India that is not Bharat: अस्मिता,राष्ट्रवाद के मसलों पर असहज क्यों हो जाता है विपक्ष ?
रमण रावल
हमारे देश का नाम भारत हो या इंडिया ही रहने दिया जाये,इस पर चर्चा उबाल पर है। विरोधियों का कहना है कि इससे क्या फर्क पड़ता है कि हमारे देश का वास्तव में क्या नाम था और अब क्या हो गया है? जनाब इससे फर्क पड़ता है,पड़ना चाहिये। इसमें आने वाली तमाम अड़़चनों के बावजूद वह होना चाहिये, जो हकीकत है। यह मसला पहचान खोकर हासिल होने या बचपन में बिछड़ कर युवावस्था में मिल जाने जैसा भी है। और जब यह मिलेगा तो वो सारी बातें तो होंगी ही कि इस दौरान क्या-क्या हुआ था? इनसे बचने के लिये ही तकलीफ,विवाद,आपत्ति,ऐतराज है ?
यूं यह पहला मौका नहीं है, जब देश का नाम भारत हो,यह मांग उठी हो। अनेक अवसरों पर इसका जिक्र होता रहा है, यहां तक कि उस संविधान सभा में भी,जिसने इंडिया देट इज भारत को स्वीकार किया था। यह तब भी गलत था,आज भी है और कल भी रहेगा। आप कह सकते हैं कि संविधान सभा ने भी इसे 51 विरुद्ध 38 मतों से खारिज कर दिया था। तब भी इसका मतलब यह तो नहीं था कि इस नाम के लिये सर्व स्वीकार्यता थी? याने भविष्य में इस पर चर्चा की गुंजाइश कायम थी। वही तो हो रहा है। तो इतना हल्ला क्यों?
खास तौर से विपक्ष यह कह रहा है कि चूंकि सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ ज्यादातर विपक्षी दल एकजुट होकर मोर्चा बना चुके हैं, जिसका नामकरण इंडिया(इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव अलायंस) किया गया है। इसलिये भयभीत होकर,लोकप्रियता से् घबराकर भाजपा ने यह चाल चली है। वह राजनीति कर रही है। विपक्ष की आपत्ति पूरी तरह उचित है। भाजपा सरकार या मोदीजी विशुद्ध राजनीति कर रहे हैं। अब जब भाजपा भी राजनीतिक दल है और उसे भी 2024 में लोकसभा चुनाव लड़ना है तो वह राजनीति नहीं करेगी तो विपक्ष क्या चाहता है कि भाजपा भजन-कीर्तन करे ? आध्यात्मिक गतिविधियां संचालित करे और सत्ता उन लोगों के हाथों में सौंप दे, जो कल तक एक-दूसरे को बुरी तरह कोस रहे थे। सलाखों के पीछे डाल देने की मांग उसी केंद्र सरकार से कर रहे थे, जिसके खिलाफ वे अब कथित तौर पर एकजुट हैं। विपक्ष भी राजनीति कर रहा है और भाजपा भी तो बुरा क्या है और गलत कौन है? दोनों ही नहीं ।
अब बात कर लेते हैं इंडिया बनाम भारत की।विपक्ष ने भी तो राजनीति ही की,जिसके तहत पहले गठबंधन का संक्षिप्त नाम इंडिया सोचा गया,फिर प्रत्येक अक्षर के मायने खोजे गये और घोषणा कर दी। तो जब आपने राजनीतिक तकाजे के तहत नामकरण किया तो केंद्र सरकार या भाजापा भी राजनीतिक फायदा उठाने के लिये देश का नाम भारत करना चाह रही है तो गलत कैसे हो गया? मुझे लगता है कि देश के आमजन को सीधे तौर पर कोई फर्क न पड़ने के बावजूद उसकी भावना तो यह होगी ही कि उसके देश का नाम उसका अपना हो,किसी आक्रमणकारी शासक द्वारा दिया गया न हो। चूंकि संविधान बनने के वक्त और इस समय भी यह उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है कि वह इसका निर्धारण करे तो वह लगभग खामोश है। यह खामोशी स्वीकारोक्ति ही है। आप यदि विदेश में कहीं जा बसते हैं और आपका नाम उन लोगों के लिये उच्चारण में असुविधाजनक है तो वे निक नेम रखकर आपको बुलाते हैं। जैसे सेम पित्रोदा,जिनका मूल नाम है-सत्यनारायण गंगाराम पित्रोदा। ऐश्वर्या राय को वहां एश कहा जाता है।ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। ऐसे में यदि सेम पित्रोदा अपने मूल नाम से पुकारा जाना चाहें तो क्या आपको आपत्ति होना चाहिये या उसका कोई औचित्य रहेगा?
