अवतरण दिवस: पश्चिमी दुनिया में ‘क्रिया योग विज्ञान’ के जनक परमहंस योगानंद!

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अवतरण दिवस:

पश्चिमी दुनिया में ‘क्रिया योग विज्ञान’ के जनक परमहंस योगानंद!

– डॉ मधुसूदन शर्मा

बात ग्रेगोरियन कैलेंडर के सन 1893 के जनवरी के पहले सप्ताह की है। सभी लोग नए साल के आगमन पर एक-दूसरे को बधाई और शुभकामनाएं देकर खुशियां मना रहे थे। इन्हीं दिनों वातावरण में व्याप्त प्रेम पूर्ण स्पंदनों के बीच 5 जनवरी को गोरखपुर की पावन भूमि पर एक समृद्ध एवं धार्मिक बंगाली परिवार में एक दिव्य बालक का अवतरण हुआ। पिता भगवतीचरण घोष व मां ज्ञान प्रभा घोष ने अपने इस नवजात शिशु का नाम मुकुंद रखा। घोष दंपत्ति संत प्रवृत्ति के थे। इनके सदगुरु काशी के महान योगी ईश्वर प्राप्त संत श्री श्री श्यामा चरण लाहिड़ी महाशय थे। पति-पत्नी दोनों ने लाहिड़ी महाशय से क्रिया योग की दीक्षा ली थी।
मुकुंद सामान्य बालक की तरह नहीं था, विशेष था। चेहरे पर दिव्य तेज, शांत स्वभाव का बालक बरबस ही अपनी ओर सबको खींच लेता था। उसके हाव-भाव चित्ताकर्षक थे। बचपन में ही मुकुंद के स्मृति पटल पर पूर्व जन्म की घटनाएं उभर आती थी। बचपन में जब बच्चे धमा-चौकड़ी मचाने, खेल-खिलौनों तक सीमित रहते हैं, वहीं मुकुंद अपना समय बिताने के लिए एकांत ढूंढता और योग मुद्रा में बैठकर मंद आवाज में कुछ बुदबुदाता रहता, जैसे कि वह किसी से वार्तालाप कर रहा हो।

