IPS Training: मिश्राजी का लिफाफा और लड़कियों की गिरफ्तारी पर दुख भी और सुकून भी ?

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एक नए IPS अधिकारी की डिस्ट्रिक्ट ट्रेनिंग में थाने के स्वतंत्र प्रभार की ट्रेनिंग का बहुत महत्व होता है। खंडवा ज़िले में मेरी ट्रेनिंग(IPS Training) के समय मेरे पुलिस अधीक्षक स्वर्गीय श्रीनाथ तिवारी थे। वे मुझे ट्रेनिंग तो बहुत कठिन देते थे लेकिन मुझसे पुत्रवत् व्यहवार करते थे। वे सभी सार्वजनिक या निजी कार्यक्रमों में मुझे सदैव साथ रखते थे। 2 माह की थाना ट्रेनिंग आने पर उन्होंने मुझे ज़िले का कोई भी थाना चुन लेने का अधिकार दिया और मैंने ओंकारेश्वर मान्धाता थाने का चुनाव किया।

30 अप्रैल,1976 को मैं अपने सहायक आरक्षक दीनानाथ के साथ बस से थाने के लिए रवाना हुआ। दीनानाथ ने बाल्टी,स्टोव और कुछ बर्तन आदि साथ में रख लिये थे। अगले दिन यानी 1 मई को मैंने ट्रेनिंग(IPS Training )के लिए थाने का प्रभार ग्रहण किया। मान्धाता थाना प्राचीन ब्रिटिश शैली के अनुसार पूरा एक खपरैल की छत के नीचे बना था।सामने कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर एक बरामदा था जिसमें में लगी टेबल कुर्सी थाना प्रभारी का खुला आफ़िस था।बीच का बड़ा कमरा मोहर्रिर (प्रधान आरक्षक लेखक) का कक्ष एवं थाने की सभी गतिविधियों का केंद्र बिंदु था। बाईं तरफ़ 2 छोटे कमरे रिकॉर्ड रूम और मालखाने के लिए थे।दाहिनी तरफ़ हवालात बनी हुई थी।सबसे पीछे का कमरा सर्किल इंस्पेक्टर के निरीक्षण के समय उनके रूकने के लिए बना था। परन्तु यहाँ कोई अधिकारी न रूकते हुए PWD रेस्ट हाउस में रूका करते थे अतः इस कमरे का उपयोग थाने के मुत्रालय के रूप में होता था। मैंने रेस्ट हाउस में डेरा डालने के स्थान पर इसी कमरे को साफ़ करवा कर रहने का निर्णय लिया।बहुत सफ़ाई के बावजूद मेरे कमरे से दुर्गंध जाने का नाम नहीं ले रही थी और इसका प्रयोग मैं केवल सामान रखने और कपड़े बदलने के लिए करता था।दीनानाथ भी खाना यहीं बनाते थे। थाना कैंपस में पीछे स्टाफ़ के लिए कुछ क्वार्टर्स बने थे।थाने के पीछे कुछ दूर सागौन के वृक्षों से आच्छादित पहाड़ी मेरे खुले शौचालय का काम करती थी। स्नान थाना भवन के पीछे खुले में रखी पटियों के ऊपर करता था।असहनीय गर्मी के दिन थे, मान्धाता पहुँच कर मुझे पता चला कि वह मध्य प्रदेश के सबसे गर्म इलाक़ों में से एक है।पंखे गर्म हवा फेंकते थे।बिजली अधिकांश नदारद रहती थी। रात को मैं थाने के सामने की सीढ़ियों के सामने खुलें में खाट लगाकर सोता था।यदि दोपहर में ख़ाली रहा तो विश्राम करने के लिए हवालात में पानी डलवाकर उसके अंदर सोता था।

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थाने में मेरे अधीन 2 प्रधान आरक्षक पदस्थ थे जो वास्तव में मेरे गुरु के समान थे क्योंकि मैं उनसे थाने का काम और बारीकियां बड़े उत्साह से सीखता था। थाने के कार्य के लिए 6 तथा नर्मदा घाट हेतु 2, कुल 8 आरक्षक तैनात थे। थाने में मोहर्रिर का काम प्रधान आरक्षक राम निहोरे करते थे। मैं उनसे रोज़नामचा, FIR और केस डायरी लिखना सीखा। उन्होंने थाने के समस्त रजिस्टर और केस डायरियों में प्रविष्टियाँ करना भी सिखाया। थाने के दूसरे प्रधान आरक्षक राम वल्लभ गश्ती का काम करते थे। उनका काम महत्वपूर्ण विवेचनाओं में थाना प्रभारी की सहायता करना, कुछ विवेचनाएँ स्वयं करना, क्षेत्र मे भ्रमण तथा रात्रि विश्राम करना और अपराधिक जानकारियां एकत्रित करना आदि था। उसके साथ मैं बैलगाड़ी में चलता था। मेरी अधिकतर रातें दूरस्थ स्थित गाँवों में बीतती थीं। वहाँ मुझे ग्रामीणों को एकत्रित कर उनसे देर रात तक बात करने में बहुत आनंद आता था।