यदि बात करना ही है तो देश में व्यापक बहस इस बात पर होना चाहिये कि स्वतंत्रता के बाद से ही तत्कालीन सराकरों ने कभी भी राष्ट्रीय अस्मिता,राष्ट्रवाद से जुड़े मसलों पर ध्यान क्यों नहीं दिया? क्यों इस देश में मुगलों,अंग्रेजों के नाम पर तो सैकड़ों स्मारक,सड़कें,भवन,संस्थान खड़े होते रहे और देशभक्त,शहीदों को भुलाया जाता रहा? ओरंगजेब,अकबर,बाबर,टीपू सुल्तान,हुमायूं,विक्टोरिया,वायसराय,बख्तियार,अहमद शाह,कुतुबुद्दीनों के नाम तो आसमान में टांग दिये और जिन क्रूर,आततायियों ने हमारे अनगिनत वीर सेनानियों को फांसी पर लटका दिया,उनकी ओर झांकना तक पसंद नहीं किया?
देश में 2014 के बाद से राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़े पहलुओं पर गौर होने लगा और देश का स्वाभिमान बढ़ाने के कदम उठाये जाने लगे तो विपक्ष को हर काम से तकलीफ होने लगी। जैसे विपक्ष को विरोध करने की बीमारी हो गई हो, जो महामारी बनती जा रही है। सेंट्रल विस्टा का निर्माण हो, राम मंदिर हो,कश्मीर से 370 का खात्मा हो,सडकों-स्मारकों,शहरों-रेलवे स्टेशनों,पुरातात्विक महत्व के संस्थानों के नाम परिवर्तन हों,विपक्ष अपनी ढपली लेकर सड़क पर निकल पड़ता है। इसका सीधा-सा मतलब तो यही है कि उसके पास भाजपा सरकार के विरोध के ठोस,तार्किक मुद्दे नहीं हैं। फिर,उसका मकसद किसी भी तरह से सत्ता पाना है और केंद्र सरकार के हर उस कदम का विरोध करना है, जो उसने भले ही व्यापक जनहित में उठाये हों।
हम देख ही रहे हैं कि इस समय सर्वोच्च न्यायालय में धारा 370 की बहाली को लेकर कांग्रेस समर्थक दर्जन भर अधिवक्ता पैरवी कर रहे हैं। जबकि संवैधानिक तौर पर यह अस्थायी व्यवस्था थी। साथ ही वास्तविकता् तो दर्पण में उभरी छवि की तरह साफ हो चुकी है कि तब भी इसकी आवश्यकता ही नहीं थी, लेकिन तुष्टिकरण और राजा हरिसिंह से खुन्नस के चलते हटाकर शेख अब्दुल्ला को कश्मीर सौंपने की स्पष्ट मंशा के तहत इस प्रावधान को लागू किया गया था। इसने वहां देश से अलगाव,आतंकवाद और हिंदुओं पर अत्याचार का सैलाब ला दिया। फिर भी कांग्रेस,मुफ्ती और शेख परिवार अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये उस विशेष दर्जे के लिये मुहिम चला रहे हैं।
बड़ा सवाल तो यही है कि कांग्रेस और स्वतंत्रता के बाद से या अपने गठन के बाद से ही कांग्रेस के घनघोर विरोधी रहे दल और उनके नेता आज पक्के मित्र बनकर भाजपा को सत्ता से क्यों हटाना चाहते हैं? सिर्फ इसलिये कि भाजपा के रहते और खासकर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री रहते इन तमाम दलों-नेताओं के कदाचरण,काले कारनामे एक-एक कर सामने आते जायेंगे, जो प्रकारांतर से इन्हें जनता के सामने इस तरह बेपरदा कर देंगे कि ये मुंह दिखाने लायक नहीं बचेंगे। यही डर इन्हें कतारबद्ध होने को विवश कर रहा है। बिल्ली के भाग्य से यदि छिंका टूट गया तो इनकी असल सूरत देखने के लिये तैयार रहियेगा। वैसे,निश्चिंत रहिये,2024 में वैसा कुछ नहीं होने वाला।