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प्रत्येक रविवार को मुकुंद अपने माता पिता के साथ गोरखनाथ के मंदिर में पूजा करने जाता। एक बार घर में रविवार को कोई धार्मिक समारोह था, तो माता-पिता मंदिर नहीं जा पाए। समारोह देर तक चला। समारोह के समापन पर अतिथि तो चले गए, पर मुकुंद को घर में न पाकर माता पिता चिंतित हुए, उनकी ढूंढ हुई। कुछ देर बाद पता चला कि मुकुंद एक बाल तपस्वी की तरह श्री गोरखनाथ मंदिर में ध्यानस्थ है। जिस बालक के जीवन की बचपन से ही प्राथमिकता ईश्वर हो, उसे तो बड़ा होकर महान योगी बनना ही था और वे बने भी। बालक मुकुंद बड़ा होकर परमहंस योगानंद के रूप में विख्यात हुए। परमहंस योगानंद का ध्येय वाक्य भी था ‘गॉड फर्स्ट’ यानि ईश्वर प्रथम। परमहंस अपने शिष्यों से कहते थे शेष सब कुछ प्रतीक्षा कर सकता है, परंतु आपकी ईश्वर की खोज प्रतीक्षा नहीं कर सकती।
परमहंस योगानंद जी का अवतरण सृष्टि के लिए ईश्वर की एक विशेष योजना थी। वह थी सम्पूर्ण मानव जाति के लिए क्रिया योग का प्रचार प्रसार। कलयुग के दौरान तमोगुण की प्रधानता रही, जिससे क्रिया योग कई शताब्दियों तक लुप्त रहा। आधुनिक काल में मृत्युंजय महावतार बाबाजी ने इसका फिर से परिचय कराया। महावतार बाबाजी ने इस राजयोग से श्री श्री लाहिड़ी महाशय को दीक्षित किया और उन्हें गृहस्थियों को भी इस योग विज्ञान को सिखाने का आदेश दिया। बाद में बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय के शिष्य स्वामी श्री युक्तेश्वर जी को परमहंस योगानंद जी के माध्यम से यह क्रिया योग विज्ञान पश्चिमी जगत में जाकर पूरे विश्व को यह विधि सिखाने का आदेश दिया। इस तरह इन पूजनीय गुरुवों महावतार बाबाजी, श्री श्री लाहिड़ी महाशय जी और स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी ने परमहंस योगानन्द जी को क्रिया योग का पुरातन विज्ञान पूरे विश्व को सिखाने के लिए चुना था।
क्रिया योग के प्रचार प्रसार के लिए परमहंस योगानन्द जी ने भारत में सन 1917 में योगदा सत्संग सोसाइटी (वाईएसएस) और अमेरिका में सन 1920 सेल्फ-रिलाईजेशन (एसआरएफ) की स्थापना की। क्रिया योग प्राणायाम करने की राजयोग की एक विकसित विधि है। यह सामान्य सांस लेने का व्यायाम नहीं है, बल्कि यह प्राणायाम की सर्वोच्च ज्ञात तकनीक है, जिसके द्वारा साधक सचेत रूप से शरीर में जीवन शक्ति को नियंत्रित कर सकते हैं। योग मार्ग में सफलता पाने के लिए यह सबसे तीव्र और सबसे अधिक प्रभावशाली विधि है। जिसे परमहंस योगानंद जी द्वारा रचित पाठमालाओ में सिखाया जाता है। परमहंस योगानंदजी ने ही सबसे पहले पश्चिम जगत को मानव जाति के लिए सबसे कीमती उपहार भारत के प्राचीन योग विज्ञान ‘क्रिया योग विज्ञान’ से परिचित कराया। इसीलिए उन्हें पश्चिम में योग का जनक माना जाता है।
परमहंस योगानंद जी ने अपनी आत्मकथा ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी’ लिखी, जो किसी भी योगी द्वारा लिखी गई पहली आत्मकथा है। इसका पहला प्रकाशन सन 1946 में हुआ था। यह पुस्तक योग के प्राचीन विज्ञान का गहरा परिचय देती है। इसका हिंदी अनुवाद ‘योगी कथा मृत’ के रूप में हुआ है।कोलकाता विश्व विद्यालय के प्रवक्ता डॉ आशुतोष दास ने योगी कथामृत पर अपने विचार इस प्रकार प्रकट किए हैं ‘योगी कथा मृतआधुनिक युग का उपनिषद्म है। इसने संसार के लाखों सत्यान्वेषियों की आध्यात्मिक प्यास को तृप्त किया है। भारतीय सन्तों व दर्शनशास्त्र संबंधी इस पुस्तक की लोकप्रियता के अभूतपूर्व प्रसार को देख हम भारतीय मुग्ध और आश्चर्यचकित है। हमें अत्यंत संतुष्टि और गौरव का अनुभव होता है कि ‘योगी कथामृत’ के स्वर्णिम पात्र में भारत के सनातन धर्म, शाश्वत सत्य के सिद्धान्तों, के अविनाशी अमृत को संग्रहित किया गया है।’
वर्तमान में भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने परमहंस योगानन्द और उनके द्वारा स्थापित योगदा आश्रम के बारे में कहा ‘योगानंदजी का चेहरा अलग तरह से चमकता है। उन्होंने दुनिया को वह दिया जिसकी मानव जाति को सिर्फ भोजन, वस्त्र और आश्रय से अधिक आवश्यकता थी। एक महान ऋषि जैसा कि वह थे, कई महान लोगों की तरह, उन्होंने कम उम्र में ही अपना शरीर छोड़ दिया , फिर भी उनकी आध्यात्मिक कृपा अपार है। जब भी मैं वाईएसएस रांची आश्रम, विशेष रूप से परमहंसजी द्वारा पोषित लीची के पेड़ का दौरा करती हूं, तो मुझे हमेशा महान आध्यात्मिक कंपन महसूस होता है। मुझे हमेशा लगता है कि ये लीची दूसरी लीची से अलग हैं, और मैंने खुद को ऊपर उठाया हुआ महसूस किया।’
परमहंस योगानन्द जी को उनके भक्तगण प्रेमावतार कहकर अलंकृत करते हैं।उन्होंने ईश्वर साक्षात्कार के लिए दिव्य प्रेम विकसित करने पर बल दिया। वह कहते थे ‘सार्वभौमिक भाव में, सृष्टि में प्रेम आकर्षण की दिव्य शक्ति है जो संतुलन बनाती है, एकजुट करती है और आपस में बाँधकर रखती है। जो लोग प्रेम के आकर्षक बल के साथ अन्तर्सम्पर्क में रहते हैं, वे प्रकृति और अपने साथियों के साथ सामंजस्य को प्राप्त करते हैं, और ईश्वर के साथ आनन्दपूर्ण पुनर्मिलन के लिए आकर्षित होते हैं। वे कहते हैं पति और पत्नी, माता-पिता और बच्चे, दोस्त और दोस्त, स्वयं और सभी के बीच शुद्ध और बिना शर्त प्यार विकसित करना, वह सबक है जिसे सीखने के लिए हम पृथ्वी पर आए हैं।