अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस : स्त्री पर दो कवितायें

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 ईश्वर का उपहार

मैं नारी हूँ मैं शक्ति हूँ
मैं परिवार का आधार हूँ।
कर्तव्य पथ पर चलते हुए
स्नेही स्वजनों की पुकार हूँ।

मुझसे ही संझा बाती है
मैं ही देती संस्कार हूँ।
मुझसे ही सारे रिश्ते नाते
मैं ही रसोई का श्रृंगार हूँ।

दिए की बाती पूजा की थाली
रंगोली सजाती कलाकार हूँ ।
मैं ही धागा मैं ही रक्षा सूत्र
भाई की कलाई में बंधा प्यार हूँ।

मैं शांत नदी सी बहती कल-कल
अनुराग व स्नेह की बयार हूँ।
गर इज्जत पर आंच आ जाए
तो मैं ही दुर्गा का अवतार हूँ।

दया क्षमा ममता समता
इन भावों से भीगी सद्विचार हूँ।
अपने सपनों को साकार करती
मैं ईश्वर का सुंदर उपहार हूँ।

मैं नारी हूँ मैं शक्ति हूँ
मैं परिवार का आधार हूँ।
कर्तव्य पथ पर चलते हुए
स्नेही स्वजनों की पुकार हूँ।

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शीला मिश्रा

महिला जन्म नहीं लेती बनती है

विचार दर्शन– सिमोन द बोऊवार—-

ओ स्त्री—-
तुम पैदा नहीं हुई
तुम बना दी गई हो
तुमने तो यह जहां बनाया
तुमने ही जन्म दिया मानव को
तुम मां बनी
सौ शिक्षकों के बराबर
तुमने सभ्यता संस्कृति परंपरा दी
मानव ने उसे असभ्यता ,जंगलराज में बदला
तुम्हारी मातृ सत्ता को छीनकर
पितृसत्तात्मक राज्य स्थापित कर लिया
तुमने तो त्रिदेव का भी रुख बदला
कभी अनुसूया और कभी अहिल्या बनी
तुमने बरसों बरस पत्थर की शिला बनकर
वर्षा शीत और ग्रीष्म की मार सही
फिर भी तुम डिगी नहीं
तुम सीता द्रोपदी तारा बनकर शोषित होती रही
परंतु अब तुम उठ खड़ी हो गई हो
ना तुम पत्थर की शिला हो
जिस से ठोकर मार कर कोई पुरुष जगाएगा
और ना ही तुम यशोधरा
जिससे एकाकी छोड़कर तप
किया जा सके
तुम स्वयं तपस्विनी हो
ईश्वर का अंश हो
तुम नहीं त्यागती किसी को
अपनाती हो
चूल्हा चौका करती तुम
लालन-पालन भी करती हो
आज की नारी हो
जो रचती है ध्रुपद तान सी रचना
जिसने उतार फेंका है
दीनता और कमजोरी का चोला
जो करती है तुम्हारे भाग्य का निर्माण
अपने हौसले और साहस से
आगे बढ़ती स्त्री तुम स्त्री हो
जन्म से नहीं
बुनी गई हो
घढी गई हो
फिर भी हो
डॉक्टर, टीचर ,इंजीनियर
विचारक ,दार्शनिक और संरक्षक
तुम कुचलना चाहते हो उसे
दो तरफा बांट देना चाहते हो
उसने भी दस हाथ और चार आंखें
धारण कर ली है
वो कायम रखे हुए हैं यह दुनियां
उसने सूरज को उगा रखा है
तुम्हारे विचार और चिंतन भी उसकी देन है
तुम्हारा लेखन और संपूर्णता भी
सभी कुछ उसका है— सब कुछ
तुम्हारा कुछ भी नहीं
क्योंकि—–
क्यों कि—–
तुमने जन्म लिया है और
उसने बनना स्वीकार किया है
स्त्री तुम स्वयं बनी हो
स्वयं गढ़ी गई हो
बुनी गई हो
गुनी गई हो
उसके अस्तित्व को स्वीकार करो
अन्यथा
रह जाएगा
इस पृथ्वी पर
बस एक
शून्य—–

 

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सुषमा व्यास ‘ राजनिधि’

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