
क्या पत्तल भी इलाज है? चलो पंक्ति में बैठ पत्तल पर खाना खाएं आज !
क्या पत्तल भी इलाज है? क्योंकि यह पात्र नही बल्कि संस्कृति है- प्रदूषण मुक्त, रोग मुक्त, सर्व-कल्याणकारी और श्रेष्ठ भारत की।
जिसमे प्रत्येक जीव की भागीदारी है…, माफ कीजियेगा थी। क्योंकि अब ये कहाँ देखने को मिलती हैं?हाँ लेकिन एक स्थान है, हमारा पतालकोट जहाँ आज भी वन भ्रमण पर इन्ही पत्तों से बनी थालियों पर भोजन परोसा जाता है, लेकिन आखिर क्यों चलिये जानते हैं, मेरे गुरूदेव के नजरिये से…। साथ मे माहुल के कई सारे उपयोग भी जानने को मिलेंगे, लेख के साथ अंत तक बने रहियेगा। वैसे आपको एक खास बात बताऊँ? सतपुड़ा की गोद मे बसे हमारे छिन्दवाड़ा जिले के तामिया ब्लॉक में एक गाँव है माहुलझिर, इसे यह नाम माहुल की लताओं की अधिकता के कारण ही मिला। आज भी लंबी लंबी इधर से उधर लटकती हुई माहुल की लतायें जंगलों में सुंदर दृश्य बनाती हुई नजर आती हैं।

वैसे तो पत्तल यानी पत्तियों की थाली, क्षेत्रीय उपलब्धता के आधार पर अलग अलग पेड़ों की पत्तियों से बनाई जाती हैं लेकिन हमारे पातालकोट सहित सम्पूर्ण छिन्दवाड़ा जिले में माहुल के पत्तों से बनी पत्तलें ही चलन में थी हालाकि कुछ स्थानों में आज भी हैं और खुशी की बात है कि अब इनकी डिमांड फिरसे होने लगी है।
तो आइये पहले जानते हैं कि माहुल या मालू क्या है? #माहुल या मालू एक बड़े आकार की बेल है जो Fabaceae family के #caesalpinoidae subfamily का एक महत्वपूर्ण सदस्य है। यह बेल भारत के जंगलो में लगभग सभी स्थानों पर पायी जाती है। प्लास्टिक युग के आगमन से पहले शादी ब्याह, त्यौहारों में, चौपटियो में इसके पत्तों से बनी #पत्तलें खूब परोसी जाती थी। वैसे इसके बीज भी ड्राय फ्रूट की तरह सुखाकर भूनकर खाये जाते हैं।
ये इतनी शानदार होती थी कि इंसान के खाना खाने के बाद इसे जूठन समेत जानवर खा जाया करते थे, मतलब कचरे का कोई झंझट नहीं होता था। वैसे तो छिंदवाड़ा जिले के प्रत्येक स्थान में इसके पत्तल आशानी से मिल जाया करते थे किंतु परासिया बाजार जितना बड़ा बाजार कही नहीं था, जिससे सभी की आवश्यकताओं की पत्तलें आशानी से मिल जाया करती थीं। यह केवल पत्तलो वाली एक बेल/ #लता नहीं है, बल्कि कई ग्रामीण खासकर ठाकुर (नाई) समाज की आय का भी एक प्रमुख जरिया थी। लेकिन व्यवसायीकरण की ताकतों ने प्रत्येक जाति आधारित उद्योगों में हीनता का भाव भर दिया और ग्रामीणों की शशक्त व्यवस्था को समाप्त कर दिया। आज सभी अपना खानदानी कार्य छोड़कर जिसमे उनका वर्षों का अनुभव था छोड़कर चंद पैसों की नोकरी के पीछे भाग रहे हैं। जरा सोचिये एक साधारण सा पौधा प्रकृति संरक्षण, प्रदुषण से छुटकारा और हजारों व्यक्तियों की आय का स्त्रोत था, किन्तु इन पढ़े लिखे ज्यादा समझदार लोगो को यह बात पसंद नहीं आयी और इन्होंने प्लास्टिक युग का दिल खोल कर स्वागत किया 

