क्या “आजाद” बनने को तैयार है युवा (Is the youth ready to become azad)…

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क्या “आजाद” बनने को तैयार है युवा (Is the youth ready to become azad)…
हर साल 23 जुलाई को चंद्रशेखर आजाद की जयंती मनाकर उनके सम्मान में कसीदे पढ़े जाते हैं। माल्यार्पण किया जाता है। युवाओं को बताया जाता है कि चंद्रशेखर आजाद महान क्रांतिकारी थे, देशभक्त थे और अंग्रेजों से भारत को आजाद कराने के लिए उन्होंने न केवल संघर्ष किया बल्कि जान की बाजी लगा दी। पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या आज का युवा आजाद के पदचिन्हों पर चलने को तैयार है? शायद समझ में तो यही आ रहा है कि नहीं, नहीं और नहीं…।
आज का युवा आईएएस, आईपीएस, आईएफएस बनने को तैयार है। आज का युवा नेता बनने के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार है। जज, अफसर, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, सीए, सीएस से लेकर हर तरह से समृद्धि की राह पर चलने को तैयार है। सबके मूल में एक ही बात है और वह है स्थायी रोजगार पाकर सुखी जीवन जीने की आकांक्षा। और अपने-अपने सुख की तलाश में व्यस्त युवा की निगाह इस पर कतई नहीं पड़ रही है कि आजादी के मायने सही अर्थों में कहां गुम हो गए हैं। आजाद की मूर्ति पर माल्यार्पण करने की औपचारिकता से आजाद होने का मतलब कतई नहीं समझा जा सकता। यदि ऐसा होता, तो शायद आजादी के 75 साल बाद अपने ही देश में कुपोषण से नहीं लड़ना पड़ता? शायद अपने ही देश में अपराध, भ्रष्टाचार, बलात्कार, अशिक्षा, बदतर स्वास्थ्य सेवाओं, रोटी, कपड़ा, मकान, पेयजल और बेरोजगारी जैसी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता? यह सब समस्याएं तभी पैदा हुईं, जब आजादी के बाद “आजाद” मर गया और मूर्ति पर हर साल माला चढ़ाने का रिवाज चल पड़ा। देश को दिल में बसाने की जगह खुद की संपत्ति बढ़ाने और अपनों को ही रसूख दिखाने का चलन चल पड़ा। और युवा राह भटकते-भटकते आजादी के मायनों से बहुत दूर चला गया है अब।
आजाद से जुड़ी एक घटना पर नजर डालें। 1919 में हुए अमृतसर के  जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश के नवयुवकों को उद्वेलित कर दिया। चन्द्रशेखर उस समय पढाई कर रहे थे। जब गांधीजी ने सन् 1920 में असहयोग आन्दोलन का फरमान जारी किया तो वह आग ज्वालामुखी  बनकर फट पड़ी और तमाम अन्य छात्रों की भाँति चन्द्रशेखर भी सड़कों पर उतर आये। अपने विद्यालय के छात्रों के जत्थे के साथ इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे पहली बार गिरफ़्तार हुए और उन्हें 15 बेतों की सज़ा मिली। इस घटना का उल्लेख पं० जवाहरलाल नेहरू ने कायदा तोड़ने वाले एक छोटे से लड़के की कहानी के रूप में किया है। वह इस तरह है- ऐसे ही कायदे (कानून) तोड़ने के लिये एक छोटे से लड़के को, जिसकी उम्र 14 या 15 साल की थी और जो अपने को आज़ाद कहता था, बेंत की सजा दी गयी। वह नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उस पर पड़ते थे और उसकी चमड़ी उधेड़ डालते थे, वह ‘भारत माता की जय!’ चिल्लाता था। हर बेंत के साथ वह लड़का तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। बाद में वही लड़का उत्तर भारत के क्रान्तिकारी कार्यों के दल का एक बड़ा नेता बना। यह नेता था आजाद।
क्या आज के युवाओं में यह हौसला है कि देश के हित में कठिन राह पर चल सकें और चलने का साहस कठिनतम परिस्थितियों में भी हार न माने। यदि आजाद का यह भाव भी युवा मन सहेजकर रख पाता, तो शायद देश में देश को लूटने वाले गद्दार पैदा न होने पाते। ईमानदारी, नैतिकता और त्याग, बलिदान जैसे शब्द अपना मायना न खोने पाते। और किसी मंत्री के करीबियों से करोड़ों की अकूत संपत्ति बरामद न होने पाती। और देश में गरीबी के चलते भूख से मौतों की नौबत न आने पाती। देश के साथ गद्दारी करने वालों को सबक सिखाने का हौसला युवाओं में जिंदा रहता, तब ही हम कह सकते थे कि “आजाद” मरा नहीं है, अब भी जिंदा है। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, अशफाकउल्लाह मरे नहीं हैं, उनकी शहादत युवाओं के खून में जिंदा है। और तब देश में समस्याओं का अंबार न होता, बल्कि देश समस्याओं से आजाद होता। और आज नहीं तो कल एक बार फिर युवा को आजाद बनना ही पड़ेगी, तभी देश एक बार फिर सही मायने में आजाद हो पाएगा। सवाल यही है कि क्या “आजाद” बनने को तैयार है देश का युवा…। फिलहाल तो सेना में स्थायी नौकरी और रोजगार की तलाश का गुलाम बनकर ही भटक रहा है देश का युवा…।