क़रीब एक हफ़्ते बाद जब एक दिन मैं थाने के बरामदे में बैठा कुछ काम कर रहा था तब राम वल्लभ ने आकर बताया कि मोरटक्का के बस ऑपरेटर बद्री विशाल मिश्रा मुझसे मिलना चाहते हैं।मोरटक्का इंदौर खंडवा राजमार्ग के बीचोंबीच नर्मदा के दक्षिण में बसा है और छोटी लाइन का स्टेशन है।वहाँ से ओम्कारेश्वर मांधाता के लिए 12 किलोमीटर का पूरब की ओर मार्ग बना है जिस पर बीच में थापना और कोठी नामक ग्राम पड़ते हैं। इस मार्ग पर मिश्रा जी की गंगा बस सर्विस कई फेरे करती थी। मिश्रा जी ने कुछ देर इधर उधर की बातें की और फिर जेब से एक लिफ़ाफ़ा निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ाया और कहा कि यह हमारी भेंट है। मैंने पहले उन्हें नम्रतापूर्वक और फिर कठोरता से लिफ़ाफ़ा लेने से इनकार कर दिया।मिश्रा जी हतप्रभ होकर वापस चले गए।संयोगवश मिश्राजी जीवन पर्यन्त मेरे प्रबल प्रशंसक बन गए।

मान्धाता मुख्यालय पर मौजूद रहने पर मैं शाम को नर्मदा तट चला जाता था जहां निर्माणाधीन फुट ब्रिज के ठेकेदार, सब-इंजीनियर आदि से बातें करता। ओंकारेश्वर मंदिर के ट्रस्टी तथा वहीं आने वाले थापना गाँव के डेली कॉलेज, इंदौर के पढ़े हुए दरबार साहब मेरे अच्छे मित्र बन गए।एक बार विशेष स्नान पर बड़े मेले का प्रबंध भी किया। कुछ आदिवासियों द्वारा सागौन की बल्लियाँ चुराने की घटना का वर्णन मैं कर चुका हूँ।एक अन्य घटना कोठी गाँव की है जहां नर्मदा तट से लगे जंगलों में ट्रेनिंग के लिए CSWT इंदौर से BSF के प्रशिक्षणार्थी आते रहते हैं। ऐसा ही एक दल जून के मध्य में आया, लेकिन दुर्भाग्य से उसका एक प्लाटून कमांडर लापता हो गया। सूचना आने पर मैं मानसून की पहली तेज बरसात के बीच दो दिनों तक जंगलों में उसे ढूँढता रहा।तीसरे दिन CSWT के DIG श्री एम एल जैन सवेरे थाने पर आ गए और मुझे खाट पर सोता हुआ देखकर काफ़ी नाराज़ हो गये। उन्होंने मुझसे पूछा कि आप कुछ कर रहे हैं क्या? मैंने उन्हें बताया कि मैंने पूरा जंगल छान लिया है और बहुतों के बयान लिए हैं। फिर मैंने उन्हें गुमशुदगी की डायरी दिखाई जिसे मैंने ख़ुद लिखा था। इसके बाद उनका ग़ुस्सा शांत हुआ। उनके पूछने पर मैंने अपना परिचय दिया और बताया कि मैं IPS ट्रेनी हूँ। अगले दिन जंगल में उस प्लाटून कमांडर की लाश मिली और जाँच से वह स्वाभाविक मृत्यु पाई गई।श्री जैन मध्य प्रदेश काडर के ही अधिकारी है और अभी भी इस घटना की चर्चा कर देते हैं।

मेरे अंतिम सप्ताह में मांधाता के बाहर सुनसान में स्थित मंदिर में एक साधु पुजारी की रात को गला घोटकर हत्या कर दी गई। इसे लेकर पूरे क़स्बे में बहुत रोष व्याप्त हो गया और बाज़ार तीन दिन तक बंद रखा गया। इस घटना का कोई चश्मदीद गवाह नहीं था।अंधे क़त्ल का पता लगाना सभी पुलिस अधिकारियों की बड़ी अभिलाषा होती है।मैंने रात दिन अथक प्रयास किया, अनेकों के बयान लिए और बहुत सोच विचार किया।अंत में मेरा ध्यान मंदिर में काम करने वाली चार लड़कियों पर गया जिन्हें शाम को मंदिर में देखा गया था।मैंने बहुत सावधानी से उनसे लंबी पूछताछ की और वे ही इस घटना की अभियुक्त निकलीं। पुजारी द्वारा यौन शोषण किए जाने से परेशान होकर इन लड़कियों ने उसका गला घोंट दिया था।अपनी थाना अवधि के अंतिम दिन अंधे कत्ल की सफल विवेचना से मैं बहुत प्रसन्न था परन्तु इन लड़कियों को गिरफ़्तार करने से मुझे काफ़ी दुख हुआ।
अगले दिन 1 जुलाई, 1976 की सुबह मैं आरक्षक दीनानाथ के साथ थाने (और हवालात) का अनुभव लेकर बस से खंडवा लौट आया।