। खैर इस पर चर्चा किसी और दिन आज माहुल पर चर्चा है। कास वो दिन लौट आते जब पंगत में बैठ कर पत्तलो का आनंद उठाते। वैसे तो हमारे परिवार के लोग अक्सर ऐसा प्रयास करते हैं, और इसे ढूंढ लाते है, लेकिन अब सहज उपलब्ध नहीं है, वर्ना पहले तो हमारे गाँव के कमाते नाई घर लाकर हर अवसर पर ढेर लगा दिया करते थे।
आइये जानते हैं कि क्यों इन माहुल (Bauhinia vahlii) के पत्तों में परोसा गया भोजन अमृत तुल्य होता है। लेकिन पहले आपको बता दूँ कि अमृत तुल्य भोजन वही होगा, जिसका कण कण किसी को जीवन दे, व्यर्थ न जाये और थोड़ा बहुत अधिक हो जाने पर भी सुगमता से पच जाये अर्थात अहितकर न हो। अब आप ये सोच रहे होंगे कि मॉडर्न जमाने की स्टील, चीनी और क्रॉकरी की प्लेट से भी अधिक कोई साफ सुथरी और हाइजेनिक प्लेट हो सकती है क्या? तो मैं कहूंगा हाँ है…,
आपको हंसी आ रही होगी, कि मैं भी कैसी गँवारो (वो नही जो आप समझ रहे हैं
गँवारो मतलब गाँव वालों से है) वाली बात कर रहा हूँ। खैर गँवारो=गाँव वालों जैसी बातें तो करूँगा ही, आखिर हूँ तो गाँव वाला ही। हमे अपनी सो कॉल्ड मॉडर्न सोच को बदलने का वक्त आ गया है। क्योंकि जब हम इन पत्तियों से बनी प्लेट को नकारते हैं, तो हमारे सामने विकल्प आता है, प्लास्टिक और थर्माकोल से बने हुए घटिया और हानिकारक डिस्पोजेबल आईटम्स का, जिन्हें हम चम्मच, प्लेट, थाली या कटोरी समझ लेते हैं। है न कमाल की बात इन्ही प्लास्टिक से बने कुर्सी टेबल को कोई अगर हमसे चाटने के लिये कहे तो हम 100 रुपये लेकर भी न चाटें, और ऐसा करवाने वाले को 100 ज्ञान अलग पेल दें। लेकिन जब वही प्लास्टिक चम्मच की शक्ल में आता है, तो किसी प्रियतमा के होंठ की भांति उसे चाटते- चाटते थकते नही हैं। फंस गए न इस आकार के चक्कर मे। प्लास्टिक प्लास्टिक है यार, खाने लायक चीज थोड़े ही है। आखिर क्या क्या समझाऊँ आपको?
माहुल की बड़ी बड़ी पत्तियों से बनी थालियाँ और कटोरी (पत्तल और डोने) एक समय मे भारतीय भोजन परोसने का आधार रही हैं। न तो उस वक्त पत्ते तोड़ने से इनके आस्तित्व पर खतरा मंडराया और न ही ये महंगी थी। न ही इनसे कभी इस तरह प्रदूषण हुआ जैसा कि आजकल किसी भी भोज के बाद देखने को मिल जाता है, न ही इन्हें निगल जाने से किसी जानवर की मौत हुई और न ही इनमे भोजन खाने से कभी इंसान बीमार हुआ। तो आखिर ऐसा क्या था, जो रातों रात इन्हें मुख्य धारा से बाहर फेंक देने का कारण बन गया, किसी दिन इस पर भी चर्चा करेंगे। लेकिन इतना बताये दिए देता हूँ, कि इसमे परोसा गया भोजन अमृत तुल्य होता है, जैसा कि मैंने पहली ही लाइन में स्पष्ट लिख दिया था। क्यों…? जरा ठहरिये बताता हूँ। पहले गुरुदेव इस पर क्या कहते हैं, वह जान लीजिये- वे कहते हैं कि जब इन पत्तलों पर गर्म भोजन परोसा जाता है तो एक निश्चित तापमान पर पत्तलों से निकलने वाले रसायन भोजन में मिलकर इसे औषध बना देते हैं। इसे आप बिलकुल गर्म चाय में अदरक या तुलसी का स्वाद और गुण आ जाने जैसा ही समझें। ये रसायन भोजन को पचाने के साथ साथ शरीर मे आवश्यक प्रोटीन निर्माण को प्रेरित करते हैं।
