्ष का मिजाज थोड़ा अलग है।

सीमा जी स्वयं एक बेटी है तो बेटियों के बड़े होने में माता-पिता और रक्त से जुड़े रिश्तो की व्यापक भूमिका का गहराई से निष्पक्ष आकलन किया है। ‘बेटियां पानी की तेज धार’ ‘बेटियां: तीन संदर्भ’ ‘मां’  ‘हमारे पिता है वे’ और ‘बच्चा’ कविताएं कवियित्री के हर्ष, कृतज्ञता, और मासूमियत के वे अभिलेख हैं, जो हृदय की लेखनी, रक्त की मसि से समय पत्र पर उकेरे गए चित्रावलियों से लगते हैं।

बंद हथेलियों से
पकड़ लेती है
उत्ताल तरंगे
हर बार…….बार……बार…..
देती रहती चुनौतियों का संसार

कवियित्री का भाव जगत जितना समृद्ध है ,उतना ही शिल्प जगत भी, जो तीन शब्दों की गागर में सागर को भर गया है। बच्चे और मां के अंतरसंबंधों को बच्चा कविता में देखा जाना चाहिए –
अ-अनार का
आ-आम का
देखे नहीं है उसने
आम-औ-अनार
बस किताबों के दर्पण में
देखा है रसभरा जलजला (पृष्ठ 48)
जलजला भी रसभरा हो सकता है? यह कवियित्री का नया उपमान है। वैसे वह यहां अधिक भावुक हो गई है। शिक्षा का एक सिद्धांत है- ‘ज्ञात से अज्ञात की ओर ….अनार और आम उसी यात्रा का आरंभ है।
डॉ सीमा को सागर, झरने , नदियां, और, बादल आदि जल के उपादान मन के निकट लगते हैं। मेघदूत, ऋतुसंहार के जनक कालिदास में उनका मन बहुत रमा है। उज्जैन के पास ही उनका ननिहाल है, अतः वह कालिदास की काव्य क्रीडा भूमि से सहज ही जुड़ी हुई है। जग की विद्रूपता के बीच कालिदास उनकी चेतना में है, जो संस्कारजन्य है-
बस मेघ को
लौटा दे उसका प्यार
पानी को पवित्रता
समुद्र को गहराई
ताकि गुनगुना सके
फिर से कालिदास……..(पृष्ठ ३६)
या
खोज करो उस प्रेम की
पर्याय जिसका भारत है
पर्याय जिसका कृष्ण है
कालिदास है…….(पृष्ठ 98)
आदि रचनाओं में उनका जलीय (सरल-तरल) व्यक्तित्व उस युवती की तरह दिखता है ,जो ज्येष्ठ की धूप में झुलसी ,वनांचल के जलाशय में ,शीतलता की आस में तैर रही है ….ऊपर धूप और नीचे पानी और उसके बीच नीले नैनो से हाथ पैर मारती हुई स्वयं और तट के बीच की दूरी मापती हुई….।
जल ही की तरह प्रकृति के अन्य उपादान जैसे धूप,गौरैया ,पुष्प, बीज ,आम,अमराई ,फागुन ,पत्ते, पतझड़, कोयल, पलाश आदि को वर्तमान जीवन के संदर्भ में रखते हुए संस्कारित स्पर्श दिया है। इसलिए कठोर सत्य और आधुनिक विडंबनाओं को समेटने वाली यह रचनाएं कुंठा, उपदेशात्मकता और रोदन की नीरसता से मुक्त होकर भावात्मक संसार को सृजित करने में सफल रही है।डॉ अलका भार्गव ने डॉ जया पाठक द्वारा लिखी गई समीक्षा का वाचन बहुत ही सुमधुर आवाज में किया। विमोचन हेतु हिन्दी साहित्य समिति के एतिहासिक,गौरवशाली मंच से समस्त आयोजन को मूर्त रूप देने में इंदौर का साहित्य जगत उपस्थिति रहा .