मेरा अपना भी यही मानना है, तभी तो पुराने समय मे खाना परोसने से पहले पत्तलों को पानी छिड़कर या पानी मे धोकर गीला कर दिया जाता था, जिससे ये सूखी हुई होने के बावजूद भी ताजी हो जाती थी, टूटती नही थी, और पानी में फूलकर विशिष्ट रसायन भोजन के साथ मिलने को तैयार हो जाते रहे होंगे। इन सबके अलावा और भी कमाल की बात यह है कि इन्ही पत्तलों का प्रयोग उस भोजन को गर्म रखने के लिए इंसुलेटर (आजकल के थर्मस) की तरह किया जाता था। इंसान के भोजन ग्रहण करने के बाद बारी आती थी, गली या गांव के कुत्तों की, जो उन पत्तलों में छिपी जूठन का दाना दाना चाट लेते थे, कहीं कहीं से नजर बचाकर कौए और अन्य पक्षी भी अपना हिस्सा लूट ले जाते थे। परंतु जब सब कुछ समाप्त हो जाता था, तब गाय, बैल, बाकरियाँ आदि इसे भोजन की तरह ग्रहण कर लेते थे। दरसल जिसे हम समाप्त मान रहे थे, वह समाप्त नही बल्कि सब्जियों, दाल और कढ़ी के स्वाद में डूबी हुई पत्तियाँ हैं। जैसे इन्होंने भोजन को अपना अर्क दिया वैसे ही भोजन ने इन्हें अपना अर्क दे दिया। बस यहीं पर चांदी हो गयी इन शाकाहारी जीव जंतुओं की। उनके हिसाब से तो यह दाल रोटी, या सब्जी रोटी या कढ़ी रोटी की तरह ही होता होगा।
अब उत्सव के दूसरे दिन देखने पर पता भी नही चलता था, कि सैकड़ो इंसानों का भोज निपट गया और एक तिनका भी जाया नही गया। धन्य थी वो हमारी महान परंपरा जिसमे सभी मेहमानों को आदर के साथ बैठकर परिवार जनो द्वारा स्वयं अपने हाथ से भोजन परोसा जाता था, और सबका पेट भर जाने के बाद भी बड़े बुजुर्ग के हाथ का परोसा एक अतिरिक्त निवाला ग्रहण करना हमारी मजबूरी भी होती थी और चाहत भी। अब क्या करें, जबकि हमने पत्ते तोड़ना ही बंद कर दिया है, और उसे झूटा मूटा संरक्षण का नाम भी दे दिया है तो, कम से कम इनके पेड़ तो बच जाने चाहिए थे, लेकिन हुआ इसका उलट, अब ये पेड़ चंद सपेसीमेन के रूप में अपनी अंतिम सांसे गिन रहे हैं। किसी विद्वान ने सही कहा है, किसी बुजुर्ग को जल्दी मारना है, तो उसे बच्चों और परिवार से दूर सुरक्षित बंद कमरे में दवाइयाँ और खाना देते रहो, डिस्टर्ब बिल्कुल भी मत करो। चंद दिनों में वह बीमार होकर मर जायेगा। ठीक इन पेड़ों के साथ भी यही हुआ। अब ये संरक्षित हैं, बिना उपयोग के, अब इनकी न तो कोई पूछ परख करता है और न कोई इन्हें डिस्टर्ब करता है। फिर ये जीकर क्या करेंगे।
एक समय था जब इन पर रखकर नाश्ता, मिष्ठान और तो और गली चौराहों में फ़ास्ट फ़ूड तक बेचा जाता था। इनके ताजे पत्ते तोड़कर तड़के ही ग्रामीण नागरिक मंडी एआ जाते थे और दुकानदार मंडी पर इन्हें ढूढते फिरते थे। लेकिन अब प्लास्टिक नाम के राक्षस ने सब कुछ निगल लिया है। छिंदवाडा जिले के महादेव मेले में आज भी ग्रामीण पकवान इन्ही पत्तों या इनसे बनी पत्तलों पर परोसे जाते हैं। भारत विश्वगुरु तभी बनेगा जब हम इसका परिचय देंगे। नारे लगाने से हम विश्वगुरु नही बनने वाले। सभी को आगे आना होगा। शेष आपके विचार आमंत्रित 
धन्यवाद
आपका मित्र डॉ. विकास शर्मा
वनस्पति शास्त्र विभाग
शासकीय महाविद्यालय चौरई
जिला छिंदवाड़ा (म.प्